5:37 pm - Monday January 22, 9512

हारेगा यह महाप्रलय – शुभ्रांशु

 

हारेगा यह महाप्रलय

                                                                                                                                शुभ्रांशुshubhranshu

क्या प्रलय इसे ही कहते हैं?

प्रियजन अपनों को त्वरित छोड़ 

बिन बोलेमुँह को मूक मोड़ 

चल दिये अकेले बिन विदाई

इसके पहले कि व्यथा आई

सब स्वाहा सब कुछ भस्म हुआ

क्या नाश इसी को कहते हैं?

इसके पहले कि समझ सके

मानव थोड़ा कुछ सम्हल सके

कैसी विपदा कैसा संकट

कितना प्रचंड कैसा उत्कट

यह महाकाल का आनाक्या

विध्वंस इसी को कहते हैं?

शय्या पर लेट साँस रुकती

पर आँखें दूरपास तकतीं

कोई भी पास नहीं दिखता

ऐसे में जीवन क्यों टिकता

अब हिलती है जीवनबाती

हिचकी भी नहीं निकल पाती

ग्रीवा में जो नली डली

आँखों की बेबस है पुतली

बिन बोले क्या होगा प्रयाण

क्या आन पड़ा मृत्यु प्रमाण

ना शब्द विदा के निकल सके

क्यों दूर खड़े हैं विकल सगे

दो गज ज़मीन तो तय थी पर

दो गज की दूरी बहुत हुई

अर्थी को कंधा नहीं मिला

क्या इस जीवन का यही सिला

धूधू कर जलती अग्नि है

पर निकट  भ्राताभगिनी है

सर्वनाश संबंधों का

क्या प्रलय इसे ही कहते हैं

यह कैसा प्रबल बवंडर है

यह भय जो सबके अंदर है

क्या होगा कैसे होगा कब

यह अंधियारा जायेगा कब

क्या नष्ट हुआ मानव जीवन

टूटी सभ्यता की सीवन

क्या प्रलय इसी को कहते हैं

पर कभी तो सूरज जागेगा

यह तमस कभी तो भागेगा

मानव सहता आया प्रहार

झेले हैं इसने कई कुठार

इस बार विजय फिर से होगी

विपदा ख़त्म निश्चय होगी

बस थोड़ा धीरज और करो

कस प्रत्यंचा बाण धरो

यह कीट चतुर है पातक है

पर शौर्य हमारा घातक है

विजय हमारी है निश्चय

हारेगा तय है महाप्रलय

हारेगा तय है महाप्रलय

Filed in: Literature, Poems

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