एक शताब्दी के सफल व् अनथक प्रयासों के बाद भारत को आत्मनिर्भरता की मंजिल क्यों नहीं मिली ? श्री कृष्ण सरीखे वैश्वीकरण की मथुरा से पलायन रोकने के उपाय
राजीव उपाध्याय
प्रधान मंत्री मोदी की आत्म निर्भरता की घोषणा का चीन व कोरोना से संतप्त देश ने स्वागत किया है . कोई भी भारत की चीनी दवाओं पर निर्भरता या सीमा पर युद्ध में पराजय नहीं चाहता . रक्षा मैं आत्मनिर्भरता आवश्यक है क्योंकि भारत की एक हज़ार वर्ष की गुलामी छुटे अभी मात्र सत्तर वर्ष हुए हैं . इन सत्तर वर्षों मैं हम आधा कश्मीर व् अक्सी चीन का क्षेत्र भी गंवा चुके हैं . अब कोई भारत को पुनः युद्ध मैं पराजित नहीं देखना चाहता .इस लिए प्रधान मंत्री की इस घोषणा व नए लक्ष्य का व्यापक स्वागत हुआ है .
परन्तु एक शताब्दी से अधिक समय से तो हम आत्म निर्भरता के लिए सतत प्रयास रत हैं और इसमें स्वर्णिम सफलता भी पायी है . यह तो स्वतंत्रता के बाद हमारा मूल मन्त्र था . फिर हमारे प्रयासों की दिशा मैं क्या कमी रह गयी जिसके चलते आज प्रधान मंत्री जी को पुनः इस पुराने लक्ष्य को क्यों जीवित करना पडा ? एक खतरा और भी है . क्या यह वैश्वीकरण की दौड़ मैं हमारी पराजय का शंखनाद तो नहीं जिसके बाद हम भगवान् कृष्ण की तरह वैश्वीकरण की मथुरा नगरी छोड़ आत्म निर्भरता की नयी द्वारका बसाने जा रहे हैं ? ज्ञात रहे कि द्वारका तो श्री कृष्ण के साथ ही डूब गयी थीऔर उसकी रानियाँ ,भीलों ने अर्जुन को परास्त कर लूट ली थीं . इसके गहन विश्लेषण के लिए हमें अपने आत्म निर्भरता के इतिहास को पुनः देखना होगा .
आधुनिक भारत के आत्म निर्भरता अभियान का प्रारम्भ इसके जनक जमशेद जी टाटा द्वारा १९०७ मैं टाटानगर का स्टील प्लांट लगाना माना जाता है . यद्यपि इसके बहुत पहले सन १८५८ मैं रेलवे की विशाल जमालपुर वर्कशॉप बनायी जा चुकी थी परन्तु रेलवे की वर्कशॉप EIR व् अन्य कंपनियों के लिए काम करती थीं . बंबई मैं पहली कॉटन मिल सन १८५४ द्वारा लगाईं गयी थी व् कलकत्ता मैं पहली जुट मिल सन १८५५ लगाई गयी थी . कानपूर की लाल इमली की ऊन मिल सन १८७६ में लगाई गयी थी . स्वतंत्र भारत का लक्ष्य ही खेती व् औद्योगिक आत्मनिर्भरता व् विज्ञान का विकास था . भाखड़ा व् हीराकुंड डैम , बड़े औद्योगिक प्रतिष्ठान जैसे एच एम् टी , सी एल डबल्यु , सिंदरी , एच ई एल रांची , बीएच ई एल , बी ए आरसी ट्रोम्बे , दुर्गापुर व् भिलाई स्टील प्लांट , एच ए एल इत्यादि की सफलता ने भारत मैं एक आत्मविश्वास की लहर दौड़ा दी . भारत आत्मनिर्भरता की ओर अग्रसर हो चुका था जिसको रोक पाना संभव नहीं था . पंडित नेहरु की मृत्यु तक भारत मैं एक सौ दस से अधिक इंजीनियरिंग कोलेज खुल चुके थे . विदेशी सहयोग से बने भारतीय आई आई टी , मेडिकल कॉलेज विश्व स्तरीय पढाई करवा रहे थे.
परन्तु जन संख्या के बहुत बढ़ने से खाद्यान की बहुत कमी हो गयी .लाल बहादुर शास्त्री जी को जय जवान जय किसान का नारा देना पडा . पर हरित क्रांति ने इसको फिर दूर कर दिया . देश का औद्योगिक विकास अपनी गति से चल रहा था . इंदिरा गांधी के काल तक विदेशी मुद्रा ,तेल व् रक्षा को छोड़ आत्म निर्भरता कोई विशेष समस्या नहीं रह गयी थी .
भारत की मूल समस्या थी की जहां भारत ने निस्संदेह बहुत प्रगति की वहां अन्य देशों ने भारत से कहीं अधिक प्रगति कर ली .भारत की एम्बेसडर कार से लेकर स्टील व् सीमेंट तक सब कुछ बहुत पुराना ,घटिया व् मंहगा था . इसलिए भारत का निर्यात बहुत कम था और भारत को विदेशी मुद्रा की कमी होने लगी थी . यह घटिया मंहगा सामान ही अगले बीस साल तक हमारा सर दर्द बना रहा . पश्चिम , जापान व रूस के मुकाबले हमारी विज्ञान व् तकनीकी क्षेत्र मैं उपलब्धियां नगण्य थीं . हमारी पढ़ाई रट्टू पैदा कर रही जो निख्टटू थे . वास्तव मैं हम आत्मनिर्भरता के लक्ष्य मैं इतना डूब चुके थे की हमने पीछे मुड़ कर यह नहीं देखा की और हमसे क्यों इतना आगे निकल गए . हमारी लाइसेंस राज की भ्रष्टाचारी व्यवस्था ने रिश्वत देने मैं माहिर उद्योग पति पैदा कर दिए . हमारी हर सप्ताह खराब होने वाली एम्बेसडर कार हमारी असफलताओं का प्रतीक बन गयी . इंग्लैंड से कभी स्टील प्लांट लाने का खतरा उठाने वाले जमशेदजी टाटा जैसे उद्योग पति के बजाय अब एक दिन के लिये जहाज पर आयात ड्यूटी माफ़ करवाने का चमत्कार करने वाले बड़े उद्योग पति बन गए और कभी इमानदार ,साहसी व् प्रतिभा शाली बाबू बेईमान व चापलूसी करने व करवाने मैं माहिर हो गए . सबको आसान पैसे की लत लग गयी . हमारी भ्रष्ट राजनिति ने देश का चरित्र बदल दिया .
इसके अलावा हमारे उद्योगपति सदा से बाहर की सफल टेक्नोलॉजी को खरीदते रहे . टाटा मोटर के सिवाय किसी ने अपनी टेक्नोलॉजी बनाने का प्रयास नहीं किया . इसलिए भारत की औद्योगिक डिजाईन का ज्ञान बहुत सीमित है . स्टील इत्यादि मैं कुछ ज्यादा अच्छा है परन्तु वहां ही नए डिजाईन का अनुभव नहीं है . इसके लिए हमें देश के प्रमुख उद्योग पतियों को कम से कम एक विश्व विजेता उत्पाद बनाने के लिए प्रेरित व् मजबूर करना पडेगा . धीरे धीरे देश मैं डिजाईन स्किल व् विकास करना होगा . इसी तरह हमारी यूनिवर्सिटी की रिसर्च तो बिलकुल बकवास है . उद्योगों द्वारा प्रेषित रिसर्च से कुछ गुणवत्ता का लाभ होगा . अमरीका की तरह हमारे विश्व विद्यालयों को उद्योगों पर अंशतः आश्रित करना आव्श्यक्क है .अभी तो सभी अपने वैश्विक स्तर पर निम्न कोटि के काम को बड़ा मानते हैं . सीएसआई आर जैसी विशाल संस्थाएं खर्च के अनुरूप परिणाम नहीं दे रहीं .Low Quality हमारी सांस्कृतिक समस्या है और इसका उपचार Demonstration Effect से ही संभव है . एक बार विदेशियों को लगा कर इनकी गुणवत्ता मैंभी सुधार लाना आवश्यक है . भारत मैं अभी विश्व विजेता बनने का सपना नहीं अपनाया गया है और यह हर क्षेत्र की समस्या है.
इसके चलते अंतर्राष्ट्रीय व्यापार मैं हम पिछड़ते गए . विएतनाम , सिंगापुर , मलेशिया जैसे देश भी हमसे आगे निकल गए .हमारा देश का सोना गिरवी रखने के दिन भी आ गए. परन्तु हमारी भ्रष्टाचारी सोच नहीं बदली . चुनाव मैं वोटर को पैसे देने की नयी उपजी प्रथा ने भ्रष्टाचार को राष्ट्रीय आवश्यकता बना दिया . सारी जनता ऊपर से नीचे तक निम्न स्तर की हो गयी . हमारी उत्पादों की कीमतों को कम करने का ज्ञान , इच्छा शक्ती व् साहस तीनों का अभाव था . वर्तमान सरकार के छः वर्ष मैं भी निर्यात नहीं बढ़ सका . जब चीन ने हमें लदाख मैं झिंझोड़ा तो हमें अपने चीन पर आश्रित होने का अहसास खला . रक्षा के हथियारों के लिये तो हम सदा से आयात पर आश्रित थे पर चीन की इस मैं प्रगति हमारे गले की हड्डी बन गयी . कोरोना द्वारा फैलायी बेरोजगारी ने हमें आयात घटाने वाली आत्मनिर्भरता को ओर धकेल दिया . परन्तु चीन को हटाने की कीमत देसी मंहगाई भी तो दुःख देगी . हम अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार मैं और पिछड़ जायेंगे .
यदि इसकी समझ हो तो रोकने का प्रयास किया जा सकता है . परन्तु एक उदाहरण से स्थिति समझ आ जायेगी . आज यदि हम मिसाइल मैं कुछ आगे हैं तो इसका कारण श्रीमती गांधी द्वारा डा कलाम पर पूर्ण विश्वास कर कर शुरू मैं ही बारह साल का फण्ड देकर काम में पूर्ण स्वंत्रता दे दी थी . क्या आज कोई वैज्ञानिक यह स्वतंत्रता लेना भी चाहेगा ? हर तरफ तो सीबीआई , ई डी , सी वी सी , इनकम टैक्स व् घमण्डी व् अज्ञानी बाबु रास्ता रोके खड़े हैं . न कोई विश्वास लेकर और न ही देकर खतरा मोल लेना चाहता है . आज नारों की घोषणा कर अगले महीने परिणाम मांगे जाते हें . दशकों तक मेहनत का अब कौन इन्तिज़ार करना चाहता है ? उद्योगपति लाइसेंस मैं बना कर खुश है और बाबू आयात करने में . कौन खतरा ले ! टाटा ने स्वदेशी कार बनायी, क्या हुआ ? रक्षा मैं आत्म निर्भरता की एक कीमत होती है जो मंत्री से सैनिक तक सबको चुकानी पड़ती है . स्वदेशी हथियार अमरीकी हथियारों से सदा दस प्रतिशत कम होंगे , देर से बनेंगे और उसमें रिश्वत भी नहीं मिलेगी . इसलिए सब उनकी कमियों का बखान करेंगे . न चीनी जे २०, ऍफ़ २२ है न पाकिस्तानी जे ऍफ़ – १७ एफ १६ है पर वह ख़ुशी से उपयोग मैं लाये जा रहे हैं . हमारा एल सी एच हेलीकाप्टार व अर्जुन एम् के २ टैंक अभी बन कर भी आर्डर की ही प्रतीक्षा कर रहा है . विदेशी हथियार ज्यादा अचछे होने के साथ सब को माला माल बना देंगे . किसी मैं इस कीमत को अदा करने का साहस है ? सबसे निकृष्ट तो वह प्रतिभा शाली बाबु है जो सब कुछ जान कर भी सिर्फ चापलूसी मैं वर्षों से प्रधान मंत्री को गुमराह कर रहे हैं . निजी करण के नाम पर अच्छे खासे एच ए एल जैसों संस्थानों को बर्बाद करने पर तुले हैं जो देश की शान हैं .
प्रश्न है की क्या १९९० की इम्पोर्ट सबसीट्यूशन वाली आत्म निर्भरता हमें हमारे संकटों से निकाल पायेगी ? इसका उत्तर सिर्फ वह दें जिन में सच का ज्ञान व् उसे बोलने की हिम्मत हो ?
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