क्यों सिर्फ पारम्परिक पारिवारिक भारतीय नारी ही स्वतः आदर योग्य है : Selfish& Careerist Women Have To Prove And Earn Love &Respect

क्यों सिर्फ पारम्परिक पारिवारिक भारतीय नारी ही स्वतः आदर योग्य है : Selfish& Careerist Women Have To Prove And Earn Love &Respect

राजीव उपाध्याय rp_RKU-263x300.jpg

 

प्रकृति में किसी जीव को स्वतः दूसरों से आदर पाने का अधिकार नहीं होता है इसे कमाना होता है. इसी तरह हर किसी को अपने जीवन यापन का प्रबंध स्वयं करना पड़ता है किसी का पेट भरना दूसरे की जिम्मेवारी नहीं हो सकती ! नारियां इसका अपवाद नहीं हैं न वह स्वतः आदर की पात्र हैं न ही उनके पेट भरना किसी दुसरे की जिम्मेवारी है.

पहले क्योंकि बहुत मादाओं व् बच्चों की शीघ्र मृत्यु हो जाती थी इस लिए प्रजातियों के बचने के लिए अनेक बच्चों का होना आवश्यक था . इसलिए प्रकृति ने नर मैं सम्भोग की प्रबल इच्छा दी थी जिसके लिए पशु सदा लड़ते रहते थे . इस तरह सिर्फ ताकतवर पशुओं को सम्भोग का सुख मिलता था .इस तरह बच्चे स्वतः सबसे अच्छे जींस से पैदा होते थे . नर अनेकों मादाओं से संसर्ग स्वाभिक रूप से करता था . भोजन इकट्ठा करना बहुत कठिन था और शिकार के लिए बहुत ताकत की जरूरत होती थी  .इसलिए ताकतवर नर ज्यादा मूल्यवान थे और ताकत से संसर्ग सुख के लिए मादाओं पर अधिकार जमाते थे .

खेती की खोज के बाद  भोजन इकट्ठा करने के लिए जंगल में  शिकार की तरह ताकत या खतरे से लड़ने की आवश्यकता नहीं रही. मानव समाज में  नर व् मादा संख्या में बराबर होने से मादाओं से संसर्ग के लिए लड़ाई की जरूरत भी नहीं रही . इसलिए सामाजिक शांति के लिए विवाह व् परिवार की व्यवस्था प्रारम्भ हो गयी . तब भी राजकुमारियों में सुन्दरता व् राजकुमारों में वीरता ही विवाह के लिए  प्रमुख गुण थे . परन्तु कृषि व् अन्य धंधों से जुड़े हुए लोगों के लिए वीरता व् सुन्दरता इतने मूल्यवान नहीं रहे . पुरुष व् स्त्री के कार्य क्षेत्र एक दम अलग थे और उनकी शारीरिक रचना के अनुकूल थे . शारीरिक रूप से कमज़ोर स्त्रियों के कर्तव्य अधिक थे परन्तु उनका समाज में आदर भी अधिक था . मनु संहिता में आगे से आती स्त्री को पहले रास्ता देने का प्रावधान है. लक्ष्मण ने रामचरित मानस के अनुसार सीता जी के पैर ही देखे थे . परिवार की स्त्रियों व् बच्चों की दैनिक जीवन की आवश्यकताओं ओ पूरा करना पुरुषों का दायित्व था . गरीबी के जीवन में पुरुष का जीवन शारीरिक रूप से बहुत कठिन था पर उसे घर में स्त्री व् परिवार से शांति व् सुख मिलता था . सात से दस बच्चे होना स्वाभाविक था जिसमें छह से सात बच्चों का बच जाना सामान्य  था . स्त्री इतने बच्चों को जन्म देने व् पालने मैं इतनी व्यस्त होती थी की घर के काम से उसे फुर्सत नहीं मिलती थी . हमारी पारिवारिक परम्पराएं जिसमें पुरुष को आदर व् कठिन जीवन व् स्त्री को सुरक्षा व् प्यार ही तथा बूढ़े माँ  बाप की सेवा हमारी पारिवारिक परम्पराओं का आधार  था . समृद्ध व् सुरक्षित समाज में परिवार में एक स्त्री व् एक पुरुष ही उचित थे इसलिए सामान्यतः पुरुष एक पत्नी ही रखते थे . सदा युद्धों मैं व्यस्त व् अधिक सैनिकों की मृत्यु वाले समाजों में बहु पत्नी की परम्परा थी . इस व्यवस्था में विधवाओं का जीवन बहुत कठिन होता था . परित्यक्ता व् विधवा समान से ही होते थे इसलिए सुहाग अति मूल्यवान था . यह व्यवस्था हज़ारों साल इसीलिए चली की यह सब से अधिक उचित थी .

इस व्यस्था को पहला झटका विज्ञान ने दिया . मशीनों ने जीवन पहले की अपेक्षा काफी सरल कर दिया . उन्नत दवाओं से बच्चों व् स्त्रियों के की अकाल मृत्यु दर कम होने लगी . इसलिए परिवार नियंत्रित करने  की आवश्यकता आने लगी .परन्तु पुराने बर्थ कण्ट्रोल के तरीकों की विश्वसनीयता बहुत कम थी . अमरीका में पहला आधुनिक बर्थ कण्ट्रोल क्लिनिक मार्गरेट संगेर ने १९१४ मैं  खोला था . उसके बाद कंडोम व् पिल के अनुसंधान ने बर्थ कण्ट्रोल को घर घर पहुंचा दिया . दूसरी तरफ मशीनों व् कारखानों के आने के बाद पुरुष की शारीरिक क्षमता की जरूरत कम होने लगी .परन्तु विवाह की परम्परा स्त्री पुरुष दोनों के लिए हितकारी होने के कारण अक्षुण्य रही . इस को पहली चोट प्रथम विश्व युद्ध ने दी . जब सब समर्थ पुरुष जबरन सेना में भरती कर लिए गए तो कारखाने चलाने के लिए महिलाओं को लाना पडा . यह द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान तो  यह आवश्यकता बहुत प्रबल हो गयी  . इसी दौरान महिलायें बड़ी संख्या में कारखानों मैं मशीनों पर काम करने लगीं . जब युद्ध के बाद सैनिक घर वापिस आये तो उनके लिए नौकरियां नहीं बचीं क्यंकि उनकी जगह तो महिलायें काम कर रही थीं . इसी से महिलाओं को लगा की वह पुरुषों के सामान ही मशीनों पर काम कर सकती हें और वह अपनी इस आर्थिक स्वत्न्र्ता  को खोना नहीं चाहती थीं .

इसी से महिलावाद की नींव पड़ी .इसी समय सन १९४९ में लेखिका साइमन दी बेविऔर  की पुस्तक ‘ द  सेकंड सेक्स ‘ जिसमें उन्होंने महिलाओं को पुरुषों के समान बनने के लिए प्रेरित किया . उनका वाक्य कि ‘ औरत औरत पैदा नहीं होती पर बनायी जाती है ‘ महिला आन्दोलनों की आधार शिला बन गया . १९६० – १९८० के दशक महिला आन्दोलन के प्रमुख वर्ष थे . गर्भ निरोधक गोली ने महिलाओं को अनचाहे गर्भ धारण से मुक्ती दे दी . मशीनों में शक्ति से अधिक दिमाग की जरूरत थी जो स्त्री और पुरुष मैं बराबर था . इस लिए स्त्रियों की बराबरी की मांग  जोर पकडती गयी और धीरे धीरे इसे समाज ने स्वीकारना शुरू कर दिया . परन्तु इसका प्रमुख कारण पश्चिम के औद्योगिक प्रगति भी थी जिससे इतनी अधिक नौकरियां बन गयीं की समाज के सब स्त्री व् पुरुषों को नौकरी मिलना संभव हो गया . पहले कारखानों चौदह घंटे काम करना पड़ता था और मजदूर का जीवन बहुत कठिन था . इसी तरह कृषि भी कठिन कार्य था . इसलिए अधिकाँश स्त्रियाँ सरल घरेलू जीवन मैं खुश थीं और पुरुष अपने बल पर अभिमान कर दूहर जीवन बिता कर भी खुश था .आज भी बिहारी या खाड़ी के देशों में काम कर रहे पुरुषों का जीवन बहुत कठिन है .

परन्तु उभरते साम्यवाद व् कारखानों मजदूर संगठनों के वर्चस्व से १९८० तक काम के घंटे काफी कम हो चुके थे और अधिकांश कठिन काम मशीन करने लगीं .सप्ताह में दो दिन की छुट्टी होने लगी . उधर बच्चों की संख्या भी दो या तीन होने लगी . इससे स्त्रियों को नौकरी करना आसान हो गया . इससे नारीवाद को बल मिला और स्त्रियाँ बराबरी की मुहीम चलाने लगीं . एक वोट के सिद्धांत  ने सरकारों को स्त्रियों के पक्ष को मानने के लिए मजबूर कर दिया और धीरे धीरे पश्चिम के समाज मैं स्त्री पुरुष बराबर होने लगे .

परन्तु भारत या अन्य गरीब देशों में जन संख्या इतनी ज्यादा है कि यहाँ बेरोजगार युवकों के लिए भी नौकरियों का अकाल है .पश्चिम की तरह यहाँ हर स्त्री को स्वतः काम नहीं मिल जाता . इसी तरह गरीबी के कारण घर में मशीनों की सुविधाएं कम होती हें. गाँवों का जीवन आज भी बहुत कष्टकारी है . वहां आज भी स्त्री के घर व् पुरुष के बाहर के काम करने से कोई नुक्सान नहीं है . इसी तरह शहरों में भी यद्यपि लड़के व् लड़कियों को सामान शिक्षा का प्रचलन हो गया है परन्तु छोटे बच्चों की देखभाल के लिए घर में स्त्री अधिक उपयोगी है .परन्तु आज के इन्टरनेट युग में भारत की नारी पश्चिम से बिना व् बिना उचित मूल्यांकन के प्रभावित हो रही है .टीवी घर घर मैं रानी झांसी पैदा कर रहा है और नवविवाहिता की आकान्शायें बहुत बढ़ा दी हैं अपने साथ अपनी शिकायतों व् अधिकारों की मांग का पुलिंदा लेकर आने लगी . न्यायालयों ने भी स्त्रियों की कर्तव्य भावना को कम करने में बहुत योगदान दिया है .उनके पारिवारिक दायित्व को दकियानूसी करार दे दिया है .हाल के शौचालय के विज्ञापन को लें जिस में बिना शौचालय के लड़की शादी के लिए मना कर देती है . सदियों की परम्परा को टूटने के लिए समय देना होता है और परिवार में विद्रोह समाधान नहीं है .

परन्तु पश्चिम की सत्तर साल की नारी मुक्ति के मूल्यांकन ने यह भी स्पष्ट कर दिया की नारी की बराबरी की मुहीम राजनितिक सफलता है . इतने डॉक्टर ,नर्स , अध्यापक होने के बाद भी नारियों की विशेष उपलब्धि बहुत कम रही है . गूगल के एक कर्मचारी ने ठीक कहा है की नारियों की हर क्षेत्र में कम उपलब्धि किसी भेदभाव के कारण नहीं उनके शारीरिक व् मानसिक गुणों के कारण है . पुरुष अपने लक्ष्य प्राप्ति के लिए ज्यादा मेहनत करता है और इसी लिए उसकी कार्यालयों में उपलब्धियां अधिक होती हैं .नारी की बराबरी य समानता एक भ्रम है तथ्य नहीं जिसे सिर्फ वोट की राजनीती फैला रही है .

प्रश्न है की स्त्रियों का शौक के लिए नौकरी करना बुरा नहीं है परन्तु उसे पारिवारिक कर्तव्यों के पालन न करने का बहाना नहीं बनाया जा सकता . उच्च  शिक्षा प्राप्त महिलाओं का बड़ी नौकरी करना सर्वथा उचित है . परिवार की बढ़ोतरी के लिए नौकरी करने में भी कोई बुराई नहीं है . परन्तु सम्पन्न्वर्ग में स्त्री की नौकरी पारिवारिक आवश्यकता नहीं  है बल्कि मात्र एक शौक है . उसे अधिकार नहीं माना जा सकता . संपन्न घरों में बच्चे व् पति घरेलु पत्नी से अधिक खुश रहते हें.पुरुष व् स्त्रियों को विवाह के पूर्व अपनी शर्तों व् विवाह के असफल होने की अवस्था में बच्चों के भविष्य के बारे मैं करार करने का अधिकार होना चाहिए . आज कल न्यायालयों के बेहद हस्तक्षेप  से पारिवारिक संतुलन बिगड़ गया है जिससे पुरुषों व् बूढ़े माँ  बाप की हालत खराब हो गयी है . उनकी सेवा तो दूर अब उनसे पोतों पोतियों की सेवा की अपेक्षा होने लगी है .प्राकृतिक प्रेम वश बूढ़े माँ बाप पोते पोतियों के साथ बहुत खुश रहते हैं पर उनपर परिवार व् बच्चों के लालन पालन का पूरा बोझ डालना गलत है .इसी तरह इस युग की कठिन नौकरी के बाद पुरुष घर में शांति चाहता है . कामकाजी स्त्री के रोज़ नयी शिकायतों को झेलना कठिन हो जाता है . इसलिए भारतीय परिपेक्ष में पश्चिम सरीखा नारी मुक्ती आन्दोलन आधारहीन है . इसी तरह लड़कियों को परिवार में मिल कर रहने के बजाय विद्रोह की शिक्षा देना भी पारिवारिक व्यवस्था के लिए उपयुक्त नहीं है .नारी मुक्ति आन्दोलन ने नारी को बहुत प्रगति य खुशियाँ नहीं दी है बल्कि पश्चिम की परिवार व्यवस्था को बिलकुल  तोड़ दिया है . अमरीका मैं सिर्फ आधे बच्चे ही व्यस्क होने तक माँ  बाप को साथ देख पाते हैं .अब तो तलाक राज घरानों मैं भी दस्तक देने लगे हें. औरतों के करियर के प्रति समर्पित होने से बच्चों की कमी से पश्चिम की संस्कृति समाप्त होने की कगार पर है .

क्या यही समाज हमारा आदर्श है ?

भारतीय पारम्परिक परिवार को समर्पित त्याग व् प्रेम का पर्याय नारी आज  भी स्वतः आदर व् सुरक्षा की हक़दार है परन्तु आक्रामक स्वाभाव की काम क़ाज़ी व् स्वार्थी महिलाओं को कोई विशेष अधिकार नहीं दिया जा सकता .उन्हें और सब की तरह सिर्फ अपनी क़ाबलियत व् उपलब्धियों  से प्रेम व् आदर पाना होगा .

न तो आदर न ही भरण पोषण व् सुरक्षा किसी जीव का प्राकृतिक अधिकार है इसे अपने प्रयासों से पाया जाता है .आधुनिक  नारी इसका अपवाद नहीं हो सकती है .

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