स्वतंत्र भारत मैं शिक्षा नीति में कथित क्रांतियों का इतिहास : जहां जहां पैर पड़े संतन के तहीं तहीं बंटाधार

स्वतंत्र भारत मैं शिक्षा नीति में कथित क्रांतियों का इतिहास : जहां जहां पैर पड़े संतन के तहीं तहीं बंटाधार

राजीव उपाध्याय rp_RKU-263x300.jpg

जिन लोगों ने दफ्तरों में , स्वतंत्रता से पहले उच्च शिक्षा ग्रहण कर चुके व नए कॉलेज से निकले लोगों से काम करवाया है,  उनसे यदि पूछा जाय कि कौन ज्यादा अच्छा काम करता है तो निस्संदेह ही वह स्वतंत्रता से पहले के पढ़े लोगों को ज्यादा उपयोगी मानेंगे . अंग्रेजों के युग का सामान्य इंटर पास क्लर्क ज्यादा अच्छी चिट्ठी लिख लेता था और नोट भी ज्यादा अच्छा बना लेता था . अधिकांशतः उसका  हिंदी व् इंग्लिश की व्याकरण का ज्ञान भी अच्छा होता था . इसके अलावा अंग्रेजों के काल के पढ़े लोगों मैं काम के प्रति समर्पण अधिक था .पांचवी पास  बच्चा ठीक से  पढ़ लिख सकता था व् गणित व् विज्ञान का काम चलाऊ ज्ञान होता था . उसके बाद बच्चा बाप के साथ उसी के काम मैं लग जाता था  और व्यवसाय का ज्ञान पिता  से पाता  था .किसान लोहार कुम्हार इत्यादि के लिए इतनी शिक्षा ही काफी थी . मिडिल यानि आठवीं क्लास अगला पड़ाव होती थी जिससे बालक चपरासी मुनीम इत्यादी बनने  मैं सक्षम होता था . दसवीं यानि हाई स्कूल बड़ी क्लास थी और बारहवीं यानी इंटर एक बड़ा पड़ाव होती थी . विशेषतः लड़कियों के लिए इतनी शिक्षा काफी मानी जाती थी . इसके आगे सिर्फ उच्च शिक्षा पाने के लिए पढ़ते थे . तीन साल का बी ए तो  आई ए एस की परीक्षा के लिए काफी था .इसी तरह एम् ए लेक्चर की पढाई व पी एच डी यूनिवर्सिटी के लेक्चरर के लिए आवश्यक थी . एम् बी बी एस या बी ई की डिग्री नौकरी के लिए काफी थीं .

स्वतंत्रता के बाद शिक्षा मैं बहुत सारी कथित क्रांतियाँ आयीं पर शिक्षा का स्तर गिरता गया . अब एक और क्रान्ति का ऐलान हुआ है . तो पहले तो हम शिक्षा के परिवर्तनों का इतिहास देख लें .

स्वतंत्रता के बाद नेहरु युग में पहला परिवर्तन  तो त्रिभाषा फोर्मुले से आया जो देश की एकता को बढाने के लिए उपयुक्त था . इसमें आठवीं तक हिंदी , इंग्लिश व मात्री  भाषा  की पढाई को आवश्यक कर दिया गया . हिंदी की पढ़ाई मैं देश भक्ति , संस्कृति के अध्यायों का समावेश होता था . सोशल स्टडी मैं अन्य विषयों जिनमें  इतिहास भूगोल सिविक्स इत्यादि पढ़ाया जाता था . नवीं  के बाद आर्ट्स व् साइंस अलग हो जाते थे . इस काल में कोठारी समिति की दूरगामी रिपोर्ट ने लड़कियों को लड़कों के सामान विज्ञान की शिक्षा देना प्रारम्भ कर दिया जो एक बहुत बड़ा परिवर्तन था . इसके अतिरिक्त इस काल मैं शिक्षा का विस्तार प्रमुख उपलब्धि थी . परन्तु इस विस्तार  से सुदूर के स्कूल व् कॉलेज की पढ़ाई घटिया होती गयी  क्योंकि शिक्षक बड़े शहरों मैं रहना चाहते थी . शिक्षा की गुणवत्ता मैं कोई परिवर्तन नहीं हुआ . केंद्र मैं  इंटर को हटा कर ग्यारह वर्ष की हायर सेकेंडरी व् तीन साल का बी ए शुरू कर दिया जो कुछ राज्यों ने भी अपना लिया . इसका मुख्य कारण हाई स्कूल का महत्व खत्म होना था .पर इससे शिक्षा के स्तर मैं कोई परिवर्तन नहीं आया.

इंदिरा गांधी काल में शिक्षा पर साम्य्वादी व  तथाकथित धर्म निर्पेक्ष्वादी  विचार धारा हावी हो गयी . पाठ्य पुस्तकों मैं ग से गणेश को ग से गधा बनाना प्रगति बन गयी . इतिहास बदल दिया गया व राणा प्रताप ,गांधी  व् भगत सिंह सरीखों देश भक्तों का अवमूल्यन हो गया . भारतीय त्योहारों व् संस्कृति के पाठों को धीरे धीरे निकालना शरू हो गया और पश्चिमी विचारधारा हावी होने लगी . परन्तु केन्द्रीय विद्यालयों व्  एनसी आर टी की पुस्तकों ने  देश भर मैं एक अच्छा स्टैण्डर्ड  बना दिया . परन्तु धीरे धीरे स्कूलों में विषय व पाठ्य क्रम बढ़ते  गए और शिक्षा मैं  विषय को समझने के बजाय रटने का महत्व बढ़ गया . छोटे छोटे बच्चों के बस्ते  उनसे ज्यादा भारी हो गए. छोटे शहरों मैं नए स्कूलों व  व् कॉलेजों की भरमार से नक़ल  का चलन बढ़ गया . छात्र यूनियन एक और बीमारी आ गयी . आई आई टी सरीखे उच्च शैक्षणिक संस्थान देश की शान बने रहे पर नीचे सामान्य शिक्षा  का स्तर गिर गया . परन्तु आर्थिक विकास के अभाव में नयी नौकरियां नहीं बन रहीं थी . शिक्षितों में बेरोजगारी एक विकराल समस्या बन गयी . मनमोहन युग में कंप्यूटर की बढ़ती  नौकरियों ने कंप्यूटर की शिक्षा को गाँव  गांवमें पहुंचा दिया और सॉफ्टवेर मैं नयी नौकरियों ने शिक्षा का महत्व बढ़ा दिया .

सोनिया गाँधी युग में कपिल सिब्बल का शिक्षा मंत्री काल देश के लिए एक ऐसा अभिशाप बन गया जिससे देश कभी नहीं उबर पायेगा . वार्षिक परीक्षाओं मैं फेल करने  को समाप्त कर देना शिक्षा  क्षेत्र  पिछले सौ वर्ष की सबसे बड़ी त्रासदी थी . इस देश की विडंबना यह है कि सामान्य  बच्चे  सिर्फ  परीक्षा से पहले पढ़ते हैं . वार्षिक परीक्षा शिक्षा का एक निम्नतम स्तर बनाए रखती  थी . इसके अभाव में स्कूलों  का स्तर इतना गिर गया है कि अब राजनीतिक इच्छा  शक्ति के  अभाव मैं उसे उठा पाना अब संभव भी नहीं दीखता. उनका या सोनिया का दूसरा विद्वेष संस्कृत व् संस्कृति से था . त्रिभाषा फोर्मुले में संस्कृत को हटा कर छोटे बच्चों को जर्मन भाषा पढ़ाना एक आपराधिक देश द्रोह था जिसके लिए देश उन्हें कभी क्षमा नहीं करेगा. सोनिया युग का यह दंश देश दशकों तक भुगतेगा .

मुरली मनोहर जोशी जी ने स्कूल की शिक्षा मैं भारतीय संस्कृति के पुराने पाठों को वापिस लाने की कोशिश की पर साम्यवादियों ने इतना हल्ला किया की वाजपेयी जी बहुत आगे नहीं बढे जब की पुरे नेहरु काल  मैं वह पाठ भारतीय शिक्षा का अंग थे . कुछ लोगों की धारणा  के अनुसार इसी समय स्मृति इरानी  का काल  उच्च  शैक्षणिक  संस्थानों के आत्मसम्मान के लिए बुरा समय बन गया . पता नहीं किस बाबू ने उन्हें रौब जमाने के लिए आई आई टी के डायरेक्टरों को अपने कमरे मैं खड़ा रखने की सलाह दी और शैक्षणिक संस्थानों की स्वायत्ता की परम्परा  को तोड़ उनमें सरकारी  दखल बहुत बढ़ गया . एक तरह से उनका युग शिक्षा मैं इंस्पेक्टर राज डालने जैसा ही था . संस्कृत के पुनर्स्थापन  व्  पाठ्यपुस्तकों को नेट पर डालने जैसे कुछ अच्छे निर्णयों को छोड़ उनका काल भी सिब्बल युग में ध्क्स्त शिक्षा  स्तर का  निम्न काल चलने का ही था .

अब वर्तमान नयी शिक्षा नीति को देखते हैं . दस या बारह वर्ष का स्कूल शिक्षा काल , तीन या चार साल का बी ए करना कोई क्रांति नहीं है . इसका मुख्य उद्देश्य तो सिर्फ अमरीका जैसी प्रणाली लाना प्रतीत होता है जिसका भारतीय परिपेक्ष में कोई  महत्व नहीं है . शिक्षा काल मैं व्यर्थ मैं बार बार बदलाव हानिकारक होते हैं . पी एच डी से पहले व्यर्थ के एम् फिल को समाप्त करना उचित कदम है . लोग शादी या नौकरी तक पढ़ते रहने के लिए व्यर्थ मैं पी एच डी करते रहते थे जिससे रिसर्च का स्तर गिर रहा था . पर एम् फिल इसका  गलत समाधान था जो ठीक ही हटा  दिया गया . परन्तु इससे  समस्या का हल नहीं होता है.

हमारी मुख्य समस्या शिक्षा का बहुत निम्न स्तर है जो विगत दस वर्षों मैं बहुत प्रबल हो गयी  है . दूसरी बात यह है कि नौकरियों के अभाव मैं लम्बी  स्कूली शिक्षा दैनिक जीवन के व्यापन के लिए बेकार हो गयी है . इससे तो सामान्य बच्चों का पाँचवीं या आठवीं  पास कर पिता के साथ काम पर लग जाना जीवनों पार्जन  के लिए अधिक  उपयोगी था . मुसलमान परिवारों में तो यह आज भी  प्रचलित है और इससे उनकी पारिवारिक आय अधिक होती है क्योंकि बच्चे फालतू की पढाई मैं समय नष्ट नहीं करते. तीसरी बहुत बड़ी समस्या हमारी शिक्षा रट्टू  तोते पैदा करती है बिल गेट , स्टीव जॉब , ज्युकर्बर्ग नहीं . हमारा विश्व विद्यालयों की रिसर्च का  स्तर तो अति निम्न है . किताबी ज्ञान रोज़ के जीवन में किसी काम का नहीं होता है. इसके अलावा अर्थशास्त्र के अलावा आर्ट्स के विषय इतने उपयोगी नहीं हैं जितने अधिक छात्रों को इन्हें  पढ़ाया जा रहा है . विशेषतः यूनिवर्सिटी रिसर्च मैं तो इनकी गुणवत्ता बढाने व संख्या  बहुत कम करने की आवश्यकता है .रिसर्च मैं कुछ विश्व स्तरीय मानक बनाना आवश्यक है और सिर्फ अच्छी यूनिवर्सिटी को रिसर्च ग्रांट मिलनी चाहिए. बाबुओं में आर्ट्स से आने वालों की संख्या अधिक होने के कारण  आर्ट्स विषयों की उपयोगिता का महिमा मंडन किया जा रहा है.

नयी शिक्षा नीति  इन समस्यायों को चिन्हित तो ठीक किया है परन्तु उनके  समाधानों  के उपयोगी होने मैं संदेह है . अमरीका की तर्जपर विदेशी प्राइवेट यूनिवर्सिटी शिक्षा को कितना ऊपर उठा पाएंगी यह देखना होगा . आई आई टी भी तो विदेशी सहयोग से बनी थीं . वहां पर सारी विदेशी पुस्तकें व पाठ्य क्रम  थे  और शुरू मैं तो विदेशी प्रोफेसर भी थे . पर हमने  अमरीका के लिए उपयोगी इंजीनियर तो बना लिए पर भारत में बिल गेट तो नहीं बने . यह हमारी सांस्कृतिक समस्या है. भारत मैं आने वाली विदेशी यूनिवर्सिटी भी इसी भारतीयकरण के कुचक्र मैं न फंस जाएँ . अंततः जैसे भारत मैं प्राइवेट स्कूल के आने से सरकारी स्कूल तो हीन हो गए पर शिक्षा का स्तर नहीं बढ़ा उसी तरह प्राइवेट विदेशी यूनिवर्सिटी आने से भारतीय यूनिवर्सिटी का स्तर तो गिर जाएगा परन्तु शिक्षा का स्तर नहीं उठेगा .  गरीब का इन मंहगी यूनिवर्सिटी में  पढ़ना कठिन हो जाएगा . उच्च  शिक्षा सिर्फ अमीरों के लिए रह जायेगी. इसके सामाजिक परिणाम अच्छे नहीं होंगे.

स्कूल मैं एक पीरियड में कोई हुनर सिखाना बहुत उपयोगी नहीं होगा. यह हाथ के काम का महत्व  तो समझा  देगा पर कोई इससे बढ़ई या  लोहार नहीं बन जाएगा . स्कूलों में इसके लिए इतनी सुविधाएं नहीं हैं. उद्योगों मैं ट्रेनिंग के लिए भेजना बहुत उपयोगी नहीं होता क्योंकि कोई ट्रेनीस  को समय नहीं देता और वह बहुत कम सीखते हैं . फिर भी यदि इसे ठीक से विकसित किया गया तो इससे कभी बिल गेट पैदा होने लग सकते हैं . इंजीनियरिंग कॉलेज मैं सदा से वर्कशॉप पीरियड होता है . इसी तरह स्कूलों मैं विज्ञान  का प्रैक्टिकल का  पीरियड होता है .  कहीं कहीं खेलों का पीरियड भी  होता है . पर इससे हमारी शिक्षा की मूल संस्कृति नहीं बदली .यही डर नयी नीति से भी है.

पर एक आशा यह भी है की अमरीका समेत विश्व मैं अन्तराष्ट्रीय डिग्री से भारतीय अधिक संख्या मैं विदेशों मैं नौकरी पा सकेंगे और सॉफ्टवेर की तरह भारतीय शिक्षक बड़ी आय का स्रोत बन सकेंगे..

१७५७ से अंग्रेज़ी ढंग से पढ़ कर हम इंग्लैंड न बन सके . तो फिर थोड़ी सी अमरीका की नक़ल से हम अमरीका भी नहीं बन सकते .

भारत की मूल संस्कृति मैं बदलाव शिक्षा से ही आयेगा . परन्तु नयी सरकारी शिक्षा नीति  समस्या की जड़ तक नहीं सोच पायी है . यह पूरे देश की संस्कृति बदलने की समस्या है. परन्तु जिस लगन की असाधारण सफलता के लिए जरूरत होती है वह हमारे देश मैं नहीं है . हमारा शिक्षक वर्ग भी देश के अन्य वर्गों की तरह ही कम से कम काम से ज्यादा पैसा कमाना चाहता है. इसलिए हम जो भी परिवर्तन कर लें   हम मीडियोकर  ही रहेंगे जब तक हम अपने काम की श्रेष्ठता पर गर्व न करें . यह गर्व पिछले बीस सालों के सरकार के ऊंचे लोगों के भ्रष्टाचार ने और समाप्त कर दिया है .यदि हमारे शैक्षणिक संस्थान आदर्शों का केंद्र बन सकें तो वास्तविक प्रगति संभव है . शिक्षा मंत्रालय को सब को मिला कर सोचना होगा . इसके सतही समाधान पर अभी और वैश्विविक अनुभवों वाले प्रखर विद्वानों द्वारा गहन चिंतन  की आवश्यकता है.

परन्तु  इस चिंतन का प्रारम्भ ही स्वयं  मैं स्वागत योग्य है.

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