आत्मनिर्भर भारत, संभव या असंभव : महज चुनावी नारे के आगे की दुविधायें व् सफलता

आत्मनिर्भर भारत, संभव या असंभव  : महज चुनावी नारे के आगे की दुविधायें व् सफलता

राजीव उपाध्याय

प्रधान मंत्री ने अपने कोरोना काल के इस वर्ष मई  में अपने  पांचवें संबोधन में देश को आत्म निर्भर भारत का नया लक्ष्य , नारा या दिशा निर्देश दिया जो अगलेrp_RKU-263x300.jpg से दिन से हर सरकारी व् निजी टीवी चेनल  पर चर्चा का विषय बन गया और एक महीने में अनेक राज्य सरकारें इसकी उपलब्धियों का बखान भी करने लगी हैं. चीन की लददाख में घुसपैठ ने हमारी रक्षा क्षेत्र मैं विदेशों पर निर्भरता को फिर से बुरी तरह से उजागर कर दिया . इसके पहले भी बालाकोट के प्रत्युत्तर में  हम पाकिस्तानी जहाज़ों को नहीं रोक पाए थे क्योंकि उनके पास हमसे ज्यादा दूर तक मार करने वाले मिसाइल थे और उन्होंने हमारी संचार प्रणाली को ध्वस्त कर दिया था .इसलिए आत्म निर्भर भारत की टीवी चर्चाओं मैं रक्षा क्षेत्र का विशेष ज़िक्र  किया जाने लगा .इतनी चर्चाओं से ऐसा प्रतीत होने लगा  है की अब तो कुछ ही वर्षों में हम आत्म निर्भरता का लक्ष्य प्राप्त कर लेंगे .

परन्तु प्रश्न यह उठता है की आत्मनिर्भरता तो हमारा स्वतंत्रता के बाद से पिछले सत्तर वर्षों का निर्विरोध लक्ष्य रहा है तो उसमें क्या  कमी रह गयी और आज हम क्या ऐसा विशेष कर रहे हैं कि हम कि हम कुछ ही वर्षों में विशेष सफलता हासिल कर लेंगे ?

इस के लिए आत्म निर्भरता के पुराने प्रयासों व् उपलब्धियों की समीक्षा व् आज की विदेशों पर निर्भरता के कारणों व् उनके निवारणों पर गौर करना होगा .

स्वतंत्रता के बाद देश की पहली प्राथमिकता तो कृषि का विकास ही थी और पहली पञ्च वर्षीय योजना में मुख्य निवेश  कृषि के विकास के लिए किया गया था .परन्तु १९६५ के आते आते हम खाद्यान के लिए विदेशों पर बुरी तरह से आश्रित हो गए और अमरीकी पी एल ४८० के आयातित गेहूं ने हमें दुर्भिक्ष से बचा लिया अन्य्था लाखों लोग भूख से मारे जाते . इसके बाद देश ने करवट ली और अनेकों डेम , नहरों व् ट्यूब वेल के जाल से सिंचाई को बहुत बढाया .  हरित क्रांति ने हमारा खाद्यानों का उत्पादन इतना बढ़ा दिया कि आज भारत कृषि उत्पादन में विश्व का दूसरा सबसे बड़ा देश है और हम ३८ बिलियन डॉलर का कृषि निर्यात करते हें.

देश की दूसरी सबसे बड़ी उपलब्धि औद्योगिक व् विज्ञान व् टेक्नोलॉजी की आत्मनिर्भरता है . पंडित नेहरु की दूर दृष्टि ने देश को बड़े बड़े कारखानों को सार्वजनिक क्षेत्र में बिना लाभ के भी लगा कर देश को टेक्नोलॉजी मैं आत्म निर्भर कर दिया . ऐसे ही १९६५ तक देश मैं लगभग ११० इंजीनियरिंग कॉलेज खोल कर देश को विज्ञान व् तकनिकी शिक्षा मैं आत्म निर्भर बना दिया .१९४७ से आज का भारत कितना बदल गया है इसका अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि आज भारत विश्व का दूसरा सबसे बड़ा बिजली, इस्पात, कोयले  का उत्पादक देश है व् सीमेंट का तीसरा बड़ा उत्पादक है. देश में १५० बिलियन डॉलर का कपडे का उत्पादन है . कारों व ऑटोमोबाइल में विश्व का चौथा सबसे बड़ा उत्पादक है .  रेलवे के इंजिन , कोच व् मॉल डिब्बों मैं हम पूर्णतः आत्म निर्भर हैं .अन्य औद्योगिक क्षेत्रों मैं भी हमने बहुत विकास किया है .विज्ञान मैं अन्तरिक्ष , परमाणु ऊर्जा विज्ञान ,दवाओं इत्यादि मैं भी हम लगभग आत्म निर्भर हैं .

तो प्रश्न यह उठता है की जब हम सत्तर वर्षों से आत्मनिर्भर भारत की ओर सदा से लगातार प्रयास  रत थे तो प्रधान मंत्री को पुनः क्यों देश को यह पुराना  नारा य दिशा निर्देश दुबारा देना पडा ?

इसका मुख्य कारण तो भारत का रक्षा उपकरणों के क्षेत्र मैं विदेशों पर पूर्ण निर्भरता है .१९६२ से १९९९ के कारगिल व् २००१ के संसद पर हमले तक, हर युद्ध से पहले हमारे हाथ पैर फूल जाते हैं क्योंकि हम पाते हैं की हमारी रक्षा सामग्री की उपलब्धता आवश्यकता से बहुत कम है और हम बीस दिन के युद्ध के लिए भी बिलकुल तैयार नहीं होते . चीन के लद्दाख की झड़प ने हम को फिर इस कुरूपता से अवगत करा दिया .हम वर्षों से विश्व के सबसे बड़े हथियार आयात करने वाले देश बने रहे जो लगभग आज भी है .

रक्षा के अलावा हम सालाना 2016 हमने २८ अरब रूपये की दालें आयात की  , ७४००० करोड़ रूपये का  खाद्य तेल व् २०१९ में लगभग ९५००० करोड़ रूपये का क्रूड आयल आयत किया . यूरानियम ,कोयला , ताम्बे इत्यादि के लिए भी विदेशों पर आश्रि त हैं . इससे अधिक चिंता का विषय हमारा ३०० बिलियन डॉलर के  माल का निर्यात  और ४८० बिलयन डॉलर का माल आयात करना है .हमारा निर्यात आयात से बहुत कम है .  हम अपने वार्षिक खर्चे के लिए खाड़ी के देशों से भेजे जाने वाले धन पर और विदेशी निवेश की धन राशि पर आश्रित हैं जो की हमारी आत्मनिर्भरता को कम करता है. हमारा  विदेशी मुद्रा भण्डार हमारे   विदेशी कर्जों से कम है और उसका ढोल पीटना भ्रामक है .इसके अलावा भारत अपनी टेक्नोलॉजी विकसित करने मैं पूर्णतः विफल रहा है . हम सदा से विदेशी टेक्नोलॉजी को लाइसेंस से खरीद कर देश मैं उत्पादन करते रहे हैं . टाटा  ने कारों को देश मैं बनाने की प्रशंसनीय कोशिश की थी जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर की नहीं थी और बहुत सफल नहीं हुई . बाकि उद्योगपतियों ने तो डर के मारे इतनी हिम्मत भी नहीं दिखाई . देश टेक्नोलॉजी मैं आज भी पूर्णतः विदेशों पर आश्रित है .

अब यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है की प्रधान मंत्री किस क्षेत्र मैं भारत को आत्म निर्भर बनाना चाह रहे हैं और वह कितना संभव है ? उपरोक्त क्षेत्रों मैं जो आत्मनिर्भरता पिछले सत्तर साल मैं नहीं मिली वह अब प्रधान मंत्री के एक भाषण से कैसे मिल जायेगी ? क्या सरकार ने ऐसे कोई नए कदम उठाये हैं जिनसे यह संभव हो ?

इन तथ्यों के विश्लेषण से पता चलता है कि यह कदम भी नोट बंदी व् जीएसटी की ही तरह बिना पूर्ण तैयारी के जल्द बाजी मैं की गयी घोषणा है  जो गंभीर पूर्व चिंतन के अभाव में पिछले बड़े प्रयासों की तरह ही विफल हो सकती है . इसके कारणों व् निवारणों पर विश्लेषण आवश्यक है .

भारत में अभी भी पश्चिमी देशों के मुकाबले इंजीनियरिंग डिजाईन की क्षमता बहुत कम है . हमारे उद्योगपति अविकसित टेक्नोलॉजी पर पैसा नहीं लगाना चाहते और भारत में विश्व स्तरीय रिसर्च व् डिजाईन शायद ही किसी क्षेत्र मैं हो . चीन , जापान या कोरिया की तरह हमारा कोई भी विश्व स्तरीय इंजीनियरिंग प्रोडक्ट नहीं है .यह हाल इंजीनियरिंग ही नहीं ,बाबुशाही ,खेल , पढाई . फिल्म , साहित्य इत्यादि जैसे हर क्षेत्र का है .बहुत कम क्षेत्रों में हम विश्वस्तरीय क्षमता रखते हैं . इस क्षमता का विकास की किसी को कोई समझ भी नहीं है न ही यह विषय किसी सरकार की प्राथमिकता रहा है और इसमें जापान , चीन व् कोरिया की तरह बीस साल लग सकते हैं . उदाहरणतः सन १९८३ मैं श्रीमती गाँधी ने श्री अब्दुल कलाम पर विश्वास कर लगभग २००  करोड़ का इंटीग्रेटेड मिसाइल प्रोजेक्ट अनुमोदित कर दिया . आज भारत की मिसाइल आत्मनिर्भरता बीस साल के अनथक प्रयास से मिली है . रिसर्च मैं बहुत समय व् धन लगता है और असफलताएं भी मिलती हैं . परन्तु वैज्ञानिकों पर विश्वास आवश्यक होता है और असफलताओं   पर उनके गले नहीं काटे जाते  . क्या कोई बाबु या मंत्री आज इतनी दूर दृष्टि दिखा सकता है ? प्रधान मंत्री राजनितिक कारणों से बाबुओं पर पूर्णतः आश्रित हैं .बाबुओं को तो इस विषय का कोई अनुभव या ज्ञान भी  नहीं है सिर्फ पुलिसिया डंडे के घमंड व् डर से सरकार चलाना जानते हैं जो आत्मनिर्भरता के विकास के लिए अनुकूल वातावरण नहीं दे सकती . गीता समान निष्काम भाव तो कहीं दीखता ही नहीं क्योंकि  हर कोई तो तुरंत चुनावी जीत के लिए परिणाम खोज रहा है जैसे १५ अगस्त तक कोरोना की जबरदस्ती वैक्सीन बनाने की असफल कोशिश .

यदि सरकार भारत को इंजीनियरिंग डिजाईन में विश्वस्तरीय बनाना चाहती है तो यह बहुत लम्बी प्रक्रिया होगी जिसे वह ही सफलता दिला सकते हें  जिनको इस विषय का व्यक्तिगत अनुभव व् ज्ञान हो .

खनिज तेल , यूरानियम  में आत्मनिर्भरता के लिए बहुत प्रयास करना होगा और सफलता कठिन है. परन्तु कोयले , दालों , खाने के तेल मैं सफलता संभव है यदि इसे प्राथमिकता बनाया जाय .

रक्षा क्षेत्र मैं इस प्रयास की सफलता अत्यधिक महत्वपूर्ण है . कोई देश अपनी रक्षा के लिए दूसरों पर निर्भर नहीं हो सकता . परन्तु आत्मनिर्भरता की कीमत समझना आवश्यक है . चीन के विशाल रक्षा बजट के चलते भारत को अपना रक्षा बजट डेढ गुना बढ़ाना होगा . भारत के अभी तक वर्षों से विकसित हथियारों को समुचित आर्डर नहीं दिए जा रहे हैं . इससे वैज्ञानिकों का मनोबल गिरता है . एके २०३ राईफल , अर्जुन टैंक , विभिन्न देसी मिसाइल , तोपों , तेजस हवाई जहाज़ों, हेलीकॉप्टरों , राडारों  को तुरंत इतने आर्डर तो दिए जाएँ जिससे उनको प्रयोग मैं ला कर उनकी खामियों को समझ कर उनको पूर्णतः विकसित कर सकें . निजी क्षेत्र के विकास के लिए उनको नए अवसर दिए जाएँ . उनके लिए सार्वजानिक क्षेत्र की बलि नहीं दी जा सकती . मोबाइल का उदाहरण देने वाले एम्बेसडर व् फ़िएट कार का इतिहास भी देख लें .रक्षा व् वित्त विभागके बाबु एच ए एल जैसे उपक्रमों को सिर्फ दुधारू गाय की तरह अपने ऊपर आश्रित कर  उपयोग करना चाहते है जो उनके आत्म सम्मान व् उत्साह  के लिए घातक हें . इसके अलावा तत्कालीन रक्षा मंत्री जॉर्ज  फेरनादीस के समय दलाल आर के गुप्ता द्वारा रक्षा मंत्रालय मैं बाबु से लेकर सचिव तक रिश्वत के जो रेट बताये थी वह सर्व विदित हैं . जनरल सुंदरजी व् वीके सिंह के विदेशी दलालों के अनुभव भी सर्व विदित हैं .  देसी उपक्रमों के पास वर्षों का संचित ज्ञान व् अनुभव तो है पर वह अम्बानी या लोकहीड का मुकाबला कैसे कर सकते हैं और सुस्त भी होते हैं . निजी स्वार्थ के चलते हर कोई उनकी कमियों का बढ़ चढ़ कर बखान करेगा .यदि भारत मैं नए हवाई जहाज की प्राइवेट फैक्ट्री लगानी है तो कम से कम दस साल का आर्डर देना होगा . तब भी कोई देश अपनी ऍफ़ – ३५ या सुखोई ५७ जैसे अति आधुनिक व् उन्नत तकनीक भारत को नहीं देगा . हमारा मेक इन इंडिया का अनुभव भी यही है .इस लिए हमें तीस प्रतिशत अत्याधुनिक हथियार तो सदा आयात करने ही होंगे क्योंकि जब तक भारत मैं पांचवी पीढी के हवाई जहाज बनेंगे विश्व छठी पीढी के हवाई जहाज बना रहा होगा . इस आयात को रोकना भी मूर्खता होगी . परन्तु बाकि स्वदेशी हथियार आधुनिकतम हथियारों के मुकाबले के नहीं होंगे . परन्तु हमारी सेनाओं को उनके उपयोग के लिए तैयार होना होगा . इस के लिए एक लम्बी स्थायी व् वास्तविकताओं पर आधारित साहसिक नीति की आवश्यकता है जो सेनाओं व् कारखानों के जानकार व् अनुभवी लोग ही बना सकते हैं .जिन बाबुओं को इसका समुचित ज्ञान व् अनुभव न हो तथा  इसमें व्यक्तिगत हित य अनहित हो उनको इस नीति निर्धारण से दूर  रखना होगा .

आज हम बीस साल मैं सिर्फ छतीस हवाई जहाज खरीद सके हैं जो बहुत शर्म की बात है . विश्व के किसी देश में इतनी धीरे हथियार खरीदने की प्रक्रिया नहीं होती है . हमारे दुश्मन चीन व् पाकिस्तान तो तो तुरंत आवश्यक हथियार खरीदने का निर्णय ले सकते हैं . हम तो ऐसे उनसे सदा हारते रहेंगे और हमरे अभिनन्दन बहादुरी के बावजूद बंदी बनते रहेंगे . दिल्ली मेट्रो के श्रीधरन ने यह सिद्ध कर दिया है की यदि इच्छाशक्ति हो तो इसको बदला जा सकता है .क्यों न एमएम आर सी ए  का हवाई अहाज का टेंडर किसी बाहर के श्रीधरन को दे दिया जाय . वह इसको एक साल मैं पूर्ण संतुष्टी से खरीद के दिखा देंगे परन्तु बड़े बाबु पूरी पुलिस ,सीबीआई , सीवीसी ,ईडी , इनकम टैक्स की ताकत उनको फंसाने मैं लगा देंगे . इसलिए कोई इस गोरख धंधे मैं हाथ नहीं डालना चाहेगा .

यदि आत्म निर्भरता चाहिए तो प्रधान मंत्री को श्रीमती इंदिरा गाँधी के मिसाइल प्रोजेक्ट की तरह बड़ा निर्णय लेना होगा .

आयात निर्यात नीतियों को भी बहुत सोच समझ कर बदलना होगा .यदि आत्मनिर्भरता के नाम पर ११९० वाला पुराना इंस्पेक्टर लाइसेंस राज वापिस आ गया तो यह सदा के लिए देश के लिए एक शाप व् नासूर बन जाएगा .

अब तक की सार्वजानिक मंचों पर चर्चा से तो यह साफ़ है की नोट बंदी की ही तरह किसी ने पूरी तरह इस विषय का गंभीर अध्ययन नहीं किया है . इसलिए बहुत लोगों को डर है की नोट बंदी की ही तरह भ्रष्ट अनुभवहीन लोग इससे देश का बंटाढार ही न कर दें .

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