From A  Peaceful Lagoon Under King Zahir Shah To A Smoldering Volcano Under Taliban & Lessons From Afghanistan Tragedy For India

 

 

From A  Peaceful Lagoon Under King Zahir Shah To A Smoldering Volcano Under Taliban & Lessons From Afghanistan Tragedy For India : Foreigners Can Destroy But Can Not Build A Nation

Rajiv Upadhyay

मैं राजीव उपाध्याय ,  आपका पत्रियोट फोरम के खरी खरी कार्यक्रम के सातवें एपिसोड मैं  स्वागत करता  हूँ . हमारे आज का कार्यक्रम अफ़ग़ानिस्तान पर है जो राजा ज़हीर शाह  के चालीस वर्ष के शासन काल में एक शांत झील था वह क्यों अब एक ज्वालामुखी बन गया है और इससे भारत को क्या शिक्षा मिलती है .पहले तो यह स्लाइड देखें की ज़हीर शाह व् उनके बाद अफगान शासकों का क्या हाल हुआ “

स्लाइड १

इस विषय पर देश मैं अनेकों कार्यक्रम हुए पर कभी यह चर्चा नहीं हुई कि जो गुरुदेव के काबुलीवाले का शांत झील सामान देश अफगानिस्तान था वह आज का ज्वालामुखी कैसे बन गया . इस सम्बन्ध मैं कई प्रश्न उठते हैं .पहला प्रश्न  तो है

प्रश्न १ —   अफ़ग़ानिस्तान राजा ज़हीर के चालीस साल के शासन मैं क्यों इतना शांत रहा और उनके बाद क्या बिगड़ गया ?

इसका उत्तर ज़हीर शाह के व्यक्तित्व मैं है और रूस की क्रांति को आदर्श मानने वाले कम्युनिस्टों के उदय व् रूस अमरीका के शीत युद्ध  मैं है . ज़हीर शाह ( फोटो ) एक बहुत शांत , न्यायप्रिय व् दयावान शासक थे . अफगानिस्तान  मैं अनेकों ट्राइब थीं जो अपने कानून, परम्पराएं व् इस्लाम को मानती थीं .  राजा ज़हीर ने उनकी इन सांस्कृतिक बातों  में कभी दखलन दाजी नहीं की .

उनके समय द्वितीय विश्व महा युद्ध भी आया पर उन्होंने किसी शक्ति का साथ नहीं दिया और देश को उसकी विभीषिका से बचा लिया . इस के बाद रूस अमरीका का शीत युद्ध आया उसमें भी वह तटस्थ रहे और दोनों से देश के विकास की मदद लेते रहे .

१९४७ मैं भारत आज़ाद हुआ और भयानक दंगे हुए पर अफगानिस्तान उनसे दूर रहा . विरोधियों को वह सुन कर विरोध सह लेते थे .किसी को राजनितिक विरोध मैं प्राण दंड नहीं दिया .

इस लिए वह इतने लम्बे समय १९३३ से १९७३ तक पूर्ण शांति से राज्य कर सके . १९७३ मैं जब वह इटली इलाज़ के लिए गए हुए थे तो उनके पुराने प्रधान मंत्री व् रिश्तेदार दाऊद  खान ने कम्युनिस्ट विचार धारा के सेना अधिकारियों की मदद से तख्तापलट दिया व अफगानिस्तान को प्रजा तंत्र बना दिया . अपनी इस राजतन्त्र की हार को उन्होंने स्वीकार कर सत्ता से बेदखल कर के चिट्ठी लिख दी . इसके बदले दाऊद खान ने उनके जीवन यापन का भार ले लिया .

इस तरह एक न्याय प्रिय व् सहिष्णु प्रजा पालक होने के कारण  वह इतने लम्बे समय तक राज्य कर सके .

 

 

प्रश्न २  — अच्छा यह बताएं की राजा ज़हीर शाह के बाद क्या हुआ और  अफगानिस्तान कैसे बदलने लगा ?

ज़हीर शाह के समय मैं ही काबुल विश्व विद्यालय एक चिंतन का गढ़ बन गया था . इसमें कम्युनिस्ट तराकी व् अमीन भी थे और इस्लामिक राष्ट्रवादी Rabbani  भी थे . पाकिस्तान ने तो अमरीकी प्रभाव मैं जनरल अकबर खान , फैज़ अहमद फैज़ इत्यादि को गिरफ्तार कर कम्युनिस्टों को कुचल दिया पर अफगानिस्तान  मैं कम्युनिस्ट विचारधारा रूस के प्रभाव से पलती रही . ज़हीर शाह  के बाद आये   दाऊद खान ( फोटो ) एक बहुत कुशल प्रशासक व् स्वाभिमानी नेता  थे और दस साल का प्रधान मंत्री का अनुभव भी था . वह स्वाभाविक लिबरल थे और उनके समय मैं भी अफगान औरतें बहुत पढ़ कर आगे बढ़ रही थीं . आर्थिक विकास भी था और लोग गरीब होते हुए भी खुश थे .

पर वह एक benevolent dictator . उन्होंने अफगानिस्तान में  राजनितिक पार्टियों को तोड़ एक पार्टी राज स्थापित कर दिया . वह पश्तूनों के पक्षपाती थे . पाकिस्तान से उनके सम्बन्ध पश्तून एकता Durand लाइन को लेकर ख़राब थे . ब्रेजनेव के साथ भी उन्होंने झुकने से मना कर दिया .अंत मैं जिन कम्युनिस्ट  सेनाधिकारियों की सहायता से वह सत्ता मैं आये थे उन्होंने ने ही १९७८ में उनके पूरे परिवार की ह्त्या कर दी .

 

 

प्रश्न ३ —-  दाऊद  खान के बाद अफगानिस्तान क्या हुआ ?

दाऊद खान  के बाद कम्युनिस्ट सीधे सत्ता मैं आ गए जो लेनिन से बहुत प्रभावित थे और हिंसा को एक मान्य तरीका मानते थे. वह  रूस के तरफ चले गए . राष्ट्रपति noor muhamad taraki बने जो लम्बे समय से अफगान कम्युनिस्ट पार्टी के जनरल सेक्रेटरी थे ( फोटो ) . पर एक साल मैं ही उनके नंबर दो के साथी हफिज़ुल्ल अमीन  

( फोटो ) ने उनकी ह्त्या करवा दी और खुद पार्टी के सर्वे  सर्वा बन गए . उन्होंने जबरदस्ती देश पर सैन्य बल से कम्युनिज्म लादने का प्रयास किया . अफगान ट्राइब्स एक तरह कीअंदरूनी  स्वत्न्र्ता की आदी थीं . उनको इस्लाम की सदियों पुरानी परम्पराएं टूटने का गुस्सा था . भूमि सुधार भी लोकप्रिय नहीं हुआ  और अमीन का विरोध बहुत बढ़ गया . रूस ने उनसे देश को साथ लेकर चलने की सलाह दी पर अंत मैं देश मैं शांति स्थापित करने रूस की सेना अफगानिस्तान मैं घुस गयी और १९७९ में अमीन की भी ह्त्या कर दी गयी .

 

 

प्रश्न ४ —  क्या अमीन व् तराकी के बाद अफ़ग़ानिस्तान शांत हो गया अन्यथा अब किसने उसकी शांति भंग की ? काबुल व् अफ़ग़ानिस्तान की अर्थ व्यवस्था का विनाश किसने किया ?

१९७९ में  ब्रेजनेव ने अफगानिस्तान को रूसी  खेमे मैं रखने के लिए सेना भेज दी और बबरक करमाल को शासन सौंप दिया ( फोटो ) . बबरक कर्मल एक बहुत्कुशल प्रशासक नहीं थे .और  रूस के घुसते ही अमरीका खुल कर विरोध मैं आ गया . उसने सउदी और पाकिस्तान की मदद से मुजाहिदीन तैयार किये ( फोटो रेगन के साथ ) जो अफगानिस्तान को रूस से मुक्त करने के लिए जिहाद लड़ने लगे . बबरक भी पारंपरिक कम्युनिस्ट विचार धारा व् शासन लादना चाह रहे थे जो अफगान जनता को मान्य  नहीं थे और करमाल स्थिति को सुधार नहीं पाए . अंत मैं रूस ने उनको हटा कर नजीबुल्ला (फोटो)  को शासन दिया . रूसी आर्थिक मदद से नजीबुल्ला ने शासन को पुनः पारम्परिक बना कर सब को जोड़ने का बहुत प्रयास किया . पर मुजाहिद उनको अमरीका व पाकिस्तान की शह पर रूस का प्रतिनिधि मानते रहे और आक्रामक होते गए .उन्होंने कर्मल की एकता के प्रयासों को निष्फल कर दिया .

रूस के टूटने के बाद नजीबुल्ला की रूसी आर्थिक मदद भी बंद हो गयी .  तब भी नजिब्बुल्ला तीन साल तक लड़ते रहे अंत मैं मुजाहिदीन जीत गए और नजीबुल्ला की ११९३ में बहुत दर्दनाक ह्त्या कर दी गयी ( फोटो ).

अफगानिस्तान पर अब रब्बानी के नेत्रित्व मैं मुजाहिदीन राज करने लगे .

 

 

प्रश्न ५ — उपाध्याय जी रूस के निकलने के बाद तो मुजाहीदों  का राज आ गया वह तो अमरीका के समर्थन से आये थे फिर क्यों स्थिति दुबारा बिगड़ गयी ?

आशा के विपरीत , रूस के निकलने के बाद भी अफगानिस्तान की हालत और बिगड़ गयी . रूस व् अमरीका दोनों की आर्थिक मदद बंद हो गयी . जहाँ तराकी व् कम्युनिस्ट लेनिन मैं मदांध थे इसी तरह मुजाहिद अपनी जीत को पचा नहीं पाए व् गुट बाज़ी में आपस मैं लड़ने लगे . काबुल को विरोधी गुटों की लड़ाई ने ध्वस्त किया जिसमें हेक्मत्यार प्रमुख था .बाद में हर सैनिकों का मालिक एक सामंती शासक जैसा हो गया जिसकी अलग जागीर थी . सब ने रोड बलोकस  खड़े कर दिए और टैक्स वसूलना शुरू कर दिया . अफीम ,लूट मार व् अपहरण मुख्य आय के स्रोत बन गए . अफगान जनता इन मुजाहिदीनों के अत्याचारों से बहुत त्रस्त हो गयी .

मुजाहिदीनों से मुक्ति के लिए १९९३ मैं तालिबान का उदय हुआ . यह  पाकिस्तानी मदरसों की पैदाईश थे और पाकिस्तान के पूर्ण समर्थन से आये थे. यह कट्टर इस्लामिक आदर्शवादी लड़ाके थे जिन्हें कुरान के अलावा कुछ नहीं आता था .१९९6 मैं उन्होंने काबुल को जीत लिया और अब तालिबान के मुल्ला ओमर ( फोटो ) काबुल के नए शासक बन गए .

 तालिबान अशिक्षित झुण्ड था और उसका एकमात्र  अजेंडा अफगानिस्तान में  कट्टर इस्लाम का शरिया कानून लादने का था  . उनका शासन प्रणाली अत्यंत क्रूर थी और औरतों की ज़िंदगी तो हराम हो गयी . उनके बाहर निकलने व् बिना बुर्के के निकलने पर पाबंदी लगा दी . उनकी पढ़ाई रुक गयी . इसी तरह धार्मिक अदालतें चोरी इत्यादी पर हाथ काटने जैसे शरिया के दंड देने लगीं ( फोटो ) . पर एक बहुत मुर्खता का काम बामियान मैं पंद्रह सौ साल पुरानी  बुद्ध की मूर्तियाँ तोड़ने की था जिन्हें अब्दाली ने भी नहीं तोड़ा था.(फोटो) मुजाहिदीन काल के राष्ट्रपति रब्बानी ( फोटो) व् मंत्री अहमद शाह मसूद की भी ह्त्या कर दी .अर्थ व्यवस्था की उनको कोई समझ नहीं थी पर सिर्फ एक अच्छा काम अफीम की खेती रोकना था ( पॉपी ग्राफ) . दूसरा गरीबों पर अत्याचार कम हुए व् तुरन्त न्याय मिलने लगा .परन्तु अफगानिस्तान विश्व के सब आतंकियों की पनाह गाह  बन गया . इन्ही आतंकियों मैं एक ओसामा बिन लादेन भी था .इन सब बातों से विश्व का जनमत उनके खिलाफ हो गया .

पर हद तब हुयी जब मुल्ला ओमर ने नौ सितम्बर २००१ ( फोटो ) के अमरीकी  विध्वंस के दोषी ओसामा बिन लादेन को अमरीका को सौंपने से मना कर दिया क्योंकि वह एक शरणागत था . जिसके बाद अमरीका व् नाटो की सेनायें अफगानिस्तान में आ गयीं . उनके भयंकर हमले से मुल्ला ओमर को  देश छोड़ कर भागना पडा . अफगानिस्तान पर अब अमरीकी कब्ज़ा हो गया .

 

 

प्रश्न ६ —  अब यह बताएं कि डेढ़ लाख नाटो सैनिक,  अपरिमित आर्थिक सहायता और विकास के बावजूद तालिबान क्यों नहीं समाप्त हुआ और राष्ट्रीय सरकारें क्यों विफल रहीं.

 यह बहुत आवश्यक पर गूढ़ प्रश्न है .इसी बात को बहुत गंभीरता से समझने की आवश्यकता है . तालिबानी शासन क्रूर अवश्य था पर शासक सामान्य इमानदार लोग थे . वह इस्लामी देश में शरिया कानून लाद रहे थे और गाँव का सामान्य अफगान इसका विरोधी नहीं था . स्त्रियाँ तो गाँव मैं सदियों से बुर्का पहनती थीं और घर मैं बंद रहने की अभ्यस्त थीं . इसी तरह अन्य धर्मों की मूर्तियाँ तो इस्लाम के सभी राजा तोड़ते थे . सऊदी अरेबिया मैं हाथ काटना , कोड़े मरना इत्यादी जायज़ था . इसलिए गाव की गरीब जनता को तालिबान राज्य मैं कोई विशेष विरोधाभास नहीं लगता था . उन्का विरोध तो शहरों मैं था जहाँ पश्चिमी संस्कार का बोलबाला था . पर तालिबान काल मैं अफगानिस्तान अन्तराष्ट्रीय इस्लामिक आतंक का पर्याय बन गया .

 आर्थिक प्रगति का (ग्राफ) देखें .मुल्ला ओमर के बाद बीस साल तक अमरीकी शासन था जिसमें चौदह वर्ष हामिद करज़ई व् छः वर्ष घनी राष्ट्रपति रहे . अमरीका व् पश्चिमी देशों ने बेहद आर्थिक सहयता दी ( ग्राफ )और अफगानिस्तान की अभूत पूर्व आर्थिक प्रगति हुयी. पर गाँव के लोगों के जीवन पर इस समृद्धि का इत्ना अधिक प्रभाव नहीं पहुंचा जिसका एक कारण जनसंख्या में बेहद वृद्धि भी था ( ग्राफ ) . तालिबान अमरीकी कब्ज़े के विरुद्ध थे और इस लिए वहां से तालिबान को स्वतंत्रता की लड़ाई के लिए सैनिक मिलते रहे . मैं आर्थिक प्रगति के कुछ ग्राफ आपको दिखाता हूँ . पर इस प्रगति के बदले अमरीकी गुलामी अफगान जनता को मंज़ूर नहीं थी .

 (ग्राफ दिखाएँ )

अफगानिस्तान मैं सामान्य आयु  1950 मैं 28 वर्ष थी और १९८० मैं ४५ वर्ष वह अब ६५ वर्ष है . इससे जन संख्या मैं भयंकर वृद्धी हुयी है जो आप ग्राफ मैं देख सकते  हैं. १९८० मैं १.३ करोड़ थे और अब लगभग ३.८ करोड़ हो गयी है . खेतों मैं उपज बड़ी नहीं . अफीम की खेती बहुत बढ़ गयी ( ग्राफ ).इससे गाँवों मैं गरीबी बहुत बढ़ गयी है . ग्राफ से पता चलेगा अमरीकी शासन काल मैं १०० बिलयन डॉलर की विदेशी  मदद अफगानिस्तान को मिली थी . बजट का चालीस प्रतिशात्तो विदेशी मदद थी .जिसे आर्थिक प्रगति की दर बहुत बढ़ गयी . रूसी शासन काल व् तालिबान के काल से कहीं अधिक विकास अमरीकी काल मैं हुआ ( ग्राफ ) . शिक्षा मैं भी बहुत प्रगति हुयी विशेषतः शहरी महिलाओं की जीवन शैली ली मैं बहुत प्रगति हुयी . मोबाइल व् इन्टरनेट घर घर पहुँच गए. इस लिए अमरीकियों व् पश्चिम राष्ट्रों के लिए अफगान विरोध को समझना मुश्किल हो रहा है . वह यह नहीं समझ पाए की सारा पैसा तो उनको अपनी कंपनियों के फायदे के रूप मैं वापिस मिल जाता था . बचा खुचा अफ़ग़ान नेताओं के भ्रष्टाचार मैं चला जाता था . इसके विपरीत भारत ने डेम , सड़कें , अस्पताल, बिजली घर , बंदरगाह इत्यादी बनाये जो लम्बे समय तक अफ़ग़ान लोगों के लिए उपयोगी रहेंगे इसलिए भारतियों का अफगानिस्तान में बहुत आदर है .

 अंत मैं थक कर अमरीकियों ने  अफगानिस्तान को अंधा कुआं मान कर तुरंत छोड़ने का फैसला ले लिया .  राष्ट्रपती ट्रम्प और उनके बाद बिडेन को इस बेकार के क्षेत्र के लिए अमरीकी सेना को अन्नंत काल के युद्ध मैं झोंकना अविवेक पूर्ण लगा और अम्ररिकी की वापिस तालिबान को सत्ता सौंप चले गए .

 

प्रश्न ७ –  अफ़ग़ानिस्तान के विनाश मैं पाकिस्तान का कितना योगदान रहा ?

यह बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न है . पाकिस्तान ही वास्तव मैं अफगानिस्तान की बर्बादी के लिए जिम्मेवार है . उसने अफ़ग़ानिस्तान में एक बर्बादी का खूनी खेल खेल कर अपनी डयुरंड  लाइन की सीमा को बचा लिया है .  आज जो पाकिस्तान ने दूरंद लाइन पर फेंस  बना ली है वह दाऊद खान के ज़माने मैं नहीं बना सकता था .अब हमेशा के लिए बर्बाद हुआ अफ़ग़ानिस्तान कभी पाकिस्तान के लिए खतरा नहीं बनेगा .उन्होंने भुट्टो  काल में ही अफगानिस्तान को दाऊद खान के जमाने से गाँवों को धार्मिक कट्टरवाद के रास्ते पर डाल दिया .मुजाहिदीन को उन्होंने पाला व् ट्रेनिंग व् हथियार दिए .मुल्ला ओमर को पाकिस्तान के मौलवियों  ने जा कर शरणागत ओसामा को न सुपुर्द करने की विनाशकारी सलाह दी जिससे अमरीका ने अफ्घनिस्तान पर भीषण हमला कर दिया . अगर कोई जापानी होता तो ओसामा को अमरीकियों के हवाले कर देश बचा लेता पर धर्म के विरुद्ध आचरण करने के प्रायश्चित मैं स्वयं हारा किरी कर लेता .

पाकिस्तान ने पहले अमरीकी हमला करवाया और बाद में युद्ध में  पाकिस्तान ने पूरी तरह अमरीका का साथ दिया . अमरीकी शासन मैं उन्होंने फिर अमरीका के खिलाफ तालिबान को हथियार व् पैसे की सहायता जारी रखी और उसे व् अफगान सरकार को चैन से नहीं रहने दिया. हाल मैं पंजशीर घटी के युद्ध मैं पाकिस्तानी हवाई जहाज़ों ने बम गिराए और हक्कानी को अफगानिस्तान पर लाद कर वह नए रूसी शासक बन गए . पाकिस्तानी सेना कई बार तालिबान के साथ मिल कर युद्ध कर चुकी है . पाकिस्तान अफ़ग़ानिस्तान को अपना एक उपनिवेश बनाना चाहता है . परन्तु भारत की ईरान में चाह्भर बंदरगाह ने अफ़ग़ानिस्तान को सदा के लिए पाकिस्तान के चुंगुल से निकाल दिया . पाकिस्तान मैं अपनी कोई आर्थिक ताकत नहीं है पर वह पहले अमरीका व् अब चीन के बल पर कूदता रहता है .

अफ़ग़ानिस्तान को बर्बाद करने के चक्कर मैं खुद पाकिस्तान भी बर्बाद हो आया और अब उसे एक निकृष्ट देश व अंतर्राष्ट्रीय आतंक का गढ़ मना जाता है . उसके हज़ारों लोग व्यर्थ में मारे गए और उसकी संस्कृति , आर्थिक व्यवस्था व् प्रगति पूरी तरह बंद है . परन्तु अफगानिस्तान की बर्बादी व रूस तथा अमरीका की बेइजती के लिए  वास्तव मैं पूरी तरह पाकिस्तान ही जिम्मेवार है .

पर पाकिस्तान  भविष्य मैं अपने किये का दंड अवश्य पायेगा. अमरीकी व् अफगानिस्तानी जनता पाकिस्तान से नफरत करती है और कभी यह नफरत भी रंग लायेगी .

 

प्रश्न ८ –  अंत मैं यह बताएं की इन सब से भारतीयों को क्या शिक्षा लेनी चाहिए

उत्तर – भारत के लिए  पहली शिक्षा तो सिर्फ पुरानी  शिक्षा दोहराने की जरूरत है . विदेशी सिर्फ अपने सगे होते हैं .देश की आंतरिक मामलों मैं कभी भी विदेशियों को नहीं बुलाना चाहिए चाहे वह आज सैन्य अड्डे मांगने वाला अमरीका क्यों न हो . हमें चीन पाकिस्तान से अपने बलबूते पर निपटना होगा .  अम्भी और पुरुस के बीच सिकंदर का हमला ( फोटो ) , जय चंद के काल मैं मुहम्मद गौरी ( फोटो ) का हमला मीर ज़फर का अंग्रेजों के साथ मिलना , शाह वलीउल्लाह का अब्दाली और लोधी के काल मैं बाबर को आक्र्मण  के लिए बुलाना देश को कितना  महंगा पडा हम सब जानते हैं . इसी को अफगानिस्तान मैं दुबारा घटता हुआ देख कर हमारी राज नीतिक पार्टियों व् एन जी ओ को सीख लेनी चाहिए व् राजनितिक उद्देश्यों के लिए विदेश धन या अन्य सहयता नहीं लेनी चाहिए .विदेशी घुसपैठ  देश के लिए अत्यंत घातक है.

दूसरी शिक्षा  यह है नेताओं को अपने विरोधियों को भी सह कर सब को  साथ लेकर चलना चाहिए व् शासन पूर्णतः न्यायपूर्ण व् सब के लिए समान होना चाहिए . सरकार को सब धर्मों का आदर व् परम्पराओं व् संस्कृतिक मामलों मैं दखल नहीं देना चाहिए . शांत ज़हीर शाह की सफलता और बहादुर दाऊद खान की असफलता हम सबको समझनी चाहिए .

 हर धार्मिक उन्माद देश की प्रगति के लिए घातक होता है और उससे बचना चाहिए . अंत मैं शिक्षा देश के लिए आर्थिक प्रगति के समान ही  जरूरी है . बहादुर अधिनायक नेता युद्ध के समय उपयोगी अवश्य होते हैं परन्तु शांति मैं दयावान , सहनशील, समावेशी  व प्रजातांत्रिक शासक ही उपयोगी होते हैं .

इन सब से हम सब भली भांति परिचित हैं और हमारा संविधान बहुत दूरदर्शिता से बनाया गया है .परन्तु अफगानिस्तान  की दुर्गति से इस शिक्षा को दोहराना व् व्यापक रूप से फैलाना बहुत आवश्यक है .

 

 

उपसंहार

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