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क्या इंडिया गेट की प्रतिमा से गाँधी जी के साथ अन्याय हुआ है : क्लाईव , जिन्ना , गांधीजी  सुभाष व क्रोमवेल

क्या इंडिया गेट की प्रतिमा से गाँधी जी के साथ अन्याय हुआ है : क्लाईव , जिन्ना , गांधीजी  सुभाष व क्रोमवेल

Rajiv Upadhyay

इंडिया गेट पर नेताजी की प्रतिमा लगा कर देश ने अपने एक सच्चे सपूत को अमिट  श्रद्धांजली दे दी है . उनके साथ जो वर्षों से अन्याय हुआ यह उसका उचित प्रतिकार था .

परन्तु  देश की स्वाधीनता दिलाने में जो उस समय जो समस्याएं थीं उन समस्यायों व उनके निदान का गांधीजी के दृष्टिकोण से उचित गहराई से विश्लेषण नहीं हुआ है . इस गहन विश्लेषण के अभाव में गाँधी जी के योगदान के महत्त्व को सामान्य ज्ञान से समझ पाना संभव नहीं है. सत्ता की इस लड़ाई में गाँधी जी के साथ घोर अन्याय हो गया है . नेताजी का योगदान निश्चय ही अमूल्य है परन्तु गांधी जी तो फिर गांधी जी थे .1919 में जब गांधी जी चंपारण का आन्दोलन छेड़ रहे थे तो नेताजी सुभाष लन्दन में आई सी एस की परीक्षा की तैयारी कर रहे थे . उनका भारतीय राजनीती में पदार्पण गांधी जी के शिष्य के रूप मैं ही हुआ था और वह कांग्रेस के गरम दल के प्रमुख सदस्य थे. १९३८ में गांधी जी का साथ छोड़ उन्होंने बाद में देश आजाद हिन्द सेना के रूप में देश को एक वैकल्पिक रास्ता दिया . उस रास्ते की सफलता का मूल्यान्कन  निष्पक्ष हो कर करना चाहिए, नेहरु जी के प्रति पूर्वाग्रह से पीड़ित हो कर नहीं .

चाणक्य के समकक्ष, गांधी जी का मुकाबला किसी हद तक क्लाईव से था . जिन्ना , नेहरु व सुभाष तो दुसरे , तीसरे व् चौथे स्थान के किये लड़ सकते हें . परन्तु उनके मूल्यांकन का  वास्तविक मुकाबला तो माओ , लेनिन , लिंकन , हो ची मिंह या क्रोमवेल से था . गांधी जी की रणनीति की महानता को समझने के लिए पहले क्लाईव की फूट व् विभाजन की रणनीति की ऐतहासिक सफलता को समझना होगा . हिन्दू हज़ार साल से कोई बड़ी सैनिक विजय नहीं पा सका था .इसके  निदान या काट के उस समय के उपलब्ध तरीकों को जानना होगा . इसके बाद गांधी जी की आंतरिक शक्ति , अटल इरादों ,व चारित्रिक दृढ़ता को समझना होगा . इस सम्पूर्ण विश्लेषण के बाद ही हम गांधी जी की महानता को माप पायेंगे .

1919 में जब गांधीजी ने पहला आन्दोलन छेडा तब एक तरफ इंग्लैंड, जर्मनी व् इस्लामिक ओटोमन एम्पायर को हरा कर प्रथम विश्व युद्ध जीत चुका था और उसकी शक्ति चरम पर थी .उसे सैन्य शक्ति से जीत पाना असंभव था . दूसरी ओर क्लाईव  के समय की तरह ही भारत विभाजित था . मुस्लिम लीग की स्थापना १९०६ में हो चुकी थी और वह देश में मुस्लिम साम्प्रदायिकता के बीज खुल कर बो रही थी. सर सैय्यद अहमद खान के मुस्लिम लोगों को अंग्रेजों के प्रति वफादार होने की वकालत के बाद से,  मुस्लिम नेता ही अंग्रेजों के चहेते बन गए थे . रजवाड़े बंटे हुए थे , अंग्रेजों से भयभीत थे और लड़ नहीं सकते थे . कांग्रेस शहरी वकीलों की पार्टी थी जो मात्र बहस व् भाषण दे सकती थी . कोई विस्तृत जन आन्दोलन उसकी सोच के बाहर था . जिन्ना की मांग भी सिर्फ होम रूल तक सीमित थी . पूर्ण स्वराज्य तो अभी कांग्रेसी सोच से कूसों दूर था .

गांधीजी भी इंग्लैंड व् फ्रांस की क्रांतियों से समझ गए थे की देश की जनता को संगठित कर, जनता की व्यापक शक्ति से ही शक्तिशाली अंग्रेजों को परास्त कर, देश को स्वतंत्र किया जा सकता है . साथ ही क्लाईव की तरह किसी दुसरे अँगरेज़ को दुबारा फूट व् विभाजन करने से रोकना था . पर गांधीजी की सुनता कौन ? अंग्रेजों को शक्ति से आन्दोलन कुचलने से रोकने के लिए ,उन्हीं के कानूनों का उपयोग करना गांधीजी दक्षिण अफ्रीका मैं सीख चुके थे . अँगरेज़ भी पूर्ण शांति पूर्ण आन्दोलन को पुलिस बल से नहीं दबा सकते थे . इसलिए जनता की एकता, आत्मविश्वास व् शांति पूर्ण स्वतंत्रता आन्दोलन ही सफलता की एक मात्र कुंजी थे . यह दोनों काम देश व भारतीय जनता के लिए भी नए थे और इनमें प्रगति शनैः शनैः ही हो सकती थी .

चम्पारण आन्दोलन की सफलता ने गांधीजी को देश का सर्वोच्च नेता बना दिया . १९१९ के जलियावाला काण्ड ने जनता को अंग्रेजों के बहुत खिलाफ कर दिया . उससे समय १९१९ में शुरू हुए खिलाफत आन्दोलन का भारतीय राजनीती से कोई सरोकार था . परन्तु चंपारण की सफलता के बाद इस आन्दोलन ने देश के मुसलमानों को अंग्रेजों के खिलाफ गाँधी के पीछे ला दिया और मुस्लिम लीग हाशिये पर चली गयी . अब क्लाईव की भांति  देश की जनता को धर्म के आधार पर नहीं बाँट सकते थे . इसलिए धर्मनिरपेक्ष आन्दोलन के पक्षधर जिन्ना के विरोध के बावजूद गांधीजी का देवबन्दी ग्रुप व् अली बंधुओं का साथ देना गांधीजी की राजनितिक मजबूरी थी .

इस सफलता का उपयोग गाँधी जी ने १९२० में असहयोग आन्दोलन की शुरुआत में किया जिसमें सारा देश गाँधी जी के साथ था . सरकारी आँकड़ों के मुताबिक 1921 में 396 हड़तालें हुई जिनमें 6 लाख श्रमिक शामिल थे और इससे 70 लाख का नुकसान हुआ था। १९२२ के बाद मुस्लिम समुदाय कांग्रेस से अलग होने लगा . मुस्लिम लीग ने असहयोग आन्दोलन मैं कांग्रेस का साथ नहीं दिया.

चौरी चौरा की हिंसा के बाद गाँधी जी ने असहयोग आन्दोलन वापिस ले लिया . सुभाष बोस ने इस का विरोध किया क्योंकि उनके अमुसार देश की एकता अप्रत्याशित थी . परन्तु गाँधी जी का दृष्टिकोण अंग्रेजों को बल व सेना के प्रयोग करने से रोकना था . उनके इस  फैसले के दूरगामी परिणाम गाँधी जी के१९३०  के नमक सत्याग्रह में दीखे जब पूरे सत्याग्रह व् कानून की खुली अवमानना के बावजूद न कहीं हिंसा हुयी न अँगरेज़ सरकार बल प्रयोग कर पायी . शांतिपूर्ण सत्याग्रह का उपयोग गाँधी जी ने १९२९ के लाहोर अधिवेशन में पूर्ण स्वराज्य की मांग उठा कर किया . यदि नेताजी व मोती लाल नेहरु इत्यादि की बात मान ली होती तो नमक सत्याग्रह इतना शांतिपूर्ण नहीं हो सकता था . दुसरे सारा विश्व इस अनूठे प्रयोग का समर्थन करने लगा और दांडी मार्च के बाद अंग्रेज़ी सरकार पीछे हटने पर मजबूर हो गयी .

अब समय आ गया था पूर्ण स्वतंत्रता का . द्वितीय विश्व युद्ध में इंग्लैंड बुरी तरह फंस गया था . १९४० मैं गांधी  जी ने भारत छोडो आन्दोलन की घोषणा कर दी . मुस्लिम लीग ने इसमें साथ नहीं दिया . परन्तु मुस्लिम समुदाय अंग्रेजों के साथ नहीं था और गांधीजी सबके विश्वास पात्र बने रहे . गाँधी जी की तथा कथित मुस्लिम परस्ती ने अंग्रेजों को दुबारा क्लाईव नहीं बनने दिया .खिलाफत आन्दोलन का साथ गांधीजी को अब फायदा दे रहा था .पर इकबाल के बाद अब मुसलामानों के लिए अलग देश की मांग उठने लगी थी .

नेताजी सुभाष अहिंसा के इतने बड़े समर्थक नहीं थी . अहिंसा गाँधी जी के आंदोलन का आधार थी . चौरा चौरी काण्ड पर आन्दोलन समाप्त करने वाले गाँधी जी का विरोध करने की कीमत सुभाष ने अंततः कांग्रेस पार्टी से निष्कासन से चुकाई . वह हिटलर से जर्मनी में गुप्त रूप से मिले और जापान की सहयता से उन्होंने आजाद हिन्द फौज की स्थापना की . ‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा’  के नारे ने इन बदली परिस्थितियों मैं उनके अनेक अनुयायी बना दिये . उन्हें कुछ प्रारंभिक सफलताएं भी मिलीं और जापानियों ने अंडमान निकोबार पर कब्ज़ा कर लिया .पर अंग्रेजों को हराना असम्भव था और १९४४ में आजाद हिन्द सेना ने आत्मसमर्पण कर दिया . गाँधी जी का हिंसा समर्थक शहीद भगत्त सिंह या आजाद हिन्द सेना को समर्थन न देना भी उनकी खिलाफत जैसी सैद्धांतिक  मजबूरी ही थी . इस का लाभ भारत को मिल रहा था हालाँकि अँगरेज़ नेवी की बगावत के बाद डर भी गए थे . परन्तु नेताजी की नीतियों से भारत आज़ाद नहीं हो सकता था .

जब गांधीजी को भान भी हो गया कि देश का विभाजन नहीं रुक सकता तब भी उनको आशा थी कि कुछ वर्ष बाद भारत पाकिस्तान अमरीका कनाडा की तरह रह सकते हें . इसलिए उन्होंने मित्रता की आशा  को नहीं टूटने दिया और पाकिस्तान को पैसा वापिस करने , नोखाली में अनशन करने जैसी बातें कीं . १९१९ से १९४८  तक गांधीजी की नीतियों से यह फायदा यह हुआ की इस उपमहाद्वीप का कुछ मुसलमान Direct Action Day का कातिल तो बना पर मीर जाफर नहीं बना और अँगरेज़ दूसरा क्लाइव नहीं पैदा कर पाए . शायद अकबर की तरह गांधीजी भी हिन्दू मुस्लिम वैमनस्य की खाई को नहीं पाट सके  न ही उनके बाद कोई पाट सकता है .

मानवता को गांधी पर सदा गर्व रहेगा और संसार में हिन्दू की इज्ज़त गांधी जी के कारण बहुत बढ़ गयी है .इसके विपरीत इकबाल और जिन्ना के पकिस्तान और पाकिस्तानियों का हाल सबको विदित है. विश्व में कौन जिन्ना को जानता है ?

मैं आज भी पूर्ण विश्वास से कह सकता हूँ कि नेताजी , भगत सिंह की नीतियों के व्यापक प्रयोग से भारत को कभी भी स्वतंत्रता नहीं मिल सकती थी .

मेरे विचार में इंडिया गेट पर गांधीजी की प्रतिमा न लगा कर देश ने गांधीजी के साथ बहुत अन्याय किया है !

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