Hindu Revivalism or Making It Future Ready : भारतीय नव वर्ष क्यों मनाये और मनाये तो कैसे मनाये ?
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा आयी और चली गयी . पिछले कुछ वर्षों से भारतीय नव वर्ष को मनाने का प्रयास चल रहा है जो इस साल और मुखर हो गया और इस लिए और अधिक जगह इस दिन नव वर्ष के उपलक्ष्य मैं कार्यक्रम हुए . चाहे संविधान ने शक संवत को मान्यता दी हो पर हम विक्रम संवत को ही मानते हैं क्योंकि हमारे तीज त्यौहार इत्यादि सब चन्द्र राशी के कैलेंडर पर आधारित हैं.
परन्तु हर जगह यह कार्यक्रम अलग अलग ढंग से मनाया गया . वास्तविकता यह है कि उत्तर भारत मैं चैत्र प्रतिपदा को नव वर्ष के त्यौहार या उत्सव के रूप मैं मनाने का चलन नहीं था . इसलिए दीवाली या होली की तरह यह जन प्रचलित त्यौहार नहीं है .दक्षिण में गुडी पर्व या उगाडी के रूप मैं पारंपरिक ढंग से मनाया जाता है . तमिल नाडू मैं पोंगल ( मकर संक्रांति ), पंजाब मैं बैसाखी , असम मैं बिहू १४ अप्रैल को मानते हैं . उ त्तर भारत मैं इस को उत्सव के रूप मैं मनाने की मांग एक बृहत् हिन्दू जागरण व् स्वाभिमान की उठती लहर है . पश्चिम के शराब शबाब के तरीके से भारत मैं भी नव वर्ष मनाने का प्रतिरोध भी है.
पर नयी परम्परा बनाना इतना आसान नहीं होता है. सामाजिक रीतियाँ बनने मैं सदियाँ लग जाती हैं . और नयी रीति या धर्म तो अकबर जैसा शक्तिशाली सम्राट भी नहीं बना पाया . परन्तु हिन्दू स्वाभिमान व् जागरण समय की मांग तो अवश्य है परन्तु इसके प्रारूप का निर्धारण करना बहुत दुरूह कार्य है जो सामान्य जन की पहुँच के बाहर है .इसको स्वामी दयानंद या गोस्वामी तुलसी दास सरीखे लोग ही सामाजिक प्रतिष्ठा दे सकते हें. इसके अलावा हमारे त्यौहार गावों व् फसलों के आधार पर हैं . नव वर्ष शहरी त्यौहार है . इसके नए मापदंड होंगे.
पश्चिम मैं बहुत कम त्यौहार होते हैं . क्रिसमस से शुरू हुयी मौज मस्ती का नव वर्ष एक पारंपरिक अंत है . ठण्ड मैं शराब रोज़ के उपयोग की वस्तु है.हमारे यहाँ पारंपरिक मध्यम वर्ग इस आज भी बुरी चीज़ मानता है. सर्दियों की आधी रात को नव वर्ष की बधाई देना भारतीयों के लिए बेतुका तो है पर अब समाज मैं पश्चिमी जन्म दिन की तरह स्थापित हो चुका है . इसको बदलना कठिन है क्योंकि हमारे कैलेंडर विश्व के अन्य देशों की तरह ईसाई देशों के कैलेंडर को ही मान्यता देते हैं . चीन मैं चीनी नव वर्ष एक त्यौहार है .पर भारत मैं तो त्योहारों की झड़ी लगी हुई है .हर महीने कोई त्यौहार होता है.
क्या इस झड़ी मैं एक और त्यौहार की आवश्यकता है ?
प्रश्न यह भी है कि हिन्दू स्वाभिमान या जागरण का प्रारूप पुरानी परम्पराओं को मात्र पुनर्जीवित करना होना चाहिए या हिन्दू समाज को भविष्य की नयी चुनौतियों से जीतने के लिए तैयार करना होना चाहिए ?
मेरा विचार है कि हमें उठते स्वाभिमान की अपनी जन भावना का उपयोग हिन्दू समाज को एक समृद्ध व् व विश्व विजयी समाज बनाने के लिए करना चाहिए . राजनीती व् स्वार्थ की सर्वो परिता की नई सामाजिक मान्यता को बदलने के लिए करना चाहिए . हमारी पारंपरिक पारिवारिक व्यवस्था , जिसने हमें हज़ारों साल की गुलामी मैं भी बचाए रखा , आज व्यर्थ की पश्चिमी अति विक्षिप्त उच्छ्रिन्खल नारीवाद से ध्वस्त होने की कगार पर खडी है. इसको बचाना अति आवश्यक . यदि इस उच्छ्खल नारीवाद के चलते संतान बूढ़े माँ बाप को छोड़ देगी तो अगली पीढी मैं माँ बाप संतान को बनाने मैं सर्वस्व क्यों निछावर करेंगे यह भारतीय समाज के पतन का इतना बड़ा कारण बनेगी की अंग्रेजों की गुलामी भी इसके सामने छोटी लगेगी. जो साड़ी हज़ार साल की गुलामी झेल गयी वह समृद्धि के तीस वर्ष नहीं झेल सकी . यही नहीं , हिन्दू मंदिरों व् शैक्षणिक संस्थानों के विरुद्ध संवैधानिक भेदभाव अभी भी है . कैराना से निष्कासन के बावजूद हिन्दू एक न हो सके . तुष्टिकरण तो अब भी बरकरार है .हम टेक्नोलॉजी मैं तो आज भी पीछे हैं . पूर्वोत्तर , पंजाब व् , दक्षिण मैं धर्म परिवर्तन बेरोकटोक जारी है. चालीस वर्षों में जातिवाद को राजनितिक संरक्षण मिल गया है जिसे कभी दुश्मन उपयोग करेगा.
फिर यह भी चिन्तन योग्य है की पृथ्वी राज चौहान तो पूर्ण धर्म पालन के बावजूद गौरी से हार गए थे . इसके बाद हिन्दू हज़ार साल तक जीत भी नहीं सके . इसलिए धर्म जीवन शैली के रूप मैं आवश्यक है परन्तु यह भारत की उन्नति या सुरक्षा नहीं सुनिश्चित कर सकता. इसलिए हमें गोरक्षा को देश की सबसे प्रमुख समस्या नहीं बनाया जा सकता .
इस लिए हिन्दू न व वर्ष के उत्सव को बहुत सोच समझ कर इसे अगली शताब्दी का अस्त्र बनाना होगा . इसके लिए हमारे बुद्धि जीवियों को गहन चिंतन करना होगा .
नव वर्ष हिन्दू संस्कृति के पुनरोत्थान के एक व्यवहारिक व दृढ निश्चय से कार्यान्वित करने के संकल्प दिवस के रूप मैं मनाना चाहिए .