रामायण कि एक कम प्रचलित पर प्रासंगिक शिक्षा : अनैतिक कामेच्छा पर लंका और समस्त राक्षस कुल की बलि चढ़ा कर भी शिक्षा न लेने वाली शूर्पनखा को रावण के अहंकार ने कैसे बढ़ावा दिया
रावण समेत सारे राक्षस कुल व लंका को अपनी अनैतिक कामेच्छा के लिए जला कर ध्वस्त करने वाली कुटिल शूर्पनखा के प्रसंग को राम कथाओं मैं ठीक शिक्षा के लिए बहुत कम उपयोग मैं लाया जाता है .
रावण की मृत्यु के बाद भी वह लंका मैं बिना शर्म के रहती रही. धृतराष्ट्र के पुत्र मोह ने कैसे कौरव व पांडव वंश का विनाश किया हम सब जानते हैं .परन्तु ‘ अंधे का पुत्र अंधा ‘ कहने वाली ने द्रौपदी को कभी अपनी गलती नहीं स्वीकारी . उसके अहंकार ने कभी समझौता होने भी नहीं दिया .
यह प्रासंगिक है कि हम शूर्पनखा प्रसंग से समझें कि अनैतिक कामेच्छा व अहंकार किस तरह मनुष्य की बुद्धि हर कर महा विनाश को निमंत्रण देता है .
वाल्मीकि रामायण के अनुसार शूर्पनखा एक बहुत कुरूप स्त्री थी . उसने स्वेच्छा से रावण के शत्रु दानव विद्युत्जिव्हा से विवाह कर लिया . रावण ने क्रोध मैं आकर उन दोनों को मारने का निर्णय लेकर विद्युत्जिव्हा को तो मार दिया पर मंदोदरी ने शूर्पनखा को बचा लिया . रावण ने खर दूषण के साथ उसका अरण्य वन मैं सुरक्षित रहने का प्रबंध कर दिया .
अपनी अतृप्त कामेच्छाओं की पूर्ती मैं उसने सीता जी वास्तविक बाधा मान उनको मारने की धमकी दी . इसके चलते लक्ष्मण ने उस के नाक कान काट दिए . पर कुटिल त्रिया चरित्र वाली शूर्पनखा ने अपनी असली गलती छुपा ली . उसने सिर्फ अपनी कटी नाक को दिखा कर सबको भड़काया .खर दूषण के मरने के बाद भी उसे सद्बुद्धि नहीं आयी और वह अतृप्त बदले की आग मैं अपने पति कि ह्त्या को भुला कर , महा शक्तिशाली रावण के पास पहुँच गयी.
रावण को भी उसने पूरा सच नहीं बताया . बल्कि यह कहा कि सीताजी जैसी अप्रतिम सुन्दरी को रावण के लिए ला रही थी इस लिए उसके नाक कान काट लिए. और राम के अरण्य मैं ऋषियों को सुरक्षा देने को अपराध घोषित कर दिया . रामचरित मानस तो इस पर चुप है पर रामायण सीरियल मैं इसका विस्तृत चित्रण है. विभीषण ने अनेक तर्कों से सिद्ध किया कि राम ने कोई अनैतिक काम नहीं किया क्योंकि अरण्य रावण के राज्य के बाहर था .खर दूषण का वहां सेना भेजना गलत था .परन्तु कुटिल शूर्पनखा ने अपने अपमान को रावण का अपमान सिद्ध कर उसको बहुत भड़का दिया . सेनापति अकम्पन के कहने पर उसने युद्ध के बजाय छल से सीता हरण का निश्चय लिया.
खेद है कि लंका के जलने व रावण समेत सब राक्षसों के मरने के बाद भी उसने क्षोभ मैं आत्महत्या न कर विभीषण की सुरक्षित लंका मैं शेष जीवन व्यतीत कर दिया . यही राक्षसी त्रिया चरित्र है.
परन्तु इसमें शूर्पनखा की त्रिया कुटिलता के अलावा खर दूषण व रावण के सत्ता के असुरी अहंकार का भी उतना ही दोष था . उसने शूर्पनखा का दोष जानने का प्रयास भी नहीं किया जो कि एक बुद्धिमान न्याय प्रिय राजा का कर्तव्य था . विभीषण की निति युक्त सलाह को कायरता कह कर उसके अहंकार ने लंका का भविष्य को एक काम पीड़ित कुटिला के लिए व्यर्थ दांव पर लगा दिया . मंदोदरी के लाख समझाने पर भी रावण को सद्बुद्धि नहीं आयी.
इसी को दिनकर ने अति सुन्दर ढंग से कहा ‘
जब नाश मनुज पर छाता है, पहले विवेक मर जाता है
इस काल मैं इंदिरा गाँधी कि इमरजेंसी , विद्वान मनमोहन का अपमान और आज भी इसके अनेक उदाहरण दीख जाते हें .अपनी पराजय के वास्तविक कारणों को मानने के बजाय व्यर्थ के कारणों मैं सांत्वना खोजी जाती है.
इसलिए आज हम सबको रामायण के इस छोटे से शूर्पनखा प्रकरण से भी ठीक शिक्षा लेनी चाहिए .