BRICS More Heat Than Light : बीज को फलदार वृक्ष होने का गुमान नहीं होना चाहिए !
ब्रिक्स के कजान के इस सोलवेंह राष्ट्राध्यक्षों के सम्मलेन मैं ३० से अधिक देशों के प्रतिनिधियों को बुला कर रूस के राष्ट्रपति पुतिन ने सिद्ध कर दिया कि उनकी नहीं बल्कि अमरीका व उसके सहयोगियों की विश्व मैं साख गिरी है . उनकी जनता बहुत खुश हो गयी हो गई होगी . विशेषतः पहले नाटो को रूस के बॉर्डर तक बढ़ा कर उसने गोर्बोचेव को दिया वायदा तोड़ दिया . फिर रूस के विदेशी डॉलर के मुद्रा भण्डार को जब्त कर उससे उक्रेन को मदद देना एक बहुत बड़ा अपराध है . इसलिए सब डरे हुए देश विदेशी व्यापार के लिए एक सुरक्षित विकल्प खोज रहे हें और पुतिन मैं उनको यह विकल्प मिल रहा है . अगली मीटिंग तक साठ देश ब्रिक्स से जुड़ने को तैयार हो जायेंगे . हमको पुतिन की अर्जुन की पक्षी की आँख वाली दृष्टी व साहस की प्रशंसा करनी होगी
तो क्या इसे ब्रिक्स की सफलता मान लिया जाय ?
कदापि नहीं !
ब्रिक्स सच मैं ,अब तक, सोलह वर्षों मैं कुछ विशेष नहीं कर पाया है . एक सौ बिलियन डॉलर डाल कर ब्रिक्स बैंक बना है . इसके अलावा वित्तीय संकट मैं सदस्यों को संकट मैं अपनी अर्थ व्यवस्था को सुधारने के लिए पंद्रह बिलियन डॉलर की सहयता देने पर सहमति बनी है जो अभी टेस्ट नहीं हुयी है . ब्रिक्स देशों अपनी अलग मुद्रा और पेमेंट सिस्टम पर सहमती तो है पर यह इतना कठिन है कि इसे सफल बनाने के लिए अनेक वर्षों का प्रयास व आपसी सद्भाव की आवश्यकता है . भारत चीन एक दुसरे पर विश्वास बिलकुल नहीं करते न ही सऊदी अरेबिया व ईरान एक दुसरे पर विश्वास करते हें . चीन की गुलामी से तो अमरीका ही ज्यादा अच्छा है . इस लिए चीनी सिस्टम या चीनी मुद्रा के बड़े उपयोग पर सहमती नहीं बनेगी . नया सिस्टम बनाने मैं कम से कम तीन साल लगेंगे . ब्रिक्स की कर्रेंसी शायद जापानी येन की तरह उतनी उपयोगी या सर्वमान्य होगी पर संकट मैं उपयोगी होगी .
इसलिए de dollarisation का लाल कपड़ा दिखा कर यदि अमरीकी सांड को अधिक भड़का दिया तो सारे ब्रिक्स के देश छोड़ कर भाग जायेंगे क्योंकि अमरीका से भिड़ना किसी के बस की बात नहीं है . भारत . ब्राज़ील , दक्षिण अफ्रीका सभी अमरीका व यूरोप पर अधिक आश्रित हें . इसलिए चुप चाप वैकल्पिक पेमेंट सिस्टम तैयार करना ही बुद्धिमत्ता होगीं .
आर्थिक आंकड़ों को देखें २०१५ से २०२३ तक स्विफ्ट मैं डॉलर का उपयोग ४२ प्रतिशत से बढ़ कर ४८ प्रतिशत हो गया है जबकी यूरो का उपयोग ३२ % से घट कर २३ % रह गया है . विश्व का ५९ % विदेशी मुद्रा भण्डार डॉलर मैं है . चीनी कर्रेंसी का व्यापार मैं उपयोग मात्र ३.४ % और विदेशी मुद्रा भण्डार की भागीदारी मात्र २.५ प्रतिशत है . भारत तो दूर दूर तक कहीं नहीं दीखता है . वास्तव मैं विश्व का ९० % व्यापार डॉलर की स्थिरता पर निर्भर है .
इसलिए ब्रिक्रस मैं जोर जोर से बोल कर अमरीकी सांड को भड़काने का खेल मंहगा पडेगा और सब देशों को परदे के पीछे चुप चाप काम करना चाहिए.
भारत कि मंद मंद मुस्कान के साथ ‘ ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर’ ही उचित नीति है . नेहरु जी की गलतियों को दुबारा दोहराने की जरूरत नहीं है .