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रीढ़ की हड्डी – प्रासंगिक कविता : शुभ्रांशु

sycophant
रीढ़ की हड्डी

– शुभ्रांशु, दिसंबर, २०१२

दो नावों की करूँ सवारी

जिधर भी देखूँ पलड़ा भारी

उधर पडूँ मैं कूद

नहीं है मेरा कोई वजूद

मैं हूँ थाली का वो बैंगन

जैसे रेल का भटका वैगन

लुढ़क-लुढ़क कर गिरता हूँ

मारा-मारा फिरता हूँ

मैं हूँ थाल का ढुलमुल पारा

कैसे बनूँ बॉस का प्यारा

जीवन में यह प्रश्न बड़ा था

स्वाभिमान निश्प्राण पड़ा था

रीढ़ की हड्डी गला रखी थी

कमर लचीली बना रखी थी

कहाँ झुकू कब सिजदा कर लूँ

कैसे जूते झपट चूम लूँ

दिल में हसरत दबा रखी थी

सोचा था यह सब करने से

बड़ी सफलता मिल जाएगी

अपनी किस्मत खुल जाएगी

साहब के सिंहासन सम्मुख

छोटी कुर्सी डल जाएगी

टोपी पर एक पंख लगेगा

बेड़ा अपना पार लगेगा

लोग जलेंगे, खूब भुनेंगे

मैं चाटूंगा दूध-मलाई

बाकी सारे चना चुगेंगे

पर हाय जब नैन खुले तो

स्वाभिमान और लाभ तुले तो

पाया क्षणिक मान के हेतु

तोड़ दिया अपनों से सेतु

ना इधर का रहा ना उधर ही बचा

ना कोई पिता ना कोई चचा

ना खुदा ही मिला ना विसाले सनम

हाय ये क्यों पाया मानुस जनम

हमसे भले तो कुकुर ही रहे

मुँह उठाके चले, दुम हिलाते रहे

मालिक के दिए टुकड़ों पर पले

ना कोई दिखावा नहीं कोई दंभ

दुनिया से उठे तो इज्ज़त से चले

Filed in: Literature

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