जब राम से विदा लेकर अपने रथ सहित सुमन्त अयोध्या पहुँचे तो उन्होंने देखा सम्पूर्ण अयोध्या पर शोक और उदासी की घटाएँ छाई हुई थीं। ज्योंही अयोध्यावासियों ने रथ को आते हुये देखा, उन्होंने दौड़ कर रथ को चारों ओर से घेर लिया। फिर वे सुमन्त से पूछने लगे, “राम, लक्ष्मण, सीता कहाँ हैं? तुम उन्हें कहाँ छोड़ आये? अपने साथ वापस क्यों नहीं लाये?” सुमन्त ने उन्हें धैर्य बँधाने के लिये मुख खोला तो स्वयं उनका कण्ठ अवरुद्ध हो गया। मुँह से आवाज नहीं निकली। नेत्रों से अश्रुधारा प्रवाहित होने लगी। यथासम्भव अपने को नियंत्रित करते हुये उन्होंने टूटी-फूटी वाणी में कहा, “मैं उन्हें गंगा पार छोड़ आया हूँ। वहाँ से वे पैदल ही आगे चले गये और उन्होंने आदेशपूर्वक रथ को लौटा दिया।” सुमन्त के हृदयवेधी वचन सुनकर पुरवासी बिलख-बिलख कर विलाप करने लगे। देखते-देखते सारा बाजार और सभी दुकानें बन्द हो गईं। नगर निवासी शोकाकुल होकर छोटी-छोटी टोलियाँ बनाये राम के विषय में ही चर्चा करने लगे। कोई कहता, “अब राम के बिना अयोध्या सूनी हो गई। हमें भी यह नगर छोड़ कर अन्यत्र चले जाना चाहिये।” कोई कहता हमसे पिता की भाँति स्नेह करने वाले राम के चले जाने से हम लोग अनाथ हो गये हैं। यह राज्य उजाड़ हो गया है। अब हमें यहाँ रह कर क्या करना है? हमें भी किसी वन में चले जाना चाहिये।” कोई रानी कैकेयी को दुर्वचन कहता और कोई महाराज दशरथ की निन्दा करता।
उधर सुमन्त सुन कर भी न सुनते हुये खाली रथ को हाँकते ले जा रहे थे। इस प्रकार वे राजप्रासाद के उस श्वेत भवन में जा पहुँचे जहाँ महाराज दशरथ पुत्र शोक में व्याकुल होकर अर्द्धमूर्छित दशा में पड़े अपने अन्तिम समय की प्रतीक्षा कर रहे थे। हृदय के किसी कोने में आशा की धूमिल किरण कभी-कभी चमक उठती थी कि सम्भव है सुमन्त अनुनय-विनय कर के राम को लौटा लायें। यदि राम को नहीं तो सम्भव है सीता को ही वापस ले आयें। इस प्रकार महाराज दशरथ आशा-निराशा के झूले में झूल रहे थे कि सुमन्त ने आकर महाराज के चरण स्पर्श कर राम को वन में छोड़ आने की सूचना दी और चुचाप आँसू बहाने लगे। सुमन्त की सूचना को सुनकर महाराज व्यथित होकर मूर्छित हो गये। सारे महल में हाहाकार मच गया। कौशल्या ने राजा को झकझोरते हुये कहा, “हे स्वामिन्! आप चुप क्यों हैं? आप बात क्यों नहीं करते? कैकेयी से की हुई आपकी प्रतिज्ञा पूरी हुई। अब आप दुःखी क्यों होते हैं?” जब राजा की मूर्छा भंग हुई तो वे राम, सीता और लक्ष्मण का स्मरण कर विलाप करने लगे। फिर सुमन्त से पूछे, “जब तुम वहाँ से लौटे थे, तब क्या उन्होंने तुमसे कुछ कहा था? कुछ तो बताओ ताकि मेरे दुःखी हृदय को धैर्य बँधे।” सुमन्त ने हाथ जोड़कर उत्तर दिया, “कृपानाथ! राम ने आपको प्रणाम कर के कहा है कि हम सब सकुशल हैं। माता कौशल्या के लिये संदेश दिया है कि वे महाराज के प्रति पहले से अधिक देखभाल करें। कैकेयी के प्रति कोई कठोरता न दिखायें। उन्होंने यह भी कहा है कि भरत से मेरी ओर से कहना कि पिता की आज्ञा का पालन करें।” सुमन्त की बात सुन कर राजा ने गहरी साँस लेकर कहा, “सुमन्त! होनहार प्रबल है। इस आयु में मेरे आँखों के तार मुझसे अलग हो गये। इससे बढ़ कर मेरे लिये और क्या दुःख होगा?”
महाराज की बातें सुन कर महारानी कौशल्या कहने लगी, “राम, लक्ष्मण और विशेषतः सीता, जो सदा सुख से महलों में रही है, किस प्रकार वन के कष्टों को सहन कर पायेंगे। राजन्! आपने उन्हें वनवास देकर बड़ी निर्दयता दिखाई है। केवल कैकेयी और भरत के सुख के लिये आपने यह सब किया है।” कौशल्या के कठोर वचन सुनकर रजा का हृदय टुकड़े-टुकड़े हो गया। वे नेत्रों में नीर भरकर बोले, “कौशल्ये! मैं तुम्हारे हाथ जोड़ता हूँ। तुम तो मुझे इस प्रकार मत धिक्कारो।” दशरथ के मुख से निकले इन दीन वचनों को सुनकर कौशल्या का हृदय पानी-पानी हो गया और वे रोती हुई दोनों हाथ जोड़कर बोलीं, “हे नाथ! मैं दुःख में अपनी बुद्धि खो बैठी थी। मुझे क्षमा करें। राम को वन गये आज पाँच रात्रियाँ व्यतीत हो चुकी हैं परन्तु मुझे ये पाँच रात्रियाँ पाँच वर्षों जैसी प्रतीत हुई हैं। इसलिये मैं अपना विवेक खो बैठी हूँ जो ऐसा अनर्गल प्रलाप करने लगी।” इस पर राजा दशरथ बोले, “कौशल्ये! यह जो कुछ हुआ है सब मेरी करनी का फल है। मैं तुम्हें बताता हूँ।” महाराज पिछली कथा सुनाते हुये बोले, “कौशल्ये! मैं अपने विवाह से पूर्व की बात बताता हूँ। सन्ध्या का समय था पर न जाने क्यों मेरे मन में शिकार पर जाने का विचार उठा और मैं धनुष बाण ले रथ पर सवार हो शिकार के लिये चल दिया। जब सरयू नदी के तट के साथ-साथ रथ में चला जा रहा था तो मुझे ऐसा शब्द सुनाई पड़ा मानो वन्य हाथी गरज रहा हो। किन्तु वास्तव में वह शब्द जल में डूबते हुये घड़े का था। हाथी को मारने के लिये मैंने तीक्ष्ण शब्दभेदी बाण छोड़ा। जहाँ वह बाण गिरा वहीं जल में गिरते हुये मनुष्य के मुख से निला, “हाय मैं मरा! मुझ निरपराध को किसने मारा? हे पिता! मे माता! अब तुम जल के बिना प्यासे ही तड़प-तड़प कर मर जाओगे। हाय किस पापी ने एक ही बाण से मेरी और मेरे माता-पिता की हत्या कर डाली।”
उस वाणी को सुन कर मेरे हाथ काँपने लगे मेरे हाथों से धनुष गिर गया। मैं दौड़ता हुआ वहाँ पहुँचा और देखा कि एक वनवासी युवक रक्तरंजित पड़ा है तथा औंधा घड़ा जल में पड़ा है। मुझे देखते ही वह क्रुद्ध स्वर में बोला, “राजन! आपने किस अपराध में मुझे मारा है? मैं अपने प्यासे वृद्ध माता-पिता के लिये जल लेने आया था। क्या यही मेरा अपराध है? यदि आप में तनिक भी दया है तो मेरे प्यासे माता-पिता को जल पिला आओ जो इसी पगडंडी के सिरे पर मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं। इस बाण को मेरे कलेजे से निकालो जिसकी पीड़ा से मैं तड़प रहा हूँ। मैं वनवासी होते हुये भी ब्राह्मण नहीं हूँ। मेरे पिता वैश्य और मेरी माता शूद्र है। इसलिये मेरे मरने से तुम्हें ब्रह्महत्या का दोष नहीं लगेगा। जब मैंने उसके हृदय से बाण खींचा तभी उसने प्राण त्याग दिये। मैं अपने कृत्य पर पश्चाताप करता हुआ घड़े में जल भर कर उस पगडंडी पर चलता हुआ उसके माता पिता के पास पहुँचा। मैंने देखा, वे अत्यन्त दुर्बल और नेत्रहीन थे। उनकी दशा देख कर मेरा दुःख और भी बढ़ गया। मेरी आहट पाकर वे बोले – बेटा श्रवण! इतनी देर कहाँ लगाई? तुम्हारी माँ तो प्यास से व्याकुल हो रही है। पहले इसे पानी पिला दो।
“श्रवण के पिता के यह वचन सुन कर मैंने डरते-डरते कहा, “महामुने! मैं अयोध्या का राजा दशरथ हूं। मैंने हाथी के धोखे में अंधकार के कारण तुम्हारे निरपराध पुत्र की हत्या कर दी है। अज्ञान के कारण किये हुये इस पाप से मैं बहुत दुःखी हूँ। अब उसके दण्ड पाने के लिये तुम्हारे पास आया हूँ। हे सुभगे! पुत्र की मृत्यु का समाचार सुन कर दोनों विलाप करते हुये कहने लगे – यदि तुमने स्वयं आकर अपना अपराध स्वीकार न किया होता तो मैं अभी शाप देकर तुम्हें भस्म कर देता और तुम्हारे सिर के सात टुकड़े कर देता। अब तुम हमें हमारे श्रवण के पास ले चलो। मैं उन्हें लेकर जब श्रवण के पास पहुँचा तो वे उसके मृत शरीर पर हाथ फेर-फेर कर हृदय-विदारक विलाप करने लगे। फिर अपने पुत्र को जलांजलि देकर मुझसे बोले – हे राजन्! जिस प्रकार हम पुत्र वियोग में मर रहे हैं, उसी प्रकार तुम भी पुत्र वियोग में घोर कष्ट उठा कर मरोगे। इस प्रकार शाप देकर उन्होंने अपने पुत्र की चिता बनाई और फिर स्वयं भी वे दोनों अपने पुत्र के साथ ही चिता में बैठ जल कर भस्म हो गये।” राजा दशरथ ने श्रवण कुमार के वृत्तान्त को समाप्त कर के कहा, “हे देवि! उस पाप कर्म का फल मैं आज भुगत रहा हूँ अब मेरा अन्तिम समय आ गया है अब मुझे इन नेत्रों से कुछ दिखाई नहीं दे रहा। अब मैं राम को नहीं देख सकूँगा। अब मेरी सब इन्द्रियाँ मुझसे विदा हो रही हैं। मेरी चेतना घट रही है। हा राम! हा लक्ष्मण! हा पुत्र! हा सीता! हाय कुलघातिनी कैयेयी!” कहते कहते राजा की वाणी रुक गई, साँस उखड़ गया और उनके प्राण पखेरू शरीररूपी पिंजरे से सदा के लिये उड़ गये।
राजा दशरथ के प्राण निकलते ही रानी कौशल्या पछाड़ खाकर भूमि पर गिर पड़ी। सुमित्रा आदि अन्य स्त्रियाँ भी सिर पीट-पीट कर और केश खींच-खींच विलाप करने लगीं। सम्पूर्ण अन्तःपुर करुणाजनक हाहाकार से गूँज उठा। जहाँ कभी सुख की चहल-पहल होती थी वही राजप्रासाद दुःख का आगार बन गया। जब कौशल्या की चेतना लौटी तो उसने अपने पति का सर अपनी जंघा पर रख लिया और विलाप करते हुये बोली, “हा दुष्ट कैकेयी! आज तेरी अभिलाषा पूरी हुई। अब तो सुखी होकर राज सुख भोग। पुत्र तो पहले ही छिन गया था, आज पति भी छिन गया। अब मैं किसके लिये जीवित रहूँ। आज कैकेय की राजकुमारी ने कौशल का नाश कर दिया है। मेरे पुत्र और पुत्रवधू अनाथों की भाँति वनों में भटक रहे हैं। अयोध्यापति तो गये ही, मिथिलापति भी सीता के दुःख से दुःखी होकर अधिक दिन नहीं जियेंगे। कैकेयी! तूने दो कुलों का नाश कर दिया। इस प्रकार विलाप करती हुई कौशल्या राजा के शरीर से लिपटकर फिर मूर्छित हो गई। प्रातःकाल मन्त्रियों ने रोते हुये राजा के शरीर को तेल के कुण्ड में रख दिया राम वियोग से पीड़ित अयोध्यावासी महाराज की मृत्यु का समाचार पाकर बहुत दुःखी हुये। राजा की मृत्यु के समाचार से व्यथित होकर समस्त मंत्री, दरबारी, मार्कण्डेय, मौदगल, वामदेव, कश्यप तथा जाबालि वशिष्ठ के आश्रम में एकत्रित होकर बोले, “हे महर्षि! किसी रघुवंशी को सिंहासन पर बैठाइये क्योंकि सिंहासन राजा के बिना नहीं रह सकता। शीघ्र ही अयोध्या के सिंहासन को सुरक्षित रखने का प्रबन्ध कीजिये ताकि कोई शत्रु राजा इस पर आक्रमण करने का विचार न कर सके।” वशिष्ठ जी ने कहा, “आप ठीक कहते हैं। मेरे विचार से हमें शीघ्र ही भरत को उनके नाना के यहाँ से बुलाना चाहिये क्योंकि उन्हें स्वर्गीय महाराज की ओर से राज्य का उत्तराधिकारी घोषित किया जा चुका है। मैं भरत को बुलाने के लिये अभी ही किसी कुशल दूत को भेजता हूँ।”
फिर राजगुरु ने सिद्धार्थ, विजय, जयंत तथा अशोकनन्दन नामक चतुर दूतों को आज्ञा दी कि शीघ्र जाकर मेरी ओर से भरत और शत्रुघ्न से कहना कि तुम्हें अत्यन्त आवश्यक कार्य से अभी अयोध्या बुलाया है। यह मत कहना कि राम, लक्ष्मण और सीता को वन भेज दिया गया है या राजा कि मृत्यु हो गई है। ऐसी कोई बात उनसे मत कहना जिससे उन्हें किसी अनिष्ट की आशंका हो या उनके मन में किसी भी प्रकार के अमंगल का सन्देह उत्पन्न हो। वशिष्ठ जी की आज्ञा पाकर चारों दूत वायु का समान वेगवान घोड़ों पर सवार हो मालिनी नदी पार कर हस्तिनापुर होते हुये पांचाल देश पहुँचे और वहाँ से शरदण्डा नदी पार करके इक्षुमती नदी पार करते हुये वाह्लीक देश पहुँचे। वहाँ विपाशा नदी पार करके कैकेय नरेश के गिरिव्रज नामक नगर में पहुँच गये। जिस रात्रि ये दूत गिरिव्रज पहुँचे उसी रात्रि को भरत ने एक अशुभ स्वप्न देखा। आँख खुलने पर वे स्वप्न का स्मरण करके वे अत्यंत शोकाकुल हुये। एक मित्र के पूछने पर उन्होंने बताया, “सखे! रात्रि में मैंने एक भयानक स्वप्न देखा है। मैंने देखा कि पिताजी के सिर के बाल खुले हैं। वे पर्वत से गिरते गोबर से लथपथ अंजलि से बार-बार तेल पी रहे हैं और हँस रहे हैं। मैंने उन्हें तिल और चाँवल खाते तथा शरीर पर तेल मलते देखा है। इसके बाद मैंने देखा कि सारा समुद्र सूख गया है, चन्द्रमा टूटकर पृथ्वी पर गिर पड़ा है, पिता की सवारी के हाथी के दाँत टूट हये हैं, पर्वतमालाएँ परस्पर टकराकर चूर-चूर हो गई हैं और उससे निकलते हुये धुएँ से पृथ्वी और आकाश काले हो गये हैं। फिर राजा गधों के रथ में सवार होकर दक्षिण दिशा की ओर चले गये। इस स्वप्न से मुझे किसी अमंगल की सूचना मिलती प्रतीत होती है। इसी के परिणामस्वरूप मेरा मन अत्यन्त व्याकुल हो रहा है।” अभी भरत यह स्वप्न सुना ही रहे थे कि अयोध्या के चारों दूतों ने उन्हें प्रणाम करके संदेश दिया, “हे राजुमार! गरु वशिष्ठ ने अपनी कुशलता का समाचार देकर आपसे तत्काल अयोध्या चलने का आग्रह किया है। अत्यावश्यक कार्य होने के कारण ही हम आपको लिवाने के लिये आये हैं।”
भरत-शत्रुघ्न की वापसी: भरत के पूछने पर भी दूतों ने किसी भी अशुभ समाचार के विषय में कुछ नहीं बताया और शीघ्रता पूर्वक भरत तथा शत्रुघ्न को महाराज कैकेय से विदा करवा कर अपने साथ लेकर अयोध्या की ओर प्रस्थान किया। दुर्गम घाटियों आदि को पार करते हुये जब भरत अयोध्या की सीमा में प्रविष्ट हुए तो वहाँ का दृष्य देखकर बोले, “हे दूत! आज अयोध्या की ये वाटिकाएँ जन-शून्य क्यों दिखाई देती हैं? नगर में प्रजाजनों का तुमुलनाद भी सुनाई नहीं दे रहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि आज अयोध्या श्रीहीन हो गई है। मानो यहाँ कोई अवांछनीय घटना घटित हुई है।” इस प्रकार आशंकाओं से घिरे हुये भरत राजप्रासाद में पहुँचे और सबसे पहले पिता के दर्शन करने के लिये उनके भवन की ओर चले। उस भवन में पिता को न पाकर वे अपनी माता कैकेयी के राजमहल में पहुँचे। पुत्र को आया देख कैकेयी मुस्कुराती हुई स्वर्ण के आसन से उठी। भरत ने उनके चरण स्पर्श किया। कैकेयी ने उन्हें हृदय से लगाकर अपनी माता और पिता के कुशल समाचार पूछकर बोली, “वत्स! नाना के यहाँ से चले तुम्हें कितने दिन हो गये? मार्ग में कोई कष्ट तो नहीं हुआ?” इन प्रश्नों के उत्तर देकर भरत ने पूछा “माता, पिताजी कहाँ हैं? वे तो प्रायः इसी भवन में रहते थे। आज दिखाई क्यों नहीं दे रहे हैं?”
भरत के प्रश्न को सुनकर कैकेयी ने तटस्थ भाव से कहा, “बेटा! तुम्हारे तेजस्वी पिता स्वर्ग सिधार गये।” कैकेयी के मुख से ये शब्द सुनते ही भरत के हृदय को मर्मान्तक आधात लगा और वे बिलख-बिलख कर रोने लगे और बोले, “उन्हें अचानक क्या हो गया था? हाय! अन्त समय में मैं उनके दर्शन भी न कर सका। मुझसा अभागा और कौन होगा? धन्य हैं राम-लक्ष्मण जिन्होंने अन्तिम समय में पिताजी की सेवा की। भैया राम कहाँ हैं? पिताजी के अभाव में अब वे ही मेरे आश्रय और पूज्य हैं। माता, अन्तिम समय में क्या पिताजी ने मुझे याद किया था? मेरे लिये उन्होंने कोई सन्देश दिया है?” भरत को सान्त्वना देती हुई कैकेयी बोले, “वत्स! अन्तिम समय में तुम्हारे पितजी ने तुम्हारे लिये कोई सन्देश नहीं दिया। वे पाँच दिन और पाँच रात्रि तक हा राम! हा लक्ष्मण! हा सीता! कह-कह कर विलाप करते रहे और अन्त में रोते-रोते ही परलोक सिधार गये।” यह सुनकर भरत की पीड़ा और बढ़ गई और वे बोले, “पिताजी के अन्तिम समय में भैया राम कहाँ चले गये थे जो उनके वियोग में उन्हें प्राण त्यागने पड़े?”
भरत के प्रश्न को सुनकर कैकेयी ने मुस्कुराते हुये कहा, “तुम्हारा बड़ा भाई राम, लक्ष्मण और सीता के साथ वक्कल पहन कर वन को चला गया है। मैं तुम्हें पूरी बात बताती हूँ। जब मैंने मन्थरा दासी के मुख से राम के अभिषेक की बात सुनी तो मैंने महाराज से दो वर माँग लिए. पहले वर से तुम्हारे लिये अयोध्या का राज्य और दूसरे वर से राम के लिये चौदह वर्ष का वनवास माँगा। राम के साथ सीता और लक्ष्मण अपनी इच्छा से चले गये। उनके चले जाने पर राजा रोते-रोते मर गये। इस प्रकार यह राज्य अब तुम्हारा है। तुम शोक त्यागकर निष्कंटक हो राज्य करो। अब इस नगर में कोई ऐसा नहीं रह गया है जो तुम्हारे विरुद्ध विद्रोह कर सके। मैंने सब कुछ ठीक कर लिया है। तुम गुरु वशिष्ठ और मन्त्रियों को बुलाकर राज्य की बागडोर सँभालो।”
भाइयों के वनवास और पिता की मृत्यु का कारण जान कर भरत का तन दुःख और क्रोध से जल उठा। वे बोले, “हे पापिन माते! तुमने रघुकुल को कलंक लगाया है। तुम्हारी ही दुष्टता से भाइयों को वनवास हुआ और पिता की मृत्यु हुई। तुम माता नहीं, रघुकुल का नाश करने वाली नागिन हो। हे जड़बुद्धि! तुमने राम को क्यों भेजा? ऐसा प्रतीत होता है कि पिताजी की भाँति माता कौशल्या और माता सुमित्रा भी पति और पुत्र वियोग में अपने प्राण त्याग देंगीं। भैया राम तो तुम्हारा सम्मान मुझसे भी अधिक करते थे। माता कौशल्या तुम्हारे साथ सगी भगिनी सा व्यवहार करती थीं। फिर तुमने किसलिये इतना बड़ा अन्याय किया? हे कठोरहृदये! जिन भाइयों और भाभी ने कभी दुःख नहीं देखा उन्हें इतना कठोर दण्ड देकर तुम्हें क्या मिल गया? राम के बिना मैं पल भर भी नहीं रह सकता। क्या तुम इतना भी नहीं जानतीं कि सद्गुणों में मैं राम के चरणों की धूल के बराबर भी नहीं हूँ। तुमने मेरे मस्तक पर भारी कलंक लगा दिया। यदि मैंने तुम्हारे उदर से जन्म न लिया होता तो मैं इसी क्षण तुम्हारा परित्याग कर देता। यदि मैं तुम्हें नहीं त्याग सकता तो क्या हुआ, अपने प्राण तो त्याग सकता हूँ। इक्ष्वाकु कुल में सदा से ज्येष्ठ भ्राता सिंहासन पर बैठता आया है, इस बात को तुमने कैसे भुला दिया? मैं अभी वन जाकर राम को लौटाकर लाउँगा और उनका सिंहासन उन्हें सौंप दूँगा।” इस प्रकार कहकर वे रोते-रोते शत्रुघ्न सहित कौशल्या के भवन की ओर चले दिये।
भरत को आशीर्वाद देते हुये कौशल्या बोली, “बेटा! तुम्हें राज्य मिल गया यह तो अच्छा हुआ, परन्तु निर्दोष राम को वनवास देकर तुम्हारी माता को क्या मिला? अब तुम सिंहासन सँभालकर मुझे भी वन जाने की आज्ञा दो।” कौशल्या के मुख से ये शब्द सुनकर भरत ने रोते हुये कहा, “माता! आप जानती हैं जो कुछ भी हुआ वह मेरे अनुपस्थिति में हुआ है। फिर आप मुझे क्यों दोष देती हैं? मेरा हृदय तो भैया के वियोग में फटा जा रहा है। उनके बिना तो केवल अयोध्या का क्या मैं त्रैलोक्य का राज्य भी नहीं लूँगा। यदि राम के वनगमन में मेरी लेशमात्र भी सहमति हो तो मुझे रौरव नर्क मिले। इसी समय भूमि फट जाये और मैं उसमें समा जाऊँ। यदि इस दुष्ट कार्य में मेरी सहमति हो तो मुझे वह दण्ड मिले जो घृणित पाप करने वाले पापी को मिलती है।” यह कहकर रोते हुये भरत मूर्छित होकर कौशल्या के चरणों में गिर पड़े। जब वे कुछ चैतन्य हुये तो कौशल्या बोली, “बेटा! इस प्रकार शपथ लेकर तुम मुझे क्यों दुःखी करते हो? क्या मैं तुम्हें और तुम्हारे हृदय को नहीं पहचानती?” और वे भरत को नाना प्रकार से सान्त्वना देने लगीं। दूसरे दिन प्रातःकाल गुरु वशिष्ठ ने आकर शोकाकुल भरत को धैर्य बंधाया और महाराज दशरथ की अन्त्येष्टि करने के लिये प्रेरित किया। हृदय में साहस जुटाकर राजगुरु की आज्ञा का पालन करते हुये भरत ने अपने स्वर्गीय पिता का प्रेतकर्म प्रारम्भ किया। शव को तेल कुण्ड से नकालकर अर्थी पर लिटाया गया। अर्थी पर पिता का शव देखकर भरत फिर चीत्कार कर उठे, “हा पिताजी! आप मुझ अनाथ को किसके आश्रय पर छोड़े जा रहे हैं? क्या आप भी मुझे दोषी जानकर मुझसे नहीं बोल रहे? आप स्वर्ग जा रहे हैं, भैया राम वन को गये, अब इस अयोध्या का राज्य कौन सँभालेगा?”
भरत को इस प्रकार विलाप करते देख महर्षि वशिष्ठ बोले, “तात! अब शोक छोड़कर महाराज के प्रेतकर्म में तत्पर होओ।” तब भरत ने अर्थी को रत्नों से सुसज्जित कर ऋत्विज पुरोहितं और आचार्यों के साथ बैठ कर अग्निहोत्र किया। भरत, शत्रुघ्न और वरिष्ठ मन्त्रियों ने अर्थी को कंधा दिया और रोती-बिलखती प्रजा शवयात्रा में पीछे-पीछे चली। आगे निर्धनों के लिये सोना, चाँदी, रत्न आदि लुटाये जा रहे थे। सरयू तट पर चन्दन, गुग्गुल आदि से चिता बनाकर शव को उस पर लिटाया गया। सभी रानियाँ बिलख-बिलख कर रोने लगीं। भरत ने चिता में अग्नि लगाई और सत्यपरायण महात्मा दशरथ का शरीर पंचभूत में मिल गया। जब भरत तेरहवें दिन अपने पिता की प्रेत क्रिया से निवृत हुये तो मन्त्रियों ने उनसे निवेदन किया, “हे रघुकुल भूषण! रामचन्द्र जी तो चौदह वर्ष के लिये वन चले गये। इसलिये अब आप न्यायपूर्वक हमारे राजा हैं क्योंकि दिवंगत महाराज अपने जीते जी आपको राजा बना गये हैं। अतः आप राज्य का भार सँभालने की कृपा करें।” भरत ने उत्तर दिया, “पिता के स्थान पर ज्येष्ठ पुत्र राजा होता है। यही रघुकुल की रीति भी है। इसलिये इस सिंहासन पर धर्मात्मा राम का ही अधिकार है। मैं वन जाकर राम को लौटा लाउँगा और उनके स्थान पर चौदह वर्ष तक स्वयं वन में रहूँगा. अतएव आप तत्काल दलबल सहित वन को चलने की तैयारी करें ताकि सब मिलकर उन्हें वापस ले आयें।” भरत के वचन सुनकर सबमें एक नया उत्साह पैदा हो गया और उन्हें राम के लौटने की आशा होने लगी।
जब वन यात्रा की सब तैयारियाँ पूरी हो गईं तो भरत, शत्रुघ्न, तीनों माताएँ, मन्त्रीगण, दरबारी आदि चतुरंगिणी सेना के साथ वन की ओर चले। उत्साह से भरे प्रजाजन राम और भरत की जय-जयकार करते जाते थे। मार्ग में उन्होंने गंगा तट पर राजा गुह के नगर श्रंगवेरपुर के निकट अपना पड़ाव डाला। अयोध्या से आई विशाल सेना को देखकर गुह ने अपने सेनापतियों को बुलाकर कहा, “सेनापतियों! रामचन्द्र हमारे मित्र हैं। अपनी सेना को तुम सतर्क करके इधर उधर छिपा दो। पाँच सौ नावों में सौ-सौ अस्त्र शास्त्र सैनिक तैयार रहें। यदि भरत राम के पास निष्कपट भाव से जाना चाहे तो जाने दो, अन्यथा सबको मार्ग में ही समाप्त कर दो।” इस प्रकार सेनापतियों को सावधान कर स्वागत की सामग्री ले गुहराज भरत के पास आकर बोले, “हे राघव! इस प्रदेश को आप अपना ही समझें। आप बिना सूचना के पधारे हैं, इसलिये मैं आपका यथोचित सत्कार नहीं कर पा रहा हूँ। इसके लिये आप मुझे क्षमा करें। आज की रात यहीं विश्राम करें और हमारा रूखा सूखा भोजन स्वीकार करें।” भरत ने गुह के प्रेमभरे शब्द सुनकर कहा, “हे निषादराज! मैं भारद्वाज मुनि के आश्रम में जाना चाहता हूँ, जहाँ भैया राम गये हैं। यदि आप मुझे कुछ पथप्रदर्शक दे सकें तो आपकी बड़ी कृपा होगी।” भरत की बात सुनकर निषाद ने कहा, “प्रभो! आप चिन्ता न करें। मैं और मेरे सैनिक आपके साथ चलेंगे। परन्तु मैं यह जानना चाहता हूँ की आप इतनी बड़ी सेना लेकर रामचन्द्र के पास क्यों जा रहे हैं? निषाद की शंका का अनुमान कर भरत बोले, “निषादराज! राम मेरे बड़े भाई और पिता के तुल्य हैं। मैं उन्हें वन से लौटाकर उनका सिंहासन उन्हें सौंपना चाहता हूँ। इसके लिये मेरी सब माताएँ और मन्त्री आदि भी मेरे साथ जा रहे हैं। भरत के वचन सुनकर गुह को संतोष हुआ। भरत आदि ने रात्रि को वहीं विश्राम किया। प्रातःकाल जब वे गंगा पार करने के लिये प्रस्तुत हुये तो गुहराज की आज्ञा से गंगा के किनारे पर सैंकड़ों नौकाएँ लगा दी गईं जिनमें बैठकर सब गंगा पार उतर गये।
सब लोग महामुनि भारद्वाज के आश्रम में पहुँचे। महामुनि ने उनका यथोचित सत्कार करने के पश्चात् भरत से वन में आगमन का कारण पूछा। भरत ने हाथ जोड़कर कहा, “महामुने! मैं महात्मा राम का दास हूँ। माता कैकेयी ने जो कुछ किया है मैं उसके सर्वथा विरुद्ध हूँ। इसलिये मैं भैया राम के पास जाकर उनसे क्षमा याचना करूँगा और अयोध्या लौटने की प्रार्थना करूँगा ताकि वे लौटकर अपना राज्य सँभाले।” भरत की बात सुनकर मुनि बोले, “भरत! तुम वास्तव में महान हो। मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूँ कि तुम्हारा यश तीनों लोकों में फैले। आजकल राम सीता और लक्ष्मण के साथ चित्रकूट में निवास करते हैं। तुम कल प्रातः वहाँ चले जाना। आज की रात्रि यहीं विश्राम करो।” प्रातःकाल जब चित्रकूट जाने के लिये भरत मुनि भारद्वाज से अनुमति लेने पहुँचे तो उन्होंने भरत को समझाते हुये कहा, “भरत! तुम अपनी माता के साथ दोष दृष्टि न रखना, इसमें उनका कोई दोष नहीं है। कैकेयी द्वारा किये गये कार्य में परमात्मा की प्रेरणा है ताकि वन में दैत्य-दानवों का राम के हाथों विनाश हो सके।” भरत अपनी माताओं एवं समस्त साथियों के साथ महर्षि से विदा लेकर चले और मन्दाकिनी के तट पर पहुँचे। वहाँ ठहरकर भरत ने मन्त्रियों से कहा, “ऐसा प्रतीत होता है कि भैया की कुटिया यहाँ कहीं निकट ही है। इससे आगे मैं सेना के साथ नहीं जाना चाहता। इससे यहाँ बसे हुये आश्रमवासियों की शान्ति और तपस्या में बाधा पड़ेगी। इसलिये तुम गुप्तचरों को भेजकर राम की कुटिया का पता लगवाओ।” मन्त्रियों की आज्ञा पाकर चतुर गुप्तचर इस कार्य के लिये चल पड़े।