द्वादश ज्योतिर्लिंग श्रंखला ६: श्री भीमाशंकर धर्म संसार ब्लॉग से साभार
महाराष्ट्र के पुणे जिले से करीब ११० किलोमीटर दूर रायचूर जिले के सह्याद्रि की मनोरम पहाड़ियों में भीमा नदी के तट पर भगवान शिव का छठा ज्योतिर्लिंग श्री भीमाशंकर महादेव स्थापित है। ये मंदिर समुद्र तल से लगभग ३२५० फ़ीट ऊंचाई पर स्थित है। इसमें स्थापित शिवलिंग आम शिवलिंग से बहुत वृहद् या मोटा है और इसी कारण इसे मोटेश्वर महादेव के नाम से भी जाना जाता है। इस मंदिर का शिखर १८वीं सदी में नाना फरडावीस ने बनवाया था, जिसमे विशेष रूप से एक विशाल घंटा शामिल है। यही नहीं मराठा शासक छत्रपति शिवाजी ने इस मंदिर को कई तरह की सुविधाएँ दी। हालाँकि इसे ज्योतिर्लिंग मानने के विषय में भी कुछ मतभेद है। असम के गुवाहाटी में स्थित कामरूप में भी भीमाशंकर शिवलिंग स्थापित है और वहाँ के लोग इसे ही वास्तव ज्योतिर्लिंग मानते हैं। इसका एक कारण ये भी है कि यहीँ पर भीम ने कामरूप के राजा को हराया था। उनके अनुसार श्री शंकरदेव द्वारा किये गए वैष्णव प्रचार के कारण इस ज्योतिर्लिंग की महत्ता दब गयी। वहाँ स्थित ज्योतिर्लिंग के पुजारी वही के स्थानीय जनजाति के लोग होते हैं। इसके अतिरिक्त उत्तराखंड के नैनीताल के उज्जनक में स्थित शिव मंदिर को भी भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग माना जाता है। हालाँकि आधिकारिक रूप से महाराष्ट्र स्थित शिवलिंग को ही ज्योतिर्लिंग माना जाता है। इसके पीछे की कथा रामायण से सम्बंधित है।
श्रीराम के जन्म से पहले सह्य पर्वत पर कर्कट नाम का एक दैत्य अपनी पत्नी पुष्कषी एवं पुत्री कर्कटी के साथ रहता था। कर्कटी के युवा होने पर उसका विवाह विराध राक्षस से हुआ जो दण्डकारण्य में रहता था। वनवास के समय श्रीराम एवं लक्ष्मण ने विराध का वध कर दिया। तब कर्कटी का कोई और सहारा ना होने के कारण वो वापस सह्य पर्वत अपने माता-पिता के पास आ गयी। एक दिन कर्कट एवं पुष्कषी आहार हेतु बाहर निकले जहाँ उन्हें महर्षि अगस्त्य के शिष्य सुतीक्ष्ण मुनि दिखे। दोनों ने उन्हें ही मारने की कोशिश की किन्तु सुतीक्ष्ण मुनि ने उन्हें अपने तपोबल से जलाकर भस्म कर दिया। अपने माता-पिता की मृत्यु के बाद कर्कटी पूर्णतः एकाकी हो गयी। कुछ काल के बाद लंकापति रावण का छोटा भाई कुम्भकर्ण विहार के लिए सह्य पर्वत पर आया जहाँ उसने कर्कटी को देखा और उसपर मुग्ध हो गया। दोनों ने गन्धर्व विवाह कर लिया और फिर कुछ समय के बाद कुम्भकर्ण उसे वही छोड़ कर वापस लंका लौट गया। उसी समय श्रीराम ने लंका पर आक्रमण किया और युद्ध में उनके हाँथों कुम्भकर्ण का वध हो गया। कर्कटी को ये समाचार मिला और उसी दिन उसके गर्भ से एक बालक का जन्म हुआ जिसका नाम भीम रखा गया। बड़े होने पर भीम ने अपनी माता से पूछा कि वे यहाँ एकाकी जीवन क्यों बिता रहे हैं और उनके पिता कौन हैं? तब कर्कटी ने भीम को सत्य बताया कि उनके पिता रावण के छोटे भाई कुम्भकर्ण थे जो श्रीराम के हाँथों मारे गए। तब भीम क्रोध से आग-बबूला हो गया और उसने श्रीराम से प्रतिशोध लेने की ठानी। उसने ब्रह्मदेव की घोर तपस्या की जिससे परमपिता प्रसन्न हो गए। वरदान में उसने अतुलित बल माँगा जो उसे ब्रह्मदेव से प्राप्त हुआ जिससे उसे घोर अहंकार हो गया।
इसके बाद वो अयोध्या श्रीराम से प्रतिशोध लेने के लिए चल पड़ा किन्तु मार्ग में ही उसे पता चला कि श्रीराम अपना लीला संवरण कर चुके हैं जिससे उसे बहुत निराशा हुई। वहाँ उपस्थित ऋषिओं से उसे पता चला कि श्रीराम भगवान विष्णु का ही अवतार थे इससे भीम ने श्रीहरि से ही प्रतिशोध लेने की ठानी। उसने सबसे पहले स्वर्गलोक पर आक्रमण किया और इंद्र एवं अन्य देवताओं को स्वर्ग से च्युत कर दिया। उस विजय से उन्मत्त होकर उसने सीधे बैकुंठ पर आक्रमण कर दिया जहाँ उसका भगवान नारायण से घोर युद्ध हुआ। उसकी मृत्यु का समय अभी नहीं आया है, ये सोच कर भगवान विष्णु युद्ध से विरत होकर बैकुंठ से अंतर्धान हो गए। इसके बाद भीम ने कामरूप के राजा सुदक्षिण पर आक्रमण किया जो भगवान शिव के प्रिय भक्त थे। सुदक्षिण ने बड़ी वीरता से उसका सामना किया किन्तु वरदान के कारण वे भीम को परास्त ना कर सके। तब भीम ने सुदक्षिण एवं उसकी साध्वी पत्नी दक्षिणा को कारागार में डाल दिए। कारागार में ही सुदक्षिण अपनी पत्नी सहित एक पार्थिव शिवलिंग बना कर उसकी नियमित पूजा करने लगे। उधर विजय से उन्मत्त भीम ने ऐसा उत्पात मचाया कि सृष्टि त्राहि-त्राहि कर उठी। तब समस्त देवता ब्रह्मदेव को लेकर भगवान विष्णु की शरण में गए और उनसे भीम के अत्याचार से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना करने लगे। इसपर भगवान विष्णु ने कहा कि “हे ब्रह्मदेव! एक तो उस राक्षस को स्वयं आपका वरदान प्राप्त है और दूसरे उसकी मृत्यु भगवान रूद्र के हाँथों लिखी है। यही कारण है कि जब उसने बैकुंठ पर आक्रमण किया तो मैंने उसका वध नहीं किया। इसीलिए हमें महादेव के पास जाना चाहिए।” ऐसा कहकर भगवान नारायण ब्रह्मदेव और सभी देवताओं को लेकर कैलाश पहुँचे और उन्हें समस्या से अवगत कराया। सभी देवताओं की वेदना सुनकर भगवान शिव ने सबों को आश्वस्त किया और उन्हें बताया कि वे शीघ्र ही भीम का विनाश करेंगे।
उधर भीम ने राजा सुदक्षिण और उनकी पत्नी को शिलिंग की पूजा करते देखा। वो क्रोध पूर्वक वहाँ पहुँचा और उसने भगवान शिव को अपशब्द कहे। फिर उसने जैसे ही शिवलिंग को भंग करने के लिए अपना पैर उठाया तभी वहाँ महारुद्र प्रकट हुए जिनके तेज से भीम भय से कांपने लगा। भगवान शिव ने कहा “रे मुर्ख! क्या तुझे ज्ञात नहीं कि इस संसार में हरि एवं हर के भक्तों को प्रताड़ित करने का साहस कोई नहीं करता? तूने मेरे भक्त सुदक्षिण को प्रताड़ित कर अत्याचार की सभी सीमाओं को पार कर लिया है। अतः अब मृत्यु के लिए तैयार हो जा।” फिर भगवान शिव और उस राक्षस में युद्ध आरम्भ हुआ। महादेव ने बहुत काल बाद कोई युद्ध लड़ा था इसी कारण वे उस युद्ध का आनंद लेने लगे जिससे वो युद्ध थोड़ा लंबा खिच गया। तब देवर्षि नारद युद्ध स्थल पर पहुँचे और उन्होंने भगवान शिव की प्रार्थना करते कहा कि “हे देवाधिदेव! एक तिनके को काटने के लिए कुल्हाड़ी की क्या आवश्यकता है? अब खेल बहुत हुआ भगवन, अब इस असुर का शीघ्र वध कीजिये।” तब भगवान शिव ने मुस्कुराते हुए एक ही हुँकार में भीम को भस्म कर दिया। तब सभी देवताओं और राजा सुदक्षिण ने महादेव से उसी स्थान पर रहने की प्रार्थना की। तब भगवान शिव सुदक्षिण के बनाये उसी शिवलिंग में स्थापित हो गए जिसे श्री भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग से जाना गया। जो कोई भी इस ज्योतिर्लिंग के दर्शन करता है उसके समस्त पापों एवं शत्रुओं का नाश हो जाता है। ॐ नमः शिवाय।
द्वादश ज्योतिर्लिंग श्रंखला ७: श्री काशी विश्वनाथ
जो सृष्टि के आरम्भ से पूर्व भी था और सृष्टि के विनाश के बाद भी रहेगा वही काशी है। कहते हैं कि काशी का लोप कभी नहीं होता क्यूंकि ये नगरी स्वयं महादेव के त्रिशूल पर स्थित है। स्कन्द पुराण में शिव यमराज से कहते हैं – “हे धर्मराज! तुम प्राणियों के कर्मों के अनुसार उसकी मृत्यु का प्रावधान करो किन्तु ५ कोस में फैली इस काशी नगरी से दूर ही रहना क्यूंकि ये मुझे अत्यंत प्रिय है।” इस नगरी को स्वयं देवी गंगा का वरदान है कि जो कोई भी इस नगरी में आकर गंगास्नान कर काशी विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग के दर्शन करता है वो निश्चय ही मोक्ष को प्राप्त करता है। जो व्यक्ति केवल काशी में अपने प्राण भी त्यागता है तो वो सीधे स्वर्गलोक को जाता है। वाराणसी, जिसे आजकल बनारस भी कहते हैं और जिसे पहले काशी के नाम से जाना जाता था ये नगरी और वहाँ उपस्थित महादेव के १२ ज्योतिर्लिंगों में से एक काशी विश्वनाथ कितना पुराना है इसका कोई आधिकारिक विवरण नहीं है। हालाँकि काशी का पिछले ३५०० वर्षों का तो लिखित इतिहास उपलब्ध है इसी से आप इस नगरी की प्राचीनता का अंदाजा लगा सकते हैं। इसी नगर के बीच में विश्व प्रसिद्ध काशी विश्वनाथ का मंदिर है। कहा जाता है कि ये कोई स्वयंभू शिवलिंग नहीं है बल्कि साक्षात् भगवान शिव ही विश्वनाथ के रूप में यहाँ विराजमान हैं। इसकी महत्ता का अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं कि प्राचीन समय से आज तक के शायद ही कोई ऐसे महान संत हो जो इसके दर्शनों को नहीं आये हो। भारत सरकार ने बहुत पहले ही इसे राष्ट्रीय महत्त्व का स्थल घोषित किया है। इसके विषय में कई पौराणिक कथा प्रचलित है:
- जब सृष्टि में केवल शून्य था तो भगवान विष्णु का प्रादुर्भाव हुआ और उन्ही के नाभि कमल से पाँच मुख वाले ब्रह्मा जन्मे। तब उन दोनों में ये विवाद हो गया कि उनमे से श्रेष्ठ कौन है। तब उनके बीच एक अनंत अग्निलिंग प्रकट हुआ जिसका छोर ढूंढने के लिए विष्णु नीचे एवं ब्रह्मा ऊपर गए। १००० वर्षों तक निरंतर चलने के बाद भी दोनों को उस महान शिवलिंग का छोर नहीं मिला। तब वापस आकर ब्रह्मा ने असत्य कहा कि मैंने छोर ढूंढ लिया। इसपर अग्निलिंग रूप महादेव ने ब्रह्मदेव की भर्तस्ना की और विष्णु को श्रेष्ठ बताया। कहते हैं वो पहला ज्योतिर्लिंग ही काशी विश्वनाथ का ज्योतिर्लिंग हैं।
- तब भगवान शिव ने उन दोनों को तपस्या करने को कहा और स्वयं ५ कोस में फैली इस काशी नगरी का निर्माण किया। भगवान विष्णु के कठिन तप से उनके शरीर से जल बहने लगा जिससे वे नारायण कहलाये। उनके द्वारा उत्पन्न इस जल प्रलय से काशी नगरी डूबने लगी। तब भगवान शिव ने काशी को बचाने के लिए उसे अपने त्रिशूल पर धारण कर लिया।
- उसके बाद परमपिता ब्रह्मा ने इस ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति की एवं उसे १४ भुवनों में बॉंटा। तब जगत की उत्पत्ति देख कर महादेव ने काशी को अपने त्रिशूल से उतारकर पृथ्वी पर स्थापित कर दिया।
- ब्रह्माजी का एक दिन समाप्त होने पर प्रलय होता है और नारायण क्षीरसागर में निद्रामग्न हो जाते हैं और समस्त सृष्टि जलमग्न हो जाती है। उस समय भगवान शिव काशी को पुनः अपने त्रिशूल पर धारण कर लेते हैं जिससे इसका लोप नहीं होता।
- काशी विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग किसी के द्वारा स्थापित या बनवाया हुआ नहीं है बल्कि ये मान्यता है कि यहाँ साक्षात् भगवान शिव ज्योतिर्लिंग के रूप में स्थित हैं।
- एक कथा के अनुसार देवी सती की मृत्यु के पश्चात शिवजी ने वैराग्य धारण कर लिया और जगत से लुप्त हो गए। बहुत काल के बाद जब वे पृथ्वी पर आये तो काशी उन्हें सर्वाधिक प्रिय हुई और वे यहीँ बस गए। उनके पीछे-पीछे उनके गण वहाँ आकर उत्पात मचाने लगे। तब वहाँ के राजा दिवोदास ने भगवान विष्णु से इस आपत्ति से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना की जिसे सुनकर महादेव वापस कैलाश लौट गए। तब भगवान विष्णु ने दिवोदास को वनवास लेने की आज्ञा दी ताकि महादेव फिर वहाँ आ सकें।
- जब महादेव ने देवी पार्वती से विवाह किया तब देवी पार्वती ने कहा कि हमें कैलाश से कही और जाना चाहिए। तब महादेव देवी पार्वती के साथ काशी में विश्वनाथ के रूप में आकर विद्यमान हो गए। तो वास्तव में देखा जाये तो ये ज्योतिर्लिंग दो भागों में बँटा है – एक महादेव और दूसरा महादेवी।
- इसी स्थान पर भगवान विष्णु ने दैत्यों के संहार के लिए भगवान शिव की १००० वर्षों तक तपस्या की थी जिससे प्रसन्न होकर महादेव ने उन्हें अपने तीसरे नेत्र से उत्पन्न १००० आरों वाला महान सुदर्शन चक्र प्रदान किया था जिससे नारायण ने समस्त असुरों का नाश किया।
- कहते हैं कि पतित पाविनी गंगा काशी में कुछ समय के लिए रुक जाती है ताकि वे काशी विश्वनाथ के दर्शन कर सकें। वैसे तो गंगास्नान सदैव फलदायी होता है किन्तु काशी में गंगास्नान कर बाबा काशी विश्वनाथ के दर्शन करने पर सीधे मोक्ष की प्राप्ति होती है। और तो और जो भी काशी में मृत्यु को प्राप्त होता है वो भी सीधा स्वर्ग जाता है।
- मृत्यु के देवता यम का अधिकार पूरी पृथ्वी पर है किन्तु काशी पर उनका वश नहीं चलता। यहाँ केवल और केवल महारुद्र का अधिकार माना जाता है। इसी कारण यमदूत काशी में प्रवेश नहीं करते और यहाँ लोगों की मृत्यु भगवान रूद्र की इच्छा पर होती है। साथ ही साथ यहाँ मरने वालों पर नर्क का भी कोई अधिकार नहीं होता।
- महर्षि अगस्त्य, महर्षि वशिष्ठ एवं राजर्षि विश्वामित्र ने काशी विश्वनाथ में ही घोर तपस्या कर सिद्धि प्राप्त की थी। इनके अतिरिक्त भी अनेकानेक ऋषिओं ने यहीं तपस्या कर महर्षि पद प्राप्त किया। आधुनिक काल में इस मंदिर का दर्शन करने वालों में आदि शंकराचार्य, सन्त एकनाथ, रामकृष्ण परमहंस, स्वांमी विवेकानंद, स्वामी दयानंद सरस्वती, गोस्वारमी तुलसीदास जैसे बड़े महापुरुष रहे।
- श्रीकृष्ण ने काशी के ब्राह्मणों के विरुद्ध अभियान चलाया और ये निर्णय लिया कि वे काशी का सम्पूर्ण विनाश कर देंगे। इसके लिए उन्होंने अपने सुदर्शन अस्त्र का प्रयोग किया किन्तु भगवान विश्वनाथ के कारण वे काशी का विनाश नहीं कर सके। बाद में उन्होंने पांडवों सहित काशी विश्वनाथ का विधिवत पूजन किया।
- पौराणिक मान्यता है कि काशी में लगभग 511 शिवालय प्रतिष्ठित थे। इनमें से 12 स्वयंभू शिवलिंग, 46 देवताओं द्वारा, 47 ऋषियों द्वारा, 7 ग्रहों द्वारा, 40 गणों द्वारा तथा 294 अन्य श्रेष्ठ शिवभक्तों द्वारा स्थापित किए गए हैं।
- भारत के अन्य मंदिरों की तरह मुगलों ने इसे भी तोड़ने की पूरी कोशिश की किन्तु इसे विनष्ट नहीं कर पाए। मुग़ल सम्राट औरंगजेब ने तो प्राचीन मंदिर को तोड़ कर वहाँ एक मस्जिद भी बना दिया जो आज भी वहाँ स्थित है। किन्तु वो मूल शिवलिंग को कोई नुकसान नहीं पहुँचा सका और शवलिंग वही एक पास के कुँए से पुनः प्राप्त हुआ।
- फिर महान शिव भक्तिनी अहल्याबाई होल्कर ने सन १७७६ में नवीन मंदिर का कार्य आरम्भ किया जो १७८० में जाकर पूर्ण हुआ। इस निर्माण कार्य में उस समय ३ लाख रूपये की लगत आयी। इसकी वास्तुकला इतनी अद्भुत है कि वैज्ञानिक भी आश्चर्य में पड़ जाते हैं।
- इसके बाद सन १८५३ में पंजाब के महाराजा श्री रणजीतसिंह ने इस मंदिर के शिखर को स्वर्ण से मढ़ने के लिए १००० किलो स्वर्ण का दान दिया जिस कारण इसे स्वर्ण मंदिर भी कहते हैं। इसके अतिरिक्त नेपाल के राजा ने इस मंदिर के लिए एक घंटा दान में दिया जो आज भी आकर्षण का केंद्र है।
द्वादश ज्योतिर्लिंग श्रंखला ८: श्री त्रयंबकेश्वर महादेव
महाराष्ट्र के नाशिक शहर से करीब ३० किलोमीटर दूर भगवान शिव का अति पावन त्रयंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग स्थित है। इस ज्योतिर्लिंग को विशेष इस कारण माना जाता है क्यूंकि यही एक ऐसा ज्योतिर्लिंग है जहाँ भगवान शिव के साथ-साथ भगवान विष्णु एवं परमपिता ब्रह्मा भी विराजमान है। विशेषकर भगवान ब्रह्मदेव की गिने चुने अवतरणों में से एक ये भी है। इस ज्योतिर्लिंग के तीन मुख हैं जो त्रिदेवों का प्रतिनिधित्व करते हैं। साथ ही साथ इनके प्रतीकात्मक तीन पिंड भी हैं जिनमे से एक ब्रह्मा, एक विष्णु एवं एक त्रयंबकेश्वर रुपी भगवान महारुद्र हैं। केदारनाथ की ही भांति ये मंदिर भी बहुत भव्य यही और काले पत्थरों द्वारा बनवाया गया है। इस मंदिर का जीर्णोद्धार सन १७५५ में पेशवा बाजीराव भल्लाल एवं काशीबाई के पुत्र और अगले पेशवा नाना साहेब पेशवा ने आरभ किया था। उसके ३१ साल बाद सन १७८६ में इसका कार्य पूर्ण हुआ और उसमे लगभग १६ लाख रूपये का खर्च आया था जो उस समय बहुत ही बड़ी रकम थी। शिवलिंग तो सम्पूर्ण विश्व में प्रसिद्ध है किन्तु ब्रह्मलिंग एवं विष्णुलिंग का उदाहरण इस स्थान के अतिरिक्त और कही नहीं मिलता। ये मंदिर ब्रह्मगिरि पहाड़ी की तलहटी में स्थित है जिसे शिव का साक्षात् रूप माना जाता है। पहाड़ी तक जाने के लिए ७०० सीढ़ियां बनी हुई है जिनके बाद रामकुंड एवं लक्ष्मणकुण्ड के दर्शन होते हैं। ऊपर पहुँचने पर गोमुख से परम पावन गोदावरी नदी के दर्शन होते हैं। यहाँ का वार्षिक उत्सव भी बड़ा प्रसिद्ध है जहाँ त्रयंबकेश्वर महाराज के पञ्चमुखी स्वर्णमुकुट को पालकी में घुमाया जाता है ताकि भक्त उनके दर्शन कर सकें। ये भगवान शिव का राज्याभिषेक माना जाता है।
इस शिवलिंग के विषय में एक पौराणिक कथा महर्षि गौतम की है जो इस स्थान पर अपनी पत्नी अहिल्या के साथ रहते थे। एक बार उस स्थान पर देवराज इंद्र के प्रकोप से १०० वर्षों तक वर्षा नहीं हुई। तब गौतम ऋषि ने छः माह की घोर तपस्या कर वरुणदेव को प्रसन्न कर लिया। वर के रूप में उन्होंने माँगा कि उस स्थान पर सूखा ख़त्म हो जाये और वर्षा हो। तब वरुणदेव ने अपनी असमर्थता प्रकट करते हुए कहा कि वे देवराज इंद्र एवं अन्य देवताओं का विरोध कर उनकी इच्छा पूर्ण नहीं कर सकते। किन्तु उनकी तपस्या का फल तो उन्हें देना ही था। तब उन्होंने कहा कि वे वर्षा तो नहीं करवा सकते किन्तु जल के देवता होने के कारण वे जल प्रदान अवश्य कर सकते हैं। तब वरुणदेव के निर्देश पर महर्षि गौतम ने एक हाथ गहरा गड्ढा खोदा जिसे वरुणदेव ने अपने दिव्य जल से भर दिया और कहा “हे महामुने! मुझे खेद है कि मैं आपकी इच्छा पूर्ण ना कर सका किन्तु मैं आपको वरदान देता हूँ कि इस कुण्ड का जल अक्षय रहेगा और कभी समाप्त नहीं होगा” (इसी कारण अपनी अवज्ञा होती देख तब इंद्र ने गौतम ऋषि से प्रतिशोध लेने की ठानी और आगे चलकर अहिल्या का सतीत्व भंग किया)। महर्षि गौतम ने वरुणदेव का धन्यवाद किया और उस अक्षय कुण्ड को जन साधारण के लिए खोल दिया। उस अक्षय जल से महर्षि गौतम ने उस स्थान को फिर से हरा-भरा कर दिया और दूर-दूर से अन्य ऋषि-मुनि वहाँ आकर महर्षि गौतम के नेतृत्व में बस गए। एक बार वहाँ के अन्य ब्राह्मणों की पत्नियों का अहिल्या से मनमुटाव हो गया। उन्होंने आकर ये बात अपने पतियों को बताई तो उन सभी ब्राह्मणों ने यज्ञ कर के श्रीगणेश को प्रसन्न कर लिया। जब विनायक ने वर मांगने को कहा तो उन्होंने माँगा कि किसी भी तरह महर्षि गौतम को यहाँ से निर्वासित कर दें। तब श्रीगणेश ने कहा – “हे ब्राह्मणों! आज अगर ये भूमि हरी-भरी है तो वो महर्षि गौतम का ही प्रभाव है। उन्होंने ही कठिन तप करके अक्षय जल के इस कुण्ड को प्राप्त किया। उन्ही के कारण आप लोग सूखे प्रदेशों से आकर यहाँ सुख पूर्वक निवास कर रहे हैं। अब इस प्रकार महर्षि गौतम को ही निष्काषित करना धर्म नहीं है अतः आप लोग कोई और वर माँग लें। गणेशजी द्वारा इतना समझाने पर भी सभी ब्राह्मण अपने हठ पर अड़े रहे और अंततः श्रीगणेश ने होनी को मानकर उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली।
अगले दिन प्रातः श्रीगणेश एक जीर्ण गाय का रूप धर कर महर्षि गौतम के खेत में चले गए। फसल को नुकसान होता देख कर गौतम ऋषि ने एक घास हाथ में लेकर उस गाय को हाँकने का प्रयत्न किया किन्तु गाय रुपी गणेश उस तृण के एक प्रहार से मर गए। चारो ओर हाहाकार मच गया। गौतम ऋषि को गोहत्या का पाप लग गया। उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था कि एक छोटे से तृण के प्रहार से गाय के प्राण निकल जाएंगे। उन्होंने सभी को समझाने का बड़ा प्रयत्न किया किन्तु सभी ब्राह्मणों ने मिलकर उन्हें उनके ही आश्रम से निकाल दिया। वहाँ से निष्काषित होने के बाद ऋषि गौतम अपनी पत्नी के साथ वहाँ से एक कोस दूर जाकर रहने लगे किन्तु इसपर भी ब्राह्मणों को चैन नहीं मिला और उन्होंने वहाँ आकर भी गौतम ऋषि को वहाँ निकाल दिया। जाते-जाते उन्होंने पूछा कि इस पाप का प्रायश्चित कैसे किया जाये? तब ब्राह्मणों ने कहा – “हे गोहत्या के दोषी! इस पाप का प्रायश्चित सरल नहीं है। पहले आप पूरी पृथ्वी की तीन परिक्रमा करें। फिर यहाँ लौट कर एक महीने तक निर्जल व्रत करो। इसके पश्चात ब्रह्मगिरी की १०१ परिक्रमा करने के बाद यहाँ गंगाजी को लाकर उनके जल से स्नान करके १००००००० पार्थिव शिवलिंगों से शिवजी की आराधना करो। इसके बाद पुनः गंगाजी में स्नान करके इस ब्रह्मगीरि की ११ बार परिक्रमा करो। फिर सौ घड़ों के पवित्र जल से पार्थिव शिवलिंगों को स्नान कराने से आपका उद्धार होगा। आत्मग्लानि से भरे महर्षि गौतम ने उनके कहे अनुसार उस कठिन व्रत को पूर्ण किया। इतने कठिन तप से महादेव ने प्रसन्न हो उन्हें दर्शन दिए और वरदान माँगने को कहा। तब महर्षि गौतम ने कहा – “हे महादेव! आप कृपया मुझे गोहत्या के पाप से मुक्त कर दें।” इस पर महारुद्र ने कहा – “पुत्र! तुम सर्वथा निर्दोष हो। जब तुम्हे गोहत्या का पाप लगा ही नहीं तो उससे निदान कैसा? ये सब इन ब्राह्मणों द्वारा किया गया छल है जिस कारण तुम्हे इतना कष्ट उठाना पड़ा। मैं अभी इन सभी को भस्म कर देता हूँ।” महादेव का ये क्रोध देख कर गौतम ऋषि ने कहा – “हे महादेव! आप कृपया उन्हें क्षमा कर दें। मैं तो उनका आभारी हूँ कि उनके इस छल के कारण ही मुझे आपके दर्शन प्राप्त हुए।”
तब उन्होंने वरदान स्वरुप शिवजी से लोक हित के लिए गंगा को माना। उनकी प्रार्थना स्वीकार कर महादेव ने अपनी जटा से उस गंगा को प्रकट किया जो उन्हें ब्रह्मदेव से उनके विवाह के अवसर पर उपहार स्वरुप प्राप्त हुई थी। वो गंगा वहाँ गौतमी (गोदावरी) नदी के रूप में बहने लगी। किन्तु जैसे ही महादेव वापस जाने लगे, उस महान नदी का भी लोप होने लगा। तब गौतमी ने कहा – “हे महर्षि! मैं यहाँ केवल एक शर्त पर रुक सकती हूँ कि अगर मेरे स्वामी भगवान शिव भी यहाँ रहें। तब गौतम ऋषि और गौतमी की प्रार्थना पर भगवान शिव “त्रयंबकेश्वर” के रूप में वहीँ स्थापित हो गए और उन्हें आशीर्वाद दिया कि गौतमी वैवस्तव मनु के शासन के २८वें कलियुग तक वही पर निरंतर बहती रहेगी। हर हर महादेव!
One Response to “द्वादश ज्योतिर्लिंग श्रंखला : श्री भीमाशंकर, त्र्यम्बकेश्वर , काशी विश्वनाथ”