जन्माष्टमी – धर्म संसार से साभार
आप सभी को जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामाएं। आज इस पर्व को केवल भारत में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में हर्षोल्लास से मनाया जा रहा है। भाद्रपद के कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि को आज ही के दिन भगवान विष्णु ने श्रीकृष्ण के रूप में अवतार ग्रहण किया था। वैसे तो सभी श्रीकृष्ण के अवतरण को कंस के वध हेतु मानते हैं किन्तु उनके इस पृथ्वी पर आने का प्रोयोजन उससे बहुत बड़ा था। आज के दिन पूरा देश, विशेषकर मथुरा पूरी तरह कृष्णमय हो जाता है। मथुरा की छटा तो ऐसी होती है कि दूर-दूर से लोग आज मथुरा पधारते हैं। जन्माष्टमी में लोग रात के १२ बजे तक व्रत करते हैं। इस रात्रि को मोहरात्रि भी कहा जाता है और जो कोई भी इस रात श्रीकृष्ण का ध्यान करता है वो मोह-माया के बंधन से छूट जाता है। वैसे तो जन्माष्टमी का वर्ष में एक दिन तय होता है किन्तु कभी-कभी जन्माष्टमी दो दिन पड़ती है। जब भी ऐसा होता है तो पहली तिथि स्मार्त संप्रदाय और दूसरी तिथि वैष्णव संप्रदाय के लिए मानी जाती है। ऐसा ही इस वर्ष हो रहा है जब जन्माष्टमी २ और ३ सितम्बर को पड़ेगी जिसमे २ को स्मार्त संप्रदाय और ३ को वैष्णव संप्रदाय के लोग इस पर्व को मनाएंगे। इस दिन किये गए व्रत का महत्त्व बहुत है और स्कंदपुराण के अनुसार जो कोई जानते बूझते इस व्रत को नहीं करते वो मनुष्य जंगल में व्याघ्र और सर्प के समान होता है। अतः आज के दिन लोग व्रत रखकर रात्रि में श्रीकृष्ण को झूला झुलाते हैं। गर्भवती स्त्रियों के लिए इस व्रत का अत्यधिक महत्त्व बताया गया है। श्रीकृष्ण का ध्यान रख कर और फलाहार कर जो भी गर्भवती स्त्रियां इस व्रत को करती है उन्हें श्रीकृष्ण के समान ही पुत्र की प्राप्ति होती है। इस दिन श्रीकृष्ण को छप्पन भोग लगाया जाता है (इसके बारे में विस्तार से यहाँ पड़ें) और कई जगह दही हांड़ी का उत्सव भी मनाया जाता है।
वैसे तो श्रीकृष्ण के अवतरण की कथा सभी जानते हैं फिर भी संक्षेप में उसका वर्णन करता हूँ। मथुरा में महाराज उग्रसेन का राज्य था किन्तु उनके क्रूर पुत्र कंस ने उन्हें कारागार में डाल कर सिँहासन पर अधिकार जमा लिया। कंस को अपनी बहन देवकी अत्यंत प्रिय थी जिसका विवाह उसने यदुवंशी सरदार वसुदेव से किया। वसुदेव की पहली पत्नी का नाम रोहिणी था। देवकी की विदाई के समय आकाशवाणी हुई कि उसके गर्भ से उत्पन्न आठवीं संतान कंस का वध करेगी। ऐसा सुनते ही कंस देवकी के वध को उद्धत हुआ लेकिन वसुदेव ने कंस को वचन दिया कि वो अपनी हर संतान को पैदा लेते ही उसे सौंप देगा। इस वचन के बाद कंस ने देवकी के प्राण ना लेकर उन दोनों को कारागार में डलवा दिया। समय बीतता गया और कंस ने देवकी की छः संतानों को उनकी आँखों के सामने मृत्यु के घाट उतार दिया। देवकी की आठवीं संतान संकर्षित हो कर रोहिणी के गर्भ में चली जिनसे संकर्षण बलभद्र का जन्म हुआ। देवकी की आठवीं संतान के रूप में आधी रात्रि को श्रीकृष्ण ने जन्म लिया। उनके जन्म लेते ही कारागार के द्वार खुल गए और सभी प्रहरी सो गए। उस भयावह अँधेरी रात में वसुदेव श्रीकृष्ण को लेकर गोकुल की ओर चल दिए। मार्ग में यमुना नदी पड़ती थी किन्तु उन्होंने उसे पार करने का निश्चय किया। श्रीकृष्ण को वर्षा से बचाने के लिए स्वयं शेषनाग उनका छत्र बने। गोकुल में पहुँच कर उन्होंने श्रीकृष्ण को नन्द की पत्नी यशोदा के पास रख दिया जिन्होंने उसी समय एक कन्या को जन्म दिया था। नन्द की सहमति से कृष्ण की जगह वसुदेव उस कन्या को लेकर वापस लौटे। जब कंस ने देखा कि देवकी की आठवीं संतान एक कन्या है तो उसे बड़ा आश्चर्य हुआ किन्तु उसने उसे भी मारने का निश्चय किया। जैसे ही कंस ने उस कन्या का वध करना चाहा जो योगमाया की अवतार थी, देवी ने प्रकट होकर हँसते हुए उसे बताया कि उसे मारने वाला पैदा हो चुका है। उसके बाद देवी अंतर्धान हो गयी।
कंस ने जब ये जाना तो उसने अपने सिपाहियों को आज्ञा दी कि इस राज्य के १ वर्ष तक के सभी बालकों का वध कर दिया जाये। इस कारण सैकड़ों निरीह बालक मार दिए गए किन्तु श्रीकृष्ण को कुछ ना हुआ। जैसे जैसे श्रीकृष्ण और बलराम बड़े होते गए, उनके चमत्कारों की चर्चा फैलने लगी। कंस ने कृष्ण को मारने के लिए कई मायावी राक्षस भेजे किन्तु सब काल के गाल में समा गए। फिर कंस ने अपनी बहन पूतना को भेजा किन्तु वो भी कृष्ण को विषपान कराने के क्रम में मारी गयी। जब कृष्ण १६ वर्ष के हुए तो कंस ने उन्हें और बलराम को मथुरा बुलवाया और अपने मल्लों द्वारा उन दोनों की हत्या करानी चाही। कृष्ण और बलराम ने बात ही बात में सब को यमलोक पहुँचा दिया। फिर बलराम ने अकेले ही कंस की सारी सेना का ध्वंस कर दिया और श्रीकृष्ण ने कंस का वध कर उसके आतंक से सब को मुक्त किया। फिर दोनों ने अपने नाना उग्रसेन और अपने माता-पिता को कारागार से मुक्त करवाया और उग्रसेन को मथुरा के सिंहासन पर फिर से विराजमान किया। अपने जमता कंस की हत्या के बाद जरासंध ने १८ बार मथुरा पर आक्रमण किया जिससे तंग आकर कृष्ण सभी प्रजा को लेकर द्वारिकापुरी में बस गए। उस समय तक महापराक्रमी भीष्म की छत्रछाया में कुरुवंश फल-फूल रहा था। कौरव और पांडव दोनों कृष्ण के फुफेरे भाई लगते थे। कृष्ण को ये आभास हो गया कि भविष्य में कौरवों और पांडवों में एक भीषण युद्ध होने की सम्भावना है। ये युद्ध बहुत आवश्यक भी था क्यूंकि उस समय पृथ्वी मनुष्यों के बोझ से डाब चुकी थी। साथ ही साथ उस समय विश्व में धर्मराज्य की स्थापना केवल पांडव ही कर सकते थे। इसीलिए कृष्ण ने पांडवों का पक्ष लिया और विभाजन के बाद ना सिर्फ इंद्रप्रस्थ की स्थापना में उनकी सहायता की बल्कि भीम के हाँथों जरासंध का वध और फिर राजसू यज्ञ करवा कर युधिष्ठिर को चक्रवर्ती सम्राट भी बनने में सहायता की। जब युद्ध ठन गया तो कृष्ण ने पांडवों का पक्ष लिया। बलराम ने हालाँकि सदैव पांडवों की सहायता की और करवों में दुर्योधन उनका प्रिय भी था किन्तु भाइयों के बीच युद्ध के वो पक्षधर नहीं थे इसी कारण वे तटस्थ रहे। युद्ध में श्रीकृष्ण के मुख से ही परम पावन श्रीमद्भगवद्गीता की उत्पत्ति हुई और उनकी ही कृपा से ही पांडव महाभारत का युद्ध जीत पाए और धर्म की स्थापना हुई।
श्रीकृष्ण ने उसके अतिरिक्त भी शाल्व, पौंड्रक, नरकासुर और कई अन्य त्याचारियों का अंत किया तथा बाणासुर जैसे महान दैत्य का भी अभिमान तोडा, हालाँकि महादेव द्वारा रक्षित बाणासुर को वो मार नहीं पाए। कट्टरपंथ के वे विरोध में भी उन्होंने काशी के ब्राह्मणों के विरुद्ध अभियान चलाया और अपने सुदर्शन चक्र से काशी का नाश करना चाहा। महादेव द्वारा रक्षित होने के कारण वे काशी को नष्ट तो नहीं कर सके किन्तु झूठे पाखंड से भारत को मुक्त करवाया। वे हमेशा धर्म और समता के पक्षधर रहे। युधिष्ठिर के राज में जब सर्वत्र धर्म की स्थापना हो गयी तब १०८ वर्ष की आयु में उन्होंने जरा नामक बहेलिये द्वारा तीर लगने पर अपनी लीला का अंत किया। उनकी मृत्यु के पश्चात ही द्वापरयुग का वास्तविक अंत हुआ और कलियुग अपने चरम पर पहुँचा। श्रीकृष्ण के अवसान के साथ ही बलराम और पांडवों ने भी पृथ्वी को छोड़ा। श्रीकृष्ण को भगवान विष्णु का परमावतार या पूर्णावतार कहते हैं क्यूंकि कृष्ण अवतार ही नारायण के सर्वाधिक निकट माना जाता है। कहा जाता है कि श्रीराम भगवान विष्णु के १२ गुणों के साथ अवतरित हुए इसीलिए उनमें मानवीय गुण अधिक था और उन्हें पुरुषोत्तम कहा गया किन्तु श्रीकृष्ण भगवान नारायण के सभी १६ गुणों के साथ जन्में जिस कारण उन्हें परमावतार कहा गया। यही कारण है कि जहाँ श्रीराम को सभी दिव्यास्त्र तपस्या अथवा गुरु से प्राप्त करने पड़े वहीँ श्रीकृष्ण को वो स्वतः ही मिल गए। श्रीकृष्ण के बारे में और भी कई रोचक तथ्य जानने के लिए आप इस लेख को पढ़ सकते हैं – श्रीकृष्ण के जीवन के अनजाने, आश्चर्जनक एवं दुर्लभ तथ्य। जय श्रीकृष्ण।
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