Me Too वाली महिलाएं : उर्वशी को माता कहने पर संस्कारी अर्जुन को नपुंसकता के श्राप की कथा – कृष्ण कोष की कथा
- महाभारत वनपर्व के ‘इंद्रलोकाभिगमनपर्व’ के अंतर्गत अध्याय 46 में उर्वशी का कामपीड़ित होकर अर्जुन के पास जाना और उनके अस्वीकार करने पर उन्हें शाप देकर लौट आने का वर्णन है, जिसका उल्लेख निम्न प्रकार है[1]–
वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर कृतकृत्य हुए गन्धर्वराज चित्रसेन को विदा करके पवित्र मुस्कान वाली उर्वशी ने अर्जुन से मिलने के लिये उत्सुक हो स्नान किया। धनंजय के रूप-सौन्द्रर्य से प्रभावित उसका हृदय कामदेव के बाणों द्वारा अत्यन्त घायल हो चुका था। वह मदनाग्नि से दग्ध हो रही थी। स्नान के पश्चात् उसने चमकीले और मनोभिराम आभूषण धारण किये। सुगन्धित दिव्य पुष्पों के हारों से अपने को अलंकृत किया। फिर उसने मन ही मन संकल्प किया-दिव्य बिछौनों से सजी हुई एक सुन्दर विशाल शय्या बिछी हुई है। उसका हृदय सुन्दर तथा प्रियतम के चिन्तन में एकाग्र था। उसके मन की भावना द्वारा ही यह देखा कि कुन्तीकुमार अर्जुन उसके पास आ गये हैं और वह उनके साथ रमण कर रही हैं। संध्या को चन्द्रोदय होने पर जब चारों ओर चांदनी छिटक गयी, उस समय विशाल नितम्बों वाली अप्सरा अपने भवन से निकलकर अर्जुन के निवास स्थान की ओर चली। उसके कोमल-घुंघराले और लम्बे केशों का समूह वेणी के रूप में आबद्ध था। उनमें कुमुदपुष्पों के गुच्छे लगे हुए थे। इस प्रकार सुशोभित वह ललना अर्जुन के गृह की ओर बढ़ी जा रही थी। भौंद्दों की भंगिमा, वार्तालाप की महिमाा, उज्ज्वल कांति और सौम्यभाव से सम्पन्न अपने मनोहर सुखचन्द्र द्वारा वह चन्द्रमा को चुनौती सी देती हुई इन्द्रभवन के पथ पर चल रही थी। चलते समय सुन्दर हारों से विभूषित उर्वशी के उठे हुए स्तन जोर-जोर से हिल रहे थे। उन पर दिव्य अंड़गार अत्यन्त मनोहर थे। वे दिव्य चन्द्रन से चर्चित हो रहे थे। सुन्दर महीन वस्त्रों से आच्छादित उसका जघनप्रदेश अनिन्द्य सौन्दर्य से सुशोभित हो रहा था। वह कामदेव का उज्ज्वल मंदिर जान पड़ता था। नाभि के नीचे के भाग में पर्वत के समान विशाल नितम्ब ऊंचा और स्थूल प्रतीत होता था। कटि में बंधी हुई करघनी की लडि़यां उस जघनप्रदेश को सुशोभित कर रही थी। वह मनोहर अंग (जघन) देवलोक वासी महर्षियों के भी चित को क्षुब्ध कर देने वाला था। उनके दोनों चरणों के गुल्फ (टखने) मांस से छिपे हुए थे। उसके विस्तृत तलवे और अंगुलियां लाल रंग की थीं। वे दोनों पैर कछुए की पीठ के समान ऊंचे होने के साथ ही घुंघुरूओं के चिह्र से सुशोभित थे। वह अल्प सुरापान से, संतोष से, काम से और नाना प्रकार की विलासिताओं से युक्त होने के कारण अत्यन्त दर्शनीय हो रही थीं। जाती हुई उस पिलासिनी अप्सरा की आकृति अनेक आश्रयों से भरे हुए स्वर्गलोक में भी सिद्ध, चारण और गन्धर्वों के लिये देखने के ही योग्य हो रही थी। अत्यन्त महीन मेघक समान श्याम रंग की सुन्दर ओढ़नी ओढ़े उर्वशी आकाश में बादलों से ढकी हुई चन्द्रलेखा-सी चली जा रही थी। मन और वायु समान तीव्र वेग से चलने वाली वह पवित्र मुस्कान से सुशोभित अप्सरा क्षणभर में पाण्डुकुमार अर्जुन के महल में आ पहुँची। नरश्रेष्ठ जनमेजय महल के द्वार पर पहुँचकर वह ठहर गयी। उस समय द्वारपालों ने अर्जुन को उसके आगमन की सूचना दी। तब सुन्दर नेत्रों वाली उर्वशी रात्रि में अर्जुन के अत्यन्त मनोहर तथा उज्ज्वल भवन में उपस्थित हुई राजन अर्जुन सशंक हृदय से उसके सामने गये। उर्वशी को आयी देख अर्जुन के नेत्र लज्जा से मुंद गये। उस समय उन्होंने उसके चरणों में प्रणाम करके उसका गुरुजनोचित सत्कार किया।
अर्जुन कहते है- देवि! श्रेष्ठ अप्सराओं में भी तुम्हारा सबसे ऊंचा स्थान है। मैं तुम्हारे चरणों में मस्तक रखकर कर प्रणाम करता हूँ। बताओ, मेरे लिये क्या आज्ञा है ? मैं तुम्हारा सेवक हूँ और तुम्हारी आज्ञा का पालन करने के लिये उपस्थित हूँ।
वैशम्पायनजी कहते हैं- अर्जुन की यह बात सुनकर उर्वशी के होश-हवास गुम हो गये। उस समय उसने गन्धर्वराज चित्रसेन की कहीं हुई सारी बातें कह सुनायी।
उर्वशी ने कहा-पुरुषोत्तम! चित्रसेन ने मुझे जैसा संदेश दिया है और उसके अनुसार जिस उद्देश्य को लेकर में यहाँ आयी हूं, वह सब मैं तुम्हें बता रही हूँ। देवराज इन्द्र के इस मनोरम निवास स्थान में तुम्हारे शुभागमन के उपलक्ष्य में एक महान् उत्सव मनाया गया। वह उत्सव स्वर्गलोक का सबसे बड़ा उत्सव था। उसमें रुद्र, आदित्य, अश्विनीकुमार और वसुगण-सब का एक ओर से समागम हुआ था। नरश्रेष्ठ! महर्षि समुदाया, राजर्षिप्रवर, सिद्ध, चारण, यक्ष तथा बड़े-बड़े नाग-ये सभी अपने पद सम्मान और प्रभाव के अनुसार योग्य आसनों पर बैठे थे। इन सबके शरीर अग्नि, चन्द्रमा और सूर्य के समान तेजस्वी थे और वे समस्त देवता अपनी अद्भुत समृद्धि से प्रकाशित हो रहे थे। विशाल नेत्रों वाले इन्द्रकुमार! उस समय गन्धवों द्वारा अनेक वाणीएं बजायी जा रही थी। दिव्य मनोरम संगीत छिड़ा हुआ था और सभी प्रमुख अप्सराएं नृत्य कर रही थीं। कुरुकुलनन्दन पार्थ! उस समय तुम मेरी ओर निर्निमेष नयनों से निहार रहे थे। देवसभा में जब उस महोत्सव की समाप्ति हुई, तब तुम्हारे पिता की आज्ञा लेकर सब देवता अपने-अपने भवन को चले गये। शत्रुदमन! इसी प्रकार आपके पिता से विदा लेकर सभी प्रमुख अप्सराएं तथा दूसरी साधारण अप्सराएं भी अपने अपने घर को चली गयीं। कमलनयन! तदनन्तर देवराज इन्द्र का संदेश लेकर गन्धर्वप्रवर चित्रसेन मेरे पास आये और इस प्रकार बोले-‘वरवर्णिनि! देवेश्वर इन्द्र ने तुम्हारे लिये एक संदेश देकर मुझे भेजा है। तुम उसे सुनकर महेन्द्र का, मेरा तथा मुझसे अपना भी प्रिय कार्य करो। ‘सुश्रोणि! जो संग्राम में इन्द्र के समान पराक्रमी और उदारता आदि गुणों से सदा सम्पन्न हैं, उन कुन्तीनन्दन अर्जुन की सेवा तुम स्वीकार करो।’ इस प्रकार चित्रसेन ने मुझसे कहा था। अनघ! शत्रुदमन! तदनन्तर चित्रसेन और तुम्हारे पिता की आज्ञा शिरोधार्य करके मैं तुम्हारी सेवा के लिये तुम्हारे पास आयी हूँ। तुम्हारे गुणों ने मेरे चित्त को अपनी ओर खींच लिया है। मैं कामदेव के वश में हो गयी हूँ। वीर! मेरे हृदय में भी चिरकाल से यह मनोरथ चला आ रहा था।
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! स्वर्गलोक में उर्वशी की यह बात सुनकर अर्जुन अत्यन्त लज्जा से गड़ गये और हाथों से दोनों कान मूंद कर बोले- ‘सौभाग्यशालिनि! भाविनि! तुम जैसी बात कह रही हो, उसे सुनना भी मेरे लिये बड़े दुख की बात है। वरानने! निश्चय ही तुम मेरी दृष्टि में गुरुपत्नियों के समान पूजनीय हो। ‘कल्याणि! मेरे लिये जैसा महाभागा कुन्ती ओर इन्द्राणि शची हैं, वैसी ही तुम भी हो। इस विषय में कोई अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये।[2]‘शुभे! पवित्र मुस्कान वाली उर्वशी! मैंने जो उस समय सभा में तुम्हारी ओर एकटक दृष्टि से देखा था, उसका एक विशेष कारण था, उसे सत्य बताता हूँ सुनो। ‘यह आनंदमयी उर्वशी की पूरूवंश की जननी है, ऐसा समझकर मेरे नेत्र खिल उठे और इस पूज्य भाव को लेकर ही मैंने तुम्हें वहाँ देखा था। कल्याणमयी अप्सरा! तुम मेरे विषय में कोई अन्यथा भाव मन में न लाओ। तुम मेरे वंश की वृद्धि करने वाली हो, अतः गुरु से भी अधिक गौरवशालिनी हो’।
उर्वशी कहती है- वीर देवराजनन्दन! हम सब अप्सराएं स्वर्गवासियों के लिये अनावृत हैं- हमारा किसी के साथ कोई पर्दा नहीं है। अतः तुम मुझे गुरुजन के स्थान पर नियुक्त न करो। पूरूवंश के कितने ही पोते नाती तपस्या करके यहाँ आते हैं और वे हम सब अप्सराओं के साथ रमण करते हैं। इसमें उनका कोई अपराध नहीं समझा जाता। मानद! मुझ पर प्रसन्न होओ। मैं कामवेदना पीडित हूं, मेरा त्याग न करो। मैं तुम्हारी भक्त हूँ और मदनाग्नि से दग्ध हो रही हूं; अतः मुझे अंगीकार करो।
अर्जुन कहते है -वरारोहे! अनिन्दित! मैं तुमसे जो कुछ कहता हूं, मेरे उस सत्य वचन को सुनो। ये दिशा, विदिशा तथा उनकी अधिष्ठात्री देवियां भी सुन लें। अनघे! मेरी दृष्टि में कुन्ती, माद्री और शची का जो स्थान है, वही तुम्हारा भी है। तुम पुरुष वंश की जननी होने के कारण आज मेरे लिये परम गुरुस्वरूप हो। वरवर्णिनि! मैं तुम्हारे चरणों में मस्तक रखकर तुम्हारी शरण में आया हूँ। तुम लौट जाओ। मेरी दृष्टि तुम माता के समान पूजनीया हो और तुम्हें पुत्र के समान मानकर मेरी रक्षा करनी चाहिये।
वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! कुन्तीकुमार अर्जुन के ऐसा कहने पर उर्वशी क्रोध से व्याकुल हो उठी। उसका शरीर कांपने लगा और भौहें टेढ़ी हो गयीं। उसने अर्जुन को शाप देते हुए कहा।
उर्वशी कहती है- अर्जुन! तुम्हारे पिता इन्द्र के कहने से मैं स्वयं तुम्हारे धर पर आयी और कामबाण से घायल हो रही हूं, फिर भी तुम मेरा आदर नहीं करते। अतः तुम्हें स्त्रियों के बीच में सम्मानरहित होकर नर्तक बनकर रहना पड़ेगा। तुम नपुसंक कहलाओगे और तुम्हारा सारा आचार व्यवहार हिजड़ों के ही समान होगा। फड़कते हुए आठों से इस प्रकार शाप देकर उर्वशी लंबी सांसें खींचती हुई पुनः शीघ्र ही अपने घर को लौट गयी।
तदनन्तर शत्रुदमन पाण्डुकुमार अर्जुन बड़ी उतावली के साथ चित्रसेन के समीप गये तथा रात में उर्वशी के साथ जो घटना जिस प्रकार घटित हुई, वह सब उन्होंने उस समय चित्रसेन को ज्यों का त्यों कह सुनायी। साथ ही उसके शाप देने की बात भी उन्होंने बार-बार दुहरायी। चित्रसेन ने भी सारी घटना देवराज इन्द्र से निवेदन की। तब इन्द्र ने अपने पुत्र अर्जुन को बुलाकर एकान्त में कल्याणमय वचनों द्वारा सान्त्वना देते हुए मुसकराकर उनसे कहा-‘तात! तुम सत्पुरुषों के शिरोमणि हो, तुम-जैसे पुत्र को पाकर कुन्ती वास्तव में श्रेष्ठ पुत्रवाली है। ‘महाबाहो! तुमने अपने धैर्य (इन्द्रियसंयम) के द्वारा ऋषियों को भी पराजित कर दिया है। मानद! उर्वशी ने तुम्हें शाप दिया है, वह तुम्हारे अभीष्ट अर्थ का साधक होगा।[3] अनघ! तुम्हें भूतल पर तेरहवें वर्ष में अज्ञात वास करना है। वीर! उर्वशी के दिये हुए शाप को तुम उसी वर्ष में पूर्ण कर दोगे। ‘नर्तक वेष और नपुंसक भाव से एक वर्ष तक इच्छानुसार विचरण करके तुम फिर अपना पुरुषत्व प्राप्त कर लोगे’। इन्द्र के ऐसा कहने पर शत्रु वीरों का संहार करने वाले अर्जुन को बड़ी प्रसन्नता हुई। फिर तो उन्हें शाप की चिंता छूट गयी। पाण्डुपुत्र धनंजय महायशस्वी गन्धर्व चित्रसेन के साथ स्वर्गलोक में सुखपूर्वक रहने लगे। जो मनुष्य पाण्डुनन्दन अर्जुन के इस चरित्र को प्रतिदिन सुनता है, उसके मन में पापपूर्ण विषय भोगों की इच्छा नहीं होती। देवराज इन्द्र के पुत्र अर्जुन के इस अत्यन्त दुष्कर पवित्र चरित्र को सुनकर मद, दम्भ तथा विषयासक्ति आदि दोषों से रहित श्रेष्ठ मानव स्वर्गलोक में जाकर वहाँ सूखपूर्वक निवास करते हैं।[4]
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