Raskhaan was a muslim poet of Bhakti Kal known as riti kaal in hindi literature . He worshipped lord Krishna both in nirgun and sagun form . His poems depict his intense love for Krishna . His verses are masterly crafted in devotional and romantic poems ( shringaar ras). Below is a selection of an article showing the range of his love and devotion to lord Krishna .
मानुष हौं तो वही रसखानि बसौं गोकुल गाँव के ग्वालन। जो पसु हौं तो कहा बसु मेरो चरौं नित नन्द की धेनु मंझारन। पाहन हौं तो वही गिरि को जो धरयौ कर छत्र पुरन्दर धारन। जो खग हौं बसेरो करौं मिल कालिन्दी-कूल-कदम्ब की डारन।।
हिन्दी के कृष्ण भक्त तथा रीतिकालीन रीतिमुक्त कवियों में रसखान का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। रसखान को रस की खान कहा गया है। इनके काव्य में भक्ति, श्रृगांर रस दोनों प्रधानता से मिलते हैं। रसखान कृष्ण भक्त हैं और उनके सगुण और निगुर्ण निराकार रूप दोनों के प्रति श्रध्दावनत हैं। रसखान के सगुण कृष्ण वे सारी लीलाएं करते हैं, जो कृष्ण लीला में प्रचलित रही हैं। यथा – बाललीला, रासलीला, फागलीला, कुंजलीला आदि। उन्होंने अपने काव्य की सीमित परिधी में इन असीमित लीलाओं को बखूबी बाँधा है।
रसखान का अपने आराध्य के प्रति इतना गम्भीर लगाव है कि ये प्रत्येक स्थिति में उनका सान्निध्य चाहते हैं। चाहे इसके लिये इन्हें कुछ भी परिणाम सहना पडे। इसीलिये कहते हैं कि आगामी जन्मों में मुझे फिर मनुष्य की योनि मिले तो मैं गोकुल गाँव के ग्वालों के बीच रहने का सुयोग मिले। अगर पशु योनि मिले तो मुझे ब्रज में ही रखना प्रभु ताकि मैं नन्द की गायों के साथ विचरण कर सकूँ। अगर पत्थर भी बनूं तो भी उस पर्वत का बनूँ जिसे हरि ने अपनी तर्जनी पर उठा ब्रज को इन्द्र के प्रकोप से बचाया था। पक्षी बना तो यमुना किनारे कदम्ब की डालों से अच्छी जगह तो कोई हो ही नहीं सकती बसेरा करने के लिये।
इसी प्रकार रसखान ने समस्त शारीरिक अवयवों तथा इन्द्रियों की सार्थकता तभी मानी है, जिनसे कि वे प्रभु के प्रति समर्पित रह सकें।
जो रसना रस ना बिलसै तेविं बेहु सदा निज नाम उचारै। मो कर नीकी करैं करनी जु पै कुंज कुटीरन देहु बुहारन। सिध्दि समृध्दि सबै रसखानि लहौं ब्रज-रेनुका अंग सवारन। खास निवास मिले जु पै तो वही कालिन्दी कूल कदम्ब की डारन।।
रसखान अपने आराध्य से विनती करते हैं कि मुझे सदा अपने नाम का स्मरण करने दो ताकि मेरी जिव्हा को रस मिले। मुझे अपने कुंज कुटीरों में झाडू लगा लेने दो ताकि मेरे हाथ सदा अच्छे कर्म कर सकें। ब्रज की धूल से अपना शरीर संवार कर मुझे आठों सिध्दियों का सुख लेने दो। और यदि निवास के लिये मुझे विशेष स्थान देना ही चाहते हो प्रभु तो यमुना किनारे कदम्ब की डालों से अच्छी जगह तो कोई हो ही नहीं, जहाँ आपने अनेकों लीलाएं रची हैं।
रसखान के कृष्ण की बाललीला में उनके बचपन की अनेकों झाँकियां हैं।
धूरि भरै अति सोभित स्याम जु तैसी बनी सिर सुन्दर चोटी। खेलत खात फिरै अँगना पग पैंजनी बाजती पीरी कछौटी। वा छवि को रसखान विलोकत बारत काम कला निज कोठी। काग के भाग बडे सजनी हरि हाथ सौं ले गयो रोटी।।
बालक श्यामजू का धूल से सना शरीर और सर पर बनी सुन्दर चोटी की शोभा देखने लायक है। और वे पीले वस्त्रों में, पैरों में पायल बांध माखन रोटी खेलते खाते घूम रहे हैं। इस छवि पर रसखान अपनी कला क्या, सब कुछ निछावर कर देना चाहते हैं। तभी एक कौआ आकर उनके हाथ से माखन-रोटी ले भागता है तो रसखान कह उठते हैं कि देखो इस निकृष्ट कौए के भाग्य भगवान के हाथ की रोटी खाने को मिली है।
कृष्ण के प्रति रसखान का प्रेम स्वयं का तो है ही मगर वह गोपियों का प्रेम बन कृष्ण की बाल्यावस्था से यशोदा नन्द बाबा के प्रेम से आगे जा समस्त ब्रज को अपने प्रेम में डुबो ले जाता है। उनकी शरारतों की तो सीमा नहीं। वे गोपियों को आकर्षित करने के लिये विविध लीलाएं करते हैं जैसे कभी बाँसुरी के स्वरों से किसी गोपी का नाम निकालते हैं। कभी रास रचते हैं, कभी प्रेम भरी दृष्टि से बींध देते हैं।
अधर लगाई रस प्याई बाँसुरी बजाय, मेरो नाम गाई हाय जादू कियौ मन में। नटखट नवल सुघर नन्दनवन में करि कै अचेत चेत हरि कै जतम मैं। झटपट उलटि पुलटी परिधान, जानि लागीं लालन पे सबै बाम बन मैं। रस रास सरस रंगीली रसखानि आनि, जानि जोर जुगुति बिलास कियौ जन मैं।
एक गोपी अपनी सखि से कहती है कि कृष्ण ने अपने अधरों से रस पिला कर जब बाँसुरी में मेरा नाम भर कर बजाया तो मैं सम्मोहित हो गई। नटखट युवक कृष्ण की इस शरारत से अचेत मैं हरि के ध्यान में ही खो गई। और बांसुरी के स्वर सुन हर गोपी को लगा कि उसे कृष्ण ने बुलाया है तो सब उलटे सीधे कपडे ज़ल्दी जल्दी पहन, समय का खयाल न रख वन में पहुँच गईं। तब रंगीले कृष्ण ने वहाँ आकर रासलीला की और नृत्य संगीत से आनंद का वातावरण बना दिया।
रंग भरयौ मुस्कात लला निकस्यौ कल कुंज ते सुखदाई। मैं तबहीं निकसी घर ते तनि नैन बिसाल की चोट चलाई। घूमि गिरी रसखानि तब हरिनी जिमी बान लगैं गिर जाई। टूट गयौ घर को सब बंधन छुटियो आरज लाज बडाई।।
गोपी अपने हृदय की दशा का वर्णन करती है। जब मुस्कुराता हुआ कृष्ण सुख देने वाले कुंज से बाहर निकला तो संयोग से मैं भी अपने घर से निकली। मुझे देखते ही उसने मुझ पर अपने विशाल नेत्रों के प्रेम में पगे बाण चलाए मैं सह न सकी और जिस प्रकार बाण लगने पर हिरणी चक्कर खा कर भूमि पर गिरती है, उसी प्रकार मैं भी अपनी सुध-बुध खो बैठी। मैं सारे कुल की लाज और बडप्पन छोड क़ृष्ण को देखती रह गई।
रसखान ने रासलीला की तरह फागलीला में भी कृष्ण और गोपियों के प्रेम की मनोहर झाँकियां प्रस्तुत की हैं।
खेलत फाग लख्यौ पिय प्यारी को ता मुख की उपमा किहिं दीजै। दैखति बनि आवै भलै रसखान कहा है जौ बार न कीजै।। ज्यौं ज्यौं छबीली कहै पिचकारी लै एक लई यह दूसरी लीजै। त्यौं त्यौं छबीलो छकै छबि छाक सौं हेरै हँसे न टरै खरौ भीजै।।
एक गोपी अपनी सखि से राधा-कृष्ण के फाग का वर्णन करते हुए बताती है – हे सखि! मैं ने कृष्ण और उनकी प्यारी राधा का फाग खेलते हुए देखा है, उस समय की उस शोभा को कोई उपमा नहीं दी जा सकती। और कोई ऐसी वस्तु नहीं जो उस स्नेह भरे फाग के दृश्य पर निछावर नहीं की जा सके। ज्यों ज्यों सुन्दरी राधा चुनौती दे देकर एक के बाद दूसरी पिचकारी चलाती हैं। वैसे वैसे छबीला कृष्ण उनके उस रंग भरे रूप को छक कर पीता हुआ वहीं खडा मुस्कुरा कर भीगता रहता है।
रसखान के भक्ति काव्य में अलौकिक निगुर्ण कृष्ण भी विद्यमान हैं। वे कहते हैं –
संभु धरै ध्यान जाकौ जपत जहान सब, ताते न महान और दूसर अब देख्यौ मैं। कहै रसखान वही बालक सरूप धरै, जाको कछु रूप रंग अबलेख्यौ मैं। कहा कहूँ आली कुछ कहती बनै न दसा, नंद जी के अंगना में कौतुक एक देख्यौ मैं। जगत को ठांटी महापुरुष विराटी जो, निरजंन, निराटी ताहि माटी खात देख्यौ मैं।
शिव स्वयं जिसे अराध्य मान उनका ध्यान करते हैं, सारा संसार जिनकी पूजा करता है, जिससे महान कोई दूसरा देव नहीं। वही कृष्ण साकार रूप धार कर अवतरित हुआ है और अपनी अद्भुत लीलाओं से सबको चौंका रहा है। यह विराट देव अपनी लीला के कौतुक दिखाने को नंद बाबा के आंगन में मिट्टी खाता फिर रहा है।
गावैं गुनि गनिका गंधरव औ नारद सेस सबै गुन गावत। नाम अनंत गनंत ज्यौं ब्रह्मा त्रिलोचन पार न पावत। जोगी जती तपसी अरु सिध्द निरन्तर जाहि समाधि लगावत। ताहि अहीर की छोहरियाँ छछिया भरि छाछ पै नाच नचावत।
जिस कृष्ण के गुणों का गुणगान गुनिजन, अप्सरा, गंर्धव और स्वयं नारद और शेषनाग सभी करते हैं। गणेश जिनके अनन्त नामों का जाप करते हैं, ब्रह्मा और शिव भी जिसके स्वरूप की पूर्णता नहीं जान पाते, जिसे प्राप्त करने के लिये योगी, यति, तपस्वी और सिध्द निरतंर समाधि लगाए रहते हैं, फिर भी उस परब्रह्म का भेद नहीं जान पाते। उन्हीं के अवतार कृष्ण को अहीर की लडक़ियाँ थोडी सी छाछ के कारण दस बातें बनाती हैं और नाच नचाती हैं।
एक और सुन्दर उदाहरण –
वेही ब्रह्म ब्रह्मा जाहि सेवत हैं रैन दिन, सदासिव सदा ही धरत ध्यान गाढे हैं। वेई विष्णु जाके काज मानि मूढ राजा रंक, जोगी जती व्हैके सीत सह्यौ अंग डाढे हैं। वेई ब्रजचन्द रसखानि प्रान प्रानन के, जाके अभिलाख लाख लाख भाँति बाढे हैं। जसुदा के आगे वसुधा के मान मोचन ये, तामरस-लोचन खरोचन को ठाढे हैं।
कृष्ण की प्राप्ति के लिये सारा ही जगत प्रयत्नशील है। ये वही कृष्ण हैं जिनकी पूजा ब्रह्मा जी दिन रात करते हैं। सदाशिव जिनका सदा ही ध्यान धरे रहते हैं। यही विष्णु के अवतार कृष्ण जिनके लिये मूर्ख राजा और रंक तपस्या करके सर्दी सहकर भी तपस्या करते हैं। यही आनंद के भण्डार कृष्ण ब्रज के प्राणों के प्राण हैं। जिनके दर्शनों की अभिलाषाएं लाख-लाख बढती हैं। जो पृथ्वी पर रहने वालों का अहंकार मिटाने वाले हैं। वही कमल नयन कृष्ण आज देखो यशोदा माँ के सामने बची खुची मलाई लेने के लिये मचले खडे हैं।
वस्तुत: रसखान के कृष्ण चाहे अलौकिक हों पर वे भक्तों को आनंदित करने के लिये और उनके प्रेम को स्वीकार करने के लिये तथा लोक की रक्षा के लिये साकार रूप ग्रहण किये हैं।