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मेगासेसे पुरस्कार की वास्तविकता : क्या विदेशी पुरस्कारों का भारत विरोधी गतिविधियों के लिए उपयोग हो रहा है

मेगासेसे पुरस्कार की वास्तविकता : क्या विदेशी पुरस्कारों का भारत विरोधी गतिविधियों के लिए उपयोग हो रहा है

राजीव उपाध्याय rp_RKU-263x300.jpg

हज़ारों साल की गुलामी से संतप्त भारतीय आज भी विदेशी पुरस्कार व् तारीफों को बहुत अधिक महत्त्व देते हैं . कुछ अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार जिनकी चयन प्रक्रिया सार्वजनिक  होती हैं वास्तव मैं विश्व स्तर पर भारतियों की सफलता का द्योतक होती हें . इनमें सब से अच्छी प्रक्रिया ओलिंपिक खेलों मैं होती है . खेलों के नियम सब को पता होते है और मुकाबला लाखों दर्शक सारे विश्व मैं टेलीविज़न पर देख रहे होते हैं और पुरस्कार सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी को मिलता है . अन्य पुरस्कारों में इतनी पार्दर्शिता  संभव नहीं होती क्योंकि अलग अलग विषयों में उपलब्धियों का मुकाबला कठिन हो जाता है. अर्थशास्त्र ,कला व् साहित्य मैं भाषा  व् संस्कृतियों के विभिन्नता मैं तालमेल बिठाना कठिन हो जाता है.

परन्तु गांधीजी को शांति का नोबल पुरस्कार न मिले और पाकिस्तान की चौदह साल की लड़की  मलाला युसुफजई या भारत  के अंजान से कालीन उद्योग इत्यादि मैं बाल मजदूरी के विरोधी कैलाश सत्यार्थी   को  मिल जाय तो बात कुछ समझ नहीं आती .

कल भारत के बिहार में जन्मे , एक टीवी एंकर रविश कुमार को मेगासेसे पुरस्कार का विजेता घोषित कर दिया . श्री रविश कुमार एनडीटीवी के प्रोग्राम प्राइम टाइम के संचालक हैं . ट्विटर पर उनके लाखों फोल्लोवर हैं .देश मैं उनके बहुत प्रशंसक हैं  .उनका मध्यम स्वर मैं नपा तुला  तथ्यात्मक अंदाज़ जोर जोर से चीखने वाले एंकरों से ज्यादा अच्छा है . परन्तु श्री रविश कुमार मोदी सरकार के सबसे प्रबल विरोधियों मैं से हैं . एनडीटीवी भी मोदी सरकार के प्रबल विरोधी टीवी चैनलों में से है . जनतंत्र मैं सरकार का विरोध भी एक अधिकार है और देश के बृहत् हित मैं है . कबीर का दोहा ‘ निंदक नियरे राखिये ‘सदा से हमारा मार्ग दर्शन करता है .परन्तु यह भी विचारणीय है की क्या विदेशी पुरस्कारों का उपयोग भारत य अन्य देशों की राष्ट्र विरोधी गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिए हो रहा है ?

इसलिए पहले मेगासेसे पुरस्कार को लें जिसे भारतीय मीडिया आज कल झूठ मूठ बढ़ा चढ़ा कर  एशिया का नोबेल पुरस्कार भी  कह रहे हैं . कहने को यह फिलिपींस में दिया जाता है परन्तु इसका प्रारम्भ अमरीका की सर्वाधिक अमीर  रोकफेल्लर भाइयों की फाउंडेशन ने सन १९५७  में फिलिपिन्स के राष्ट्रपति रेमन  मेगासेसे की याद को चिरस्थायी करने के लिए किया गया है . राष्ट्रपति मेगासेसे की मृत्यु एक हवाई जहाज की दुर्घटना मैं  १९५७  मैं हुई  थी . वह फिलिपींस के सबसे सफल राष्ट्रपति तो नहीं परन्तु अमरीका के सबसे बड़े हिमायती राष्ट्रपति अवश्य थे. जब शीत युद्ध अपनी चरम सीमा पर था तो उन्होंने फिलिपींस को पूरी तरह से अमरीकी खेमे मैं डाल दिया . वह साम्यवाद के प्रबल विरोधी थे  .  १९५५    की बांडुंग  की मीटिंग मैं उन्होंने नेहरु जी की गुटनिरपेक्षता का जम कर विरोध किया था . बाद मैं फिलिपींस को अमरीकी  सीटो सैन्य संगठन का सदस्य बना दिया था .इस प्रकार वह अमरीका के परम मित्रों मैं से थे और अमरीका ने एक तरह से उनकी अमरीकी सेवाओं की स्मृति को शाश्वत बनाने के लिए मेगासेसे पुरस्कार स्थापित किया . पहले तो भारत के विनोबा भावे , कुरियाँ , एमएस स्वमिनाथन , शेषण जैसे प्रसिद्ध व्यक्तियों को उनकी जग विदित उपलब्धियों के लिए दिया  जाता  था परन्तु इसमें एक उदयीमान  नेताओं की केटेगरी खोल दी गयी जिसका कोई पारदर्शी माप दंड नहीं था  .

इसमैं भारत के अरविन्द केजरीवाल,अरुणा रॉय ,किरण बेदी इत्यादि को भी पुरस्कृत किया गया . अरविन्द केजरी वाल को यह सन 2006 मैं दिया गया था . उन्होंने सन 1995 मैं आय कर विभाग की नौकरी शुरू की . 5  साल की नौकरी के बाद वह उच्च शिक्षा के लिए छुट्टी पर चले गए . वहां से लौटने के बाद उन्होंने एक साल बिना नौकरी के व् बाद में डेढ़  साल की अवैतनिक छुट्टी ले ली . सन २००६  उन्होंने आयकर विभाग की नौकरी छोड़ दी . उन दिनों वह RTI कानून पास करने की मुहीम चला रहे थे .इसमें उनका  साथ भूत पूर्व  आई ए  एस अधिकारी अरुणा रॉय भी दे रहीं थीं . बाद मैं इन सब मैं प्रथम महिला आई पी एस अधिकारी  किरण बेदी भी जुड़ गयीं और सब ने अन्ना हजारे के भर्ष्टाचार विरोधी अभियान को ज्वईन कर लिया . इन तीनों को मेंगासेसे पुरस्कार सन २००६  , 2000 , 1994  में  दिया गया . किरण बेदी ने बीजेपी , अरुणा रॉय ने सोनिया गाँधी व् केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी  पार्टी को ज्वाइन कर लिया .

प्रश्न जो देश को उद्देवेलित  कर रहा है की यदि मेगासेसे पुरस्कार सच्चा है तो श्री केजरीवाल ने  ऐसी क्या उपलब्धि की जो इतना बड़ा पुरस्कार दे दिया गया . सरकारी नौकरी तो नाम मात्र ही की थी . हाँ वह कलकात्ता जा कर मदर टेरेसा से अवश्य मिले थे और उनमें समाज सेवा की भावना थी . परन्तु यदि भ्रष्टाचार विरोधी पुरस्कार अन्ना हजारे को देते तो समझ आता था पर केजरीवाल या अरुणा रॉय या किरण बेदी को क्यूँ इतना महत्व दिया गया ?

अब कुछ और अंतरराष्ट्रीय सम्मान य पुरस्कारों को देखिये . पोलैंड मैं साम्यवादी शासन का विरोध शुरू करने वाले लेच वलेसा को सन १९८३  में नोबेल पुरस्कार दिया गया जब पोलैंड रूस से स्वतंत्र भी नहीं हुआ था . पोप ने भी सन १९८३  मैं पोलैंड का दौरा किया और लेच  वालेसा से मुलाक़ात की जिससे उनकी प्रतिष्ठा बढ़ गयी .इस तरह नोबेल पुरस्कार व् पोप का पोलैंड मैं क्रांति लाने  में उपयोग हुआ. टाइम मैगज़ीन ने कश्मीर की स्वर्तन्त्र्ता का समर्थन व् अफज़ल गुरु को फासी दिए जाने का विरोध करने वाली अरुंधती रॉय को विश्व की सौ प्रमुख चिंतकों मैं शुमार कर लिया . सोनिया गाँधी का साथ  देने वाली अरुणा रॉय को विश्व की सौ सबसे शक्तिशाली विचारकों मैं शुमार कर लिया . किरण बेदी  जिनको पोलिस सेवा के साथी अधिकारी साहसी पर बहुत काबिल अफसर नहीं मानते , राष्ट्रपति क्लिंटन ने सुबह के नाश्ते पर बुला लिया व् प्रसिद्द कर दिया . अरुंधती रॉय व् मेधा  पाटकर ने नर्मदा डैम  के बनने  में बहुत व्यवधान डाला और पश्चिम का मीडिया इनके गुण गान गाता रहा .

स्वत्न्र्ता से पहले एक अमरीकी लेखिका  कैथेरिन मेयो  ने मदर इंडिया नमक पुस्तक मैं भारत की संस्कृति , धर्म , जनता व् रहन सहन की इतनी अधिक व् बुरी भर्त्सना की कि महात्मा गाँधी जैसे सहनशील व्यक्ति को भी उनकी किताब को गन्दी नाली साफ़ करने वाले की रिपोर्ट कहना पडा जिसमें सिर्फ नालियों की गंदगी का विस्तृत वर्णन है . परन्तु पश्चिम मैं भारतीय स्वतंर्ता के विरोधियों ने उनको सर आँखों पर बिठा लिया .

हम रविश कुमार को उनकी उपलब्धि के लिए बधाई अवश्य देते हें और उनके उज्जवल भविष्य की कामना भी करते हैं परन्तु इस प्रश्न का उत्तर तो देश की जनता को जानना होगा की जो पुरस्कार पारदर्शी नहीं हैं उन विदेशी पुरस्कारों के प्रति अंधी आस्था राष्ट्र हित मैं नहीं है और न ही विदेशी अखबारों के लेखों को बहुत महत्व देने की आवश्यकता है . उनका निष्पक्ष व् पूर्ण मूल्यांकन होना चाहिए तब ही उन पर विश्वास किया जाना चाहिए .

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