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भारत का आसियान के RCEP समझौते से न जुड़ने का फैसला सही , पर बकरे की माँ कब तक खैर मनायेगी : Non Competitive Exports

प्रधान मंत्रि श्री नरेन्द्र मोदी ने थाईलैंड मैं आसियान देशों की मीटिंग मैं भारत के आर सी ई पी समझौते पर हस्ताक्षर करने से साफ़ मना कर दिया . इससे आसियान समेत रूस चीन व् अन्य सहयोगी देशों में यूरोपियन यूनियन की तरह बिना किसी कस्टम या अन्य रुकावटों  के आयात निर्यात किया जाएगा . यह विश्व के  ४० % व्यापार का समूह हो जाएगा . परन्तु इससे चीन को भारत के पूरे बाज़ार पर कब्ज़ा करने का मौक़ा मिल जाता जिससे पहले से ही चीनी मार झेल रहे भारतीय उद्योगों की जान ही निकल जाती . इसी तरह ऑस्ट्रेलिया व् न्यूजीलैंड दूध बहुत सस्ता पैदा करते हैं जिससे हमारे किसानों को बहुत नुक्सान होता . भारतीय व्यापारी , उद्योगपति , मजदूर संगठन व् कांग्रेस समेत देश मैं इसका व्य्पापक विरोध हो रहा था . इस लिए मोदी जी का इससे बाहर रहना सबको उचित लगा .  विश्व निर्यात मैं अग्रणी चीन इसके लिए बहुत उत्सुक था और उसने भारत के बिना पंद्रह देशों को इस पर हस्ताक्षर करने को कहा जिसे भारत के मित्र इंडोनेशिया व् थाईलैंड ने मना कर दिया .इस लिए भारत को कुछ और समय मिल गया है . बाद मैं यदि भारत इससे जुड़ना चाहेगा तो चीन उसे नहीं जुड़ने देगा .इसलिए भारत के लिए खतरे भी हैं .

मुख्य  समस्या वही है जो विश्व व्यापार समझौते के समय आयी थी . रूपये के इतने गिरने के बावजूद भारतीय उत्पाद की कीमत अंतर्राष्ट्रीय मानकों से कहीं अधिक है . स्टील इसका प्रमुख उदाहरण है . भारत विश्व का दूसरा बड़ा उत्पादक देश है . परन्तु भारतीय स्टील की कीमत अंतर्राष्ट्रीय मूल्यों से ड्योढी है और बाज़ार खुलते ही चीन हमें ध्वस्त कर देगा .पुरानी भारतीय टीवी  की कम्पनियां जैसे वेस्टन , डायोनारा , विडियोकोन  इत्यादि सब डूब गयीं . टाटा  कार भी भारी घाटे  मैं चल रही है . अन्य क्षेत्र भी ऐसे ही लडखडा रहे हैं . इसके लिए सिर्फ भारतीय उद्योगपतियों को दोष देना उचित नहीं होगा . भारत मैं उद्योगों में बहुत कठिनाई है .ऊपर से नीचे तक व्यापक भ्रष्टाचार बिलकुल कम नहीं हुआ है . नए उद्योगों को बहुत तंग किया जाता है . जिओ का उदाहरण लें . इंग्लिश वोडा फोन देश छोडने की कगार पर है. सारी देश की सरकार व् सभी संस्थाएं मानो जिओ के लिए काम कर रही हैं . बाकी कंपनियां क्या करें ? बड़े भारतीय उद्योग पति देश में  प्रतिस्पर्धा खत्म कर ऊँचे लाभ पर  व्यापार करते हैं . इनकम टैक्स, कस्टम , राज्य सरकारें , चुनाव ,सब के सब इन्हीं उद्योगों को दुह कर चल रही हैं . व्यापारी तो टैक्स देते नहीं हैं पर चंदों लेने वालों की लाइन लगी रहती है जो वह टैक्स बचा कर देते हैं . यूनियन बिना उत्पादकता बढाए मजदूरों की तनख्वाह बढ़वाती  रहती है . यह सब भी चल सकता है यदि किसी उत्पादन क्षेत्र मैं हम भी आगे होते जो नहीं है. बांग्लादेश व् विएतनाम ने हमें पारम्परिक कपड़ा उद्योग से भी निकाल सा दिया है .

प्रश्न यह है की यदि आसियान के हर देश के पास दूसरों को कुछ बेचने के लिए है तो देर सवेर वह आर सी पी समझौते को मान जायेंगे . हम इस बाज़ार को खो देंगे क्योंकि हर तरफ चीन का वर्चस्व हो जाएगा . मलेशिया व् इंडोनेशिया के पास तेल व् पाम आयलहै . सिंगापुर तो बहुत आगे है. विएतनाम टेक्सटाइल मैं बहुत आगे हो गया है .इस लिए उनको कुछ लाभ व् कुछ हानी होगी . केवल भारत इकलौता देश है जिसके पास बेचने के लिए कुछ नहीं है . यह देश भारतीयों को अन्दर नहीं आने देना चाहते व् सर्विस सेक्टर मैं भारत को नहीं घुसने दे रहे . हमारी एयरलाइन भी उनका मुकाबला नहीं कर सकतीं . हमारी दवाएं सस्ती हैं पर उनको बड़ी विदेशी कम्पनियां नहीं बिकने दे रहीं .

मोदी सरकार को आसान व्यापार के झूठे आंकड़ों की डींगें  मारने के बजाय भारतीय उद्योगपतियों से मिल कर बात करनी चाहिए और भारतीय  निर्यात की मूलभूत समस्यायों को सुलझाना चाहिए . इस बारे में कुछ प्रयास हो रहे हैं पर वह बहुत कम हैं .बैंक दर कुछ घटी हैं . सड़कें बन रही हैं . इन्टरनेट व्यापक रूप से उपलब्ध है . पर अभी बहुत कुछ करना बाकी है .व्यापार मैं बाबुओं की दखलंदाजी समाप्त करने की बहुत आवश्यकता है.

इन्हीं दुविधाओं के चलते भारत को अधिकाँश अंतर्राष्ट्रीय व्यापार समझौतों से घाटा हुआ है . उदाहरण के लिए आसियान देशों के साथ मुक्त व्यापार समझौते से १९९२ से पहले भारतका आसियान से व्यापार २.९ बिलियन  डॉलर का था जिसमें भारत का निर्यात अधिक था .२००८ मैं यह व्यापार ४७ बिलियन डॉलर का हो गया परन्तु भारत का निर्यात मात्र १७ बिलियन डॉलर था और आयात ३० बिलियन डॉलर .केरल जैसे राज्यों ने एफटी ए का घोर विरोध किया था क्योंकि श्री लंका से सस्ते नारियल व् मलेशिया से सस्ते पाम आयल से केरल के किसानों को ख़तरा था . .२०१८ मैं भारत का आसियान देशों को निर्यात 37 बिलियन  और उनसे आयात ५९ बिलियन डॉलर था  था . यही हालत अन्य अंतर्राष्ट्रीय व्यापार समझौतों की है . हमारे महेंगे  सामान के चलते हर  व्यापार समझौते से हमें घाटा होता है . हमारा काम सॉफ्टवेर के निर्यात  व् विदेशों मैं काम कर रहे भारतीयों के भेजे जाने वाले  रेमितंस से चल रहा है जो देश के लिए अच्छा नहीं है .

देर सवेर आसियान  देश RCEP पर हस्ताक्षर कर देंगे और भारत अकेला पड़  जाएगा . इसलिए देश को निर्यात की मूल भूत समस्यायों को सुलझाना होगा .

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