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Air Indianising Railways : नीम हकीम खतरे जान यदि अंग्रेज़ों की विरासत से छेड़ छाड़ बंद करदें तो अपने आप सुधर जाएगी

Air Indianising Railways : नीम हकीम खतरे जान यदि अंग्रेज़ों की विरासत से छेड़ छाड़ बंद करदें तो अपने आप सुधर जाएगी

Rajiv Upadhyay rp_RKU-150x150.jpg

भारतीय रेल व् भारतीय सेनायें   देश की दो सर्वोत्तम संस्थाएं थीं जिन पर देश को गर्व था।  आज दोनों को राजनितिक छेड़ छड़ ने बर्बाद कर दिया है।  जो लोग सत्तर साल मैं देश को बिना गड्ढे वाली सड़कें नहीं दे सके  और जिन्होंने वायुसेना के लिए हवाई जहाज खरीदने मैं चौदह साल  लगा कर देश की सुरक्षा को खतरे मैं डाल दिया   और जिन्होंने अनेकों भली चंगी चल रही राष्ट्रीय हित की संस्थाओं को लालच मैं या घमंड मैं बर्बाद कर दिया वह  अब भारतीय रेलवे  का अंतिम संस्कार कर दस साल मैं नीलामी व् प्राइवेटाइजेशन की ओर ले जा रहे हैं। याद किया जाय ऐसे ही एयर इंडिया जो अच्छी खासी लाभ मैं चल रही थी. उसे दुगने हवाई जहाज खरीदने के लिए बर्बाद कर दिया था. साल मैं आठ हज़ार करोड़ रूपये कमाने वाली संस्था सात हज़ार करोड़ रूपये का ब्याज लाद  दिया था.पिछली सरकार के लिए     जिसने  कोयला घोटाला या  स्पेक्ट्रम घोटाला को संभव बनाया था. वही लोग अब अपनी कारीगिरी रेलवे को समाप्त करने मैं दिखा रहे हैं।

देश के हितैषियों को व्  चिंतकों को भारतीय रेल का इतिहास पढ़ना चाहिए।  कैसे अंग्रेज़ों ने अनेकों कठिनाईयों के बावजूद रेलवे बनायी थी । नयी रेलें फायदा देने मैं पंद्रह से बीस साल ले लेती हैं।  पैसे इकट्ठा करने के लिए अनेकों प्रयोग किये गए। अधिकाँश मैं अँगरेज़ सरकारों  ने कंपनियों को निवेश पर निम्नतम फायदा सुनिश्चित किया था. जब रेलो का विस्तार  बहुत बढ़ गया तो एक केंद्रीय नियंत्रण की आवश्यकता महसूस हुयी और रेलवे बोर्ड का गठन किया गया । रेलवे को सरकारी संस्थाओं मैं सबसे अग्रणी दर्ज़ा दिया जिससे उनकी समस्याएं शीघ्र हल की जा सकें। रेलवे के जनरल मैनेजर को राज्य के चीफ सेक्रेटरी से बड़ा ओहदा दिया गया।  ऐसे ही चेयरमैन रेलवे बोर्ड को अन्य सेक्रेटरियों से ऊपर ओहदा दिया गया. ऐसे ही सेना प्रमुखों का दर्ज़ा बहुत बड़ा था. रेलवे का बजट अलग रखा गया। स्वतंत्रता के बाद जब तक अंग्रेज़ों की विरासत से छेड़ छाड़ नहीं  की गयी तब तक रेलवे ठीक चलती रही।  परन्तु पहले प्रजातंत्र मैं मंत्री ,एम् पी , एम् ल ए को अनुशासन मैं रखते थे जैसे स्वर्गीय लाल बहादुर शास्त्री ने पंजाब मेल को छोटे से स्टेशन पर रोकने की मांग  को ठुकरा दिया था. परन्तु धीरे धीरे सब बदल गया।  रेलमंत्री जनता के दबाब मैं आने लगेऔर अन्य विभागों की तरह रेलवे मैं भी लोक लुभावन नीतियों को बढ़ावा दिया जाने लगा। इस में कोई गलती नहीं है परन्तु व्यापरिक संस्थान लोक लुभावन नीतियों से नहीं चलाये जा सकते। सरकार जान बूझ कर इससे अनजान बनी  रहीं।

मुंबई व् कलकत्ता की लोकल गाड़ियों  के किराए वर्षों नहीं बढाए गए जब की बस के किराए बढ़ते रहे। मंत्री व् एम् पी के घरों तक नयी  रेल बनायी जाने लगी। जब की रेल तन्ख्वाओं कम करने की जंग मैं थी तब राजनीती वश   गैर जरूरी पद हज़ारों मैं भरे जाने लगे। जब उच्च स्तरीय चुनावी भर्ष्टाचार और बढ़ा तो बड़े बड़े गैर ज़रूरी प्रोजेक्ट कमीशन के लिए दिए जाने लगे। बड़े बड़े सरकारी  खर्च सबकी मात्र आमदनी का जरिया बन गये . ‘बढ़िया अफसर वही जो पैसा बनवाये ‘ ही संस्था का मूल मन्त्र बन गया.

परन्तु सबसे बड़ा झटका मिली जुली सरकारों  के समय मैं लगा।  रेल की स्वायत्ता सबको दलों को खटकने लगी। रेल मंत्रालय सब का सपना बन गया और मुख्य मंत्री बनने का एक जरूरी पड़ाव बन गया.  ऐसे मैं दुसरे बाहरी विभागों के अफसरों को रेलवे मैं दखलंदाज़ी करने का मौक़ा मिल गया।  रेल मंत्रालय का  प्रधान मंत्री कार्यालय , योजना आयोग व् वित्त मंत्रालय अवमूल्यन शुरू हो गया। रेल को नयी लाइन बनाने के लिए अनुदान मिलना बंद सा हो गया. जो अफसर राज्य व् केंद्र सरकारों कभी जिला अस्पताल नहीं चला सके व् राज्यों की सड़कों  के गड्ढे नहीं भरवा  सके वह प्रधान मंत्री के सामीप्य से रेलवे के सुधार पर भाषण देने लगे और प्रधान मंत्री के पास होने का अनुचित लाभ उठाने लगे। बाहरी अफसरों की जलन ने रेलवे का अवमूल्यन चालु रखा ठीक वैसे ही जैसा उन्होंने जनरल वी के सिंह की सैन्य क्रांति की झूठी खबर फैला कर किया था। जनरल  वी के सिंह तो बच गए पर दो नेवी प्रमुखों की नौकरी चली गयी। ऐसे ही रेलवे मैं हुआ.

रेलवे प्रबंधन की भी बहुत गलतियां थीं।  बहुत सालों तक वह माल गाड़ियों को प्रमुखता देने की वकालत करते रहे जिससे रेल मंत्री गुस्सा होते रहे।  दोनों अपनी जगह ठीक थे।  आय तो मालगाड़ियों से होती थी पर जनता सवारी गाड़ी चाहती थी। अंत मैं अफसरों पर मंत्रियों की ही जीत होती है जो की प्रजातंत्र के लिए आवश्यक भी है। पर इसके चलते मॉल गाड़ियों के किराए बढ़ते रहे।  धीरे धीरे पाइप लाईनों ने तेल को ट्रैफिक को समाप्त कर दिया।  इसी तरह सीमेंट व् चीनी बाहर हो गए।  मुग़ल सराय  जंक्शन की चोरियों ने मंहगे सामान को रेलवे से बाहर कर दिया। रेलवे सिर्फ खाद्यान्न ,स्टील व् कोयले की आय पर सीमित हो गयी। जबसे कोयला खदानों के पास सुपर पावर स्टेशन  बनने लगे तो कोयले का ट्रैफिक भी कम होने लगा. तिस पर रेलवे के स्टाफ का मालिकाना अंदाज़ भी लोगों को बहुत चुभने लगा. लोग रेलवे के बजाय सड़क पर चले गए जहां ड्राइवर उन्हें सलाम भी करता था. परन्तु स्वार्थ ने रेलवे स्टाफ को अपना रवैय्या नहीं बदलने दिया।बाबूशाही सर्वव्याप्त हो गयी।

परन्तु इन सबके बावजूद यदि रेलवे लाभ देने वाली संस्था बनी रही इसका  श्रेय दो चीज़ों को जाता है. नयी रोलिंग स्टॉक टेक्नोलॉजी ने एक सवारी गाड़ी की कोच संख्या जो १९४७ मैं आठ थी  बढ़ा कर चौबीस कर दी और मॉल गाड़ी मैं लादने की क्षमता १५०० टन से बढ़ा कर ४५०० टन कर दी.  । देश को रेलवे इंजिन , कोच व् वैगन बनाने मैं स्वाबलंबी बना दिया जिससे साठ  व् सत्तर के दशक मैं विदेशी मुद्रा की  कमी रेलवे की प्रगति मैं बाधा  नहीं बनी. दूसरा अत्यंत प्रमुख निर्णय छोटे वेगनों के बजाय पूरी रेक लोडिंग का था।  इससे माल गाड़ियों के समय मैं बहुत कमी हो गयी जिससे जल्दी ढूलाई होने लगी। । इन दो परिवर्तन ने रेलवे की आय को सत्तर से नब्बे तक के दशकों  मैं अक्षुण्य रखा। मनमोहन काल मैं देश की आर्थिक प्रगति ने कोयले , खाद्यान व् अन्य ट्रैफिक को बहुत प्रोत्साहन दिया।आर्थिक प्रगति की कमी से रेलवे भी अछूती नहीं रही.

परन्तु रेलवे की बड़ी मुश्किलें  छठे पे  कमीशन से शुरू हुईं। बोनस व् वेतन का बोझ बहुत था।  अब टेक्नोलॉजी मैं प्रगति नहीं हो रही थी। छोटी लाइन खत्म कर अनेक रूट पर भरी गाड़ियां चलने से कुछ आराम मिला पर आय की कमी की समस्या अब सुलझ नहीं पा रही थी। जब तक कुछ हालत ठीक हुयी तब तक सांतवां पे कमीशन आ गया. अब तो रेलवे के हाथ पाँव फूलने लगे।  बजाय समस्या को समझ कर सुलझाने के सरकार ने कर्ज़ों के आसान रास्ते को चुनने ने समस्या को और गंभीर बना दिया। महंगे ब्याज पर कर्ज़े लेकर गैर ज़रूरी लाइनें बिछाने की मुहीम मैं पिछले पांच वर्षों मैं तो बहुत नुक्सान दिया। ऐसे ही अन्य प्रोजेक्ट हैं जिनमें आय तो नहीं सिर्फ खर्चे ही हैं।  भारी क़र्ज़ तले रैल की   बधिया को बैठना था ही सो बैठ गयी। अब पछताए क्या होता जब चिड़िया चुग गयी खेत !अच्छी सड़कों के बनने से भी रेल को बहुत कॉम्पिटिशन मिल रहा है ।

पहले जब तक रेलवे का बजट अलग था यह संभव नहीं था. रेलवे का बजट समाप्त करना एक बहुत गलत कदम था जिसका खामियाज़ा हम अब भुगत रहे हैं।  अब यदि रेलवे के पारम्परिक बोर्ड से छेड़  छाड़  की तो बहुत घातक होगा। यह प्राइवेट सेक्टर को जादू की छड़ी समझने वालों को रेलवे का कुछ भी ज्ञान नहीं है. सिर्फ अंधा बांटे  रेवड़ी मुड़  मुड़  अपने को दे  हो रहा है. हम जितना पुराना अंग्रेज़ों का सिस्टम लाएंगे उतना ही रेलवे को बचा पाएंगे।  सिर्फ कुछ अनुदान की राशि बढ़ानी पड़  सकती है और नए प्रोजेक्ट राष्ट्रीय खर्चे से लगाने होंगे। आय बढ़ाने के लिए रेलवे को पोर्ट व् कंटेनर ट्रैफिक को दो  गुना बढ़ाना होगा।इसके लिए जो भी निवेश करना हो उसे तुरंत किया जाय. नयी फ्रेट कॉरिडोर पर दुगनी लम्बाई की गाड़ी चलानी होगी जिससे उत्पादकता बढ़ सके। कॉन्ट्रैक्ट लेबर को दुबारा रखना पड़  सकता है। मुख्यतः रेल मंत्री को टीवी पर  आने की ललक से बचना होगा।  अच्छा हो रेलवे मंत्री का पद दस साल के लिए किसी राजनितिक मंत्री को  न दिया जाय और रेल मंत्री को प्रधान मंत्री कार्यालय के दोषपूर्ण  प्रभाव से मुक्त रखा जाय।

यह समाधान बुरा लग सकता है परन्तु एयर इंडिया की तरह भविष्य मैं भारतीय  रेलवे बेचने से तो ज्यादा अच्छा समाधान है। आशा है की प्रधान मंत्री इस पर कोई बड़ा निर्णय लेने से पहले विचार करेंगे।

 

 

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