India & Iran : The Unfulfilled Potential : भारत व् ईरान, क्यों पास रह कर भी बहुत दूर- बहुत दूर रहे !
Rajiv Upadhyay
जब भी भारत से कोई नेता ईरान जाता है या वहां से कोई बड़ा नेता भारत आता है तो हमारे सदियों के पारम्परिक रिश्तों को याद कर उनको अक्षुण्य रख और प्रगाढ़ करने की बात दोहराई जाती है। दोनों देश हज़ारों साल की संस्कृति वाले देश हैं। परन्तु यदि हम पिछले पचास साल के इतिहास को देखें तो यह स्पष्ट है की बहुत सफलताओं के बावजूद इन रिश्तों के पूरी क्षमता का विकास नहीं हो पाया। बल्कि कभी कभी तो रिश्तों की सीमित सफलताओं के बीच इस सवाल को भी पूछा जा रहा है की क्या ईरान किसी का एक विश्वसनीय मित्र हो भी सकता है या आज की तारीख मैं क्या ईरान का कोई सच्चा मित्र देश भी है ।
इन सवालों के उत्तर से पहले संबंधों की कुछ उपलब्धियों व् अच्छाइयों को जान लें। ईरान भारत का दूसरे नंबर का तेल सप्लायर थाऔर अमरीकी प्रतिबंधों से पहले सन २०१८ मैं हमने ईरान से लगभग २० मिलीयन टन तेल का आयात किया। ईरान हमें कुछ सस्ता व् आसान शर्तों पर तेल बेचता था. भारत ईरान के तेल उत्पादन का चीन के बाद सबसे बड़ा खरीददार था। भारत व् ईरान ने सन २००२ में एक रक्षा समझौता भी किया था। इसके अनुसार भारत युद्ध मैं ईरान मैं अपने युद्ध पोत ,टैंक , हवाई जहाज इत्यादि का रख रखाव कर सकता था. यह एक बहुत बड़ी उपलब्धि थी। वर्तमान काल मैं भारत को ईरान ने अपना एक बंदरगाह चाबहार विकसीत कर उपयोग के लिए दे दिया है। इसका भारत के लिए बहुत सामरिक महत्व है । इससे भारत को पाकिस्तान को बिना बीच मैं लाये अफगानिस्तान व् उसके आगे के देशों को सामान भेजने की राह मिल जाती है। अफगानिस्तान के लिए तो यह और भी महत्वपूर्ण है। अब तक पाकिस्तान उसका शोषण करता था क्योंकि अफगानिस्तान के पास कराची बंदरगाह के अलावा सामान आयात करने के अलावा कोई और रास्ता नहीं था. भारत व् ईरान ने एक झटके मैं अफगानिस्तान को पाकिस्तान की गुलामी से मुक्त कर दिया।ईरान भारत व् अमरीका की तरह अफगानिस्तान में अशरफ घनी की सरकार का समर्थन करता है और तालीबान का विरोधी है।
ईरान के लिए भी भारत की मित्रता बहुत उपयोगी रही। चाबहार बंदरगाह मैं भारत बहुत बड़ा निवेश करेगा और ईरान की सस्ती प्राकृतिक गैस से उर्वरक बना कर सस्ते दाम मैं आयात करेगा। इस सौदे मैं दोनों देशों को बहुत लाभ होगा। जब पिछली बार अमरीका ने ईरान पर प्रतिबन्ध लगाए तो भारत ने अमरीका को मना कर ईरानी तेल का आयात चालु रखा जिससे ईरान को कठिन समय मैं बहुत राहत मिली।
परन्तु इन सब उपलब्धियों के बावजूद भी भारत कभी भी पूरी तरह ईरान पर विश्वास नहीं कर पाया। ईरान के तत्कालीन राष्ट्रपति अयातोल्लाह खामेंनी ने मोदी जी यात्रा के ठीक पहले भी कश्मीर की स्वायत्ता की वकालत की सदा की नीति है जो भारत को अच्छी नहीं लगती। १९६५ की लड़ाई मैं तो ईरान के शाह ने पाकिस्तान की सैन्य मदद भी की थी। भारत भी ईरान के परमाणु प्रोग्राम को कभी नहीं उचित मानता व् वोटिंग मैं अमरीका के साथ रहता है। यह ईरान को बुरा लगता है. भारत के इस्राइल के साथ बहुत प्रगाढ़ सम्बन्ध हो गए हैं जो ईरान को बहुत बुरा लगता है. इसी तरह भारत सऊदी अरब का भी मित्र है जो अपने को इस्लामिक समुदाय का नेता व् ईरान को शत्रु मानता है। ईरान बहुत पुरानी व् विकसित सभ्यता है और अपने को अरब लोगों से अधिक उन्नत मानता है।
रक्षा मामलों तो यह रिश्ता तब भी सही हैं , परन्तु ईरान परस्पर व्यापार के लिए बिलकुल भी विश्वसनीय नहीं है। वह अपने हितों को अंतर्राष्ट्रीय सिद्धांतों से अधिक अत्यधिक महत्व देता है और व्यापार के वचनों व् करारों को करने के बाद भी इकतरफा तोड़ देता है जो अंतरराष्ट्रीय मानकों मैं उचित नहीं है। इस का एक उदाहरण कुद्रेमुख लॉह अयस्क परियोजना थी। इसमें भारत की लोह अयस्क (ओर) को पाइप से लेजा कर पेलट बनाने थे जिनका उपयोग ईरान मैं स्टील बनाने के लिए किया जाना था। परियोजना के शुरू होने के बाद ईरान इससे मुकर गया और भारत को इससे अयस्क (ओर)बेचने मैं बहुत कठिनाई हुई. इसी तरह इससे भी बुरा उदाहरण फरजान गैस भण्डार का है। भारत की ओ एन जी सी कंपनी ने बहुत पैसे और परिश्रम से ईरान मैं फरजान गैस भण्डार खोजा। अंतराष्ट्रीय व्यवहार है की जो कंपनी तेल या गैस के भण्डार खोजती है उसे उस का लाभ मिलता है और गैस व् तेल मैं बड़ा हिस्सा मिलता है। ईरान ने इस भण्डार के मिलने के बाद ओ एन जी सी को धोखा दे कर इतने ज्यादा निवेश की मांग की की उसके बाद कोई लाभ नहीं मिलता। अंत मैं ईरान ने रूस को भारत द्वारा खोजी गयी परियोजना दे देने की धमकी दी। भारत ने ईरान का जो कठिन समय मैं साथ दिया था ईरान ने उसे स्थिति ठीक होते ही भुला दिया। मतलबी यार किसके दम लगाया खिसके !अब भी इस विवाद का अंत नहीं हुआ है। भारत भी ईरान पाकिस्तान पाइप लाइन से बाहर हो गया। पाकिस्तान भी इस का अब भागीदार नहीं है। ईरान ने पकिस्तान की सीमा तक पाइप लाइन बिछा दी है और अब वह पैसा बेकार है। इसमें उसका बहुत नुक्सान हो गया. भारत मैं चीन की तरह अमेरिका से टक्कर लेने की क्षमता नहीं है। और ईरान ने भी ऐसा कोई काम नहीं किया है जिसके लिए भारत अमरीका से लडे। भारत को चीन से रक्षा के लिए अमरीका की जरूरत है।इसलिए भारत अमरीका का साथ नहीं छोड़ेगा यद्यपि सब जानते हैं कि अमरीका कभी किसी का मित्र नहीं हो सकता है। रूस को भारत को देने बहुत कम बचा है। इस लिए उसका का महत्त्व घट गया है। ईरान को अमरीका के विरुद्ध रूस व् चीन की आवश्यकता है . इसलिए वह चीन से शत्रुता नहीं लेगा। परन्तु वह भारत को चाबहार चीन को देने की धमकी देता रहता है।
दूसरी बात है की ईरान मध्य एशिया की राजनीती मैं बहुत दखल देता है। वह अपने को मध्य एशिया की ताकत मानता है और पश्चिम व् इस्राईल की नाक मैं दम करे रहता है। लेबनॉन , फिलिस्तीन इत्यादी मैं गुटों को हथियार बांटता रहता है। हालाँकि अमरीका भी इसमें कोई पीछे नहीं है न ही वह दूध का धुला है। .ईरान सारे विश्व मैं अपनी अतिवादी इस्लामी विचारधारा के प्रसार के लिए लिए पैसा खर्चता रहता है हालंकि यह काम सऊदी अरब भी करता है। इसके अपने दुष्परिणाम हैं। परन्तु भारत मैं ईरान का प्रभाव सकरात्मक ही रहा है परन्तु अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर ईरान का समर्थन करना मुश्किल हो जाता है ईरान ने भी प्रतिबंधों के हटने के बाद भारत को बहुत धोखा दिया। हमारी सभी झेली गयी मुश्किलों को नजरअंदाज कर दिया और पैसा आते ही यूरोप से दोस्ती की पींगें बढ़ाने लगा जब तक ट्रम्प ने फिर से उसकी दुर्गति कर दी। अब भारत उसके लिए कोई खतरा नहीं लेना चाहता।
तो पूरे परिपेक्ष मैं यद्यपि भारत व् ईरान की मित्रता के दोनों के लिए बहुत अच्छे परिणाम आये परन्तु यह दोस्ती इतनी प्रगाढ़ नहीं हो सकी जितना इसे होना चाहिए। इसका कारण ईरान के व्यवहार मैं विश्वसनीयता की कमी है और कुछ विचारधारा का टकराव भी है । परन्तु भविष्य मैं इसके सुधरने की संभावना भी है इस लिए मित्रता बचा कर रखना ही श्रेष्ठ है।
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