5:32 pm - Saturday November 25, 0141

प्राचीन भारत मैं खाद्य सुरक्षा व् भविष्य की उपयोगिता

प्राचीन भारतीय सतत्‌ कृषि की अवधारणा: भविष्य की खाद्य-सुरक्षा का मार्ग
अंकित अग्रवाल,
रिसर्च एसोसिएट,
भारतीय पुरातत्व परिषद, नई दिल्ली

wheat crop
भौतिकवादी मानव द्वारा तीव्र विकास हेतु प्राकृतिक संसाधनो के अंधाधुंध दोहन से पारिस्थितिकी परिवर्तन, ग्रीन हाउस प्रभाव जैसी अनेकों गंभीर समस्याएं उत्पन्न हो गयी हैं, जो मानव जीवन तथा उसकी आवश्यकताओं पर भी दुष्प्रभाव डाल रही है। हमारे कृषक फसल की सुरक्षा एवं अधिकाधिक उपज प्राप्ति हेतु कीटनाशकों, रासायनिक उर्वरकों इत्यादि का प्रयोग कर रहे हैं, जो भू-उर्वरकता तथा मानव शरीर दोनों के लिए अत्यन्त हानिकारक है। मानव भविष्य को सुरक्षित रखने हेतु हमें विकास का एक ऐसा मार्ग चुनना होगा, जो बढ़ती मानवीय आवश्यकताओ की पूर्ति के साथ-साथ हमारे भविष्य को भी सुरक्षित रख सके। इस हेतु मानव को प्राकृतिक संसाधनो के साथ सामंजस्य स्थापित कर सतत्‌ विकास के मार्ग को चुनना होगा। हमारे पुर्वजों ने कई युगों के अथक प्रयास के बाद कृषि हेतु ऐसी ही परिकल्पना खोजी थी, जो प्राचीन भारतीय कृषि व्यवस्था में स्पष्टत: द्रष्टव्य होती है। इस अवधारणा को आत्मसात करने हेतु उसके आधार, उदभव एवं विकास-क्रम को समझना आवश्यक है।
कृषि का प्रारम्भिक विकास:
प्रारंभिक मानव शिकार, खाद्य-संग्रहण तथा समुद्री संसाधनों के दोहन के द्वारा अपनी खाद्य-आवश्यकता की पूर्ति करते थे तथा खाद्य-पदार्थो की खोज मे एक स्थान से दुसरे स्थान पर घुमते रहते थे। भारतीय आर्थिक जीवन में नवपाषाणकाल के प्रारम्भ में मौलिक क्रांन्ति हुई, जब खाद्य-संग्रहक मानव खाद्य-उत्पादन की ओर अग्रसरित होने लगा। पुरातत्ववेत्ता गार्डन चाईल्ड द्वारा इसे नवपाषाणकालीन क्रांन्ति के रूप में वर्णित करना ही कृषि की महत्ता को दर्शाता हैं। भारतीय उपमहाद्वीप में कृषि का सर्वप्रथम पुरातात्विक साक्ष्य हमें मेहरगढ़ से 8000-6000 ई0पू0 काल में प्राप्त होता है। इस चरण में मानव ने अपनी खाद्य-आवश्यकता पूर्ति के साथ ही उत्पादन तकनीक को समझना तथा इन्हें अगली पीढ़ी को हस्तांतरित करना भी प्रारम्भ कर दिया।
धिरे-धिरे मानव जनसंख्या तथा उसकी खाद्य-आवश्यकता में पुन: वृद्धि होने लगी। बढ़ती जनसंख्या की आवश्यकता-पूर्ति हेतु भारतीय उपमहाद्वीप के विद्वानों ने सामुहिक कृषि पर बल दिया। मध्य गंगा के मैदान विशेषत: लहुरादेवा, महागढ़, अतरंजीखेड़ा, कोल्डीहवा इत्यादि से प्राप्त पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर भारतीय उपमहाद्वीप में कृषि के प्रारम्भिक विकास को सिन्धु सभ्यता से पूर्व माना जा सकता है। बी. बी. लाल एवं बी. के. थापर को सिन्धु सभ्यताकालिन स्थल कालीबंगा से 2800 ई0पू0 काल से संबद्ध जुते हुए खेत का प्रमाण मिला, जो तत्कालिन तकनिकी विकास को दर्शाता है।
सतत्‌ कृषि व्यवस्था का उदभव:
ताम्रपाषाणिक एवं सिन्धु संस्कृति के कृषकों द्वारा सूत कताई व सूती वस्त्र बुने जाने के साक्ष्य तत्कालिन कृषक की उन्नत तकनीक तथा नवीन कृषि उत्पादों के ज्ञान का द्योतक है। उन्नत तकनीक से उत्पन्न अधिशेष उत्पादन को हमारे पूर्वजों ने मानव कल्याणार्थ उन क्षेत्रों तक पहुँचाया, जहाँ कृषि उत्पादन मानवीय आवश्यकता से कम था। अब कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण आधार के रुप में स्थापित का विस्तार किया। 2000 ई0पू0 काल तक गंगा के मैदानी क्षेत्रों के साथ साथ दक्षिण भारत में भी कृषि का प्रारम्भिक विकास हो चुका था।
वैदिककाल में भूमि, पानी तथा श्रम को कृषि के महत्वपूर्ण कारक के रुप में स्थापित किया गया। वैदिक ग्रन्थों में कृषि प्रणाली, सिंचाई संसाधनों तथा कृषि उपकरण इत्यादि का वर्णन नवीन कृषि तकनीकों की खोज का द्योतक है। आयुर्वेद की समग्र चिकित्सा प्रणाली में बरगद एवं पीपल जैसे वृक्षों के रोपण एवं पूजा तथा कुछ अन्य पौधों का उल्लेख वैदिककालीन विद्वानों के वन्य-सम्पदा का औषधीय लाभ समझकर उसका मानव हितार्थ प्रयोग करने के दृष्टिकोण को स्पष्ट करता है।
तत्कालीन विद्वानों ने विभिन्न क्षेत्रों के ज्ञान को ग्रन्थ रुप में संकलित करना प्रारम्भ किया। यह परंपरा उत्तर वैदिक काल में भी निरन्तर बनी रही, जिससे मानव ज्ञान में स्थायी वृद्धि हुई। संहिताओ एवं ब्राहण ग्रन्थों में बताये गये कृषि संबद्ध विभिन्न उपायो यथा भूमि को कृषि का आधार तत्व मानना, भू-उर्वरता में वृद्धि हेतु गाय के गोबर का प्रयोग इत्यादि के द्वारा तत्कालीन कृषकों ने सतत्‌ कृषि की अवधारणा को विकसित किया। लौह प्रौद्योगिकी का प्रचुर प्रयोग भी उस समय की प्रमुख उपलब्धि थी। यद्यपि लौह प्रौद्योगिकी का अविष्कार पूर्व काल में ही हो चुका था, तथापि इसका व्यापक स्तर पर कृषि में प्रयोग उत्तर वैदिक काल से ही प्रारम्भ हुआ। हल में लोहे का फाल लगाने से कृषक कठोर भूमि पर भी सरलता से कृषि का विस्तार कर पाये।
सतत्‌ कृषि व्यवस्था का विकास:
600 ई0पू0 काल में उदित जैन एवं बौद्ध जैसे नवीन धार्मिक दर्शनो ने भी सतत्‌ कृषि व्यवस्था का समर्थन किया। पाली साहित्य में वर्णित प्रकृति आधारित भू-विभाजन, खेती-योग्य भूमि के गुण इत्यादि विषय वैज्ञानिक आधार पर भूमि के वर्गीकरण को बताते हैं। निरंतर बढ़ती जनसंख्या एवं उनकी आवश्यकता-पूर्ति हेतु विद्वानों ने कृषि के दो महत्वपूर्ण आयामों ‘प्राकृतिक स्रोत’ तथा ‘शक्ति’ में सामंजस्य बनाने पर बल दिया। इस हेतु कृषि में मानव शक्ति का सीमांत उपयोग किया जाने लगा। बड़े कृषक अपनी श्रम शक्ति से अधिक कृषि भूमि को उत्पादन के हिस्से के आधार पर उन कृषको को देने लगे, जिनके पास अपनी क्षमता से कम भूमि थी। इस प्रणाली ने कृषि के विस्तार तथा भूमिहीन किसानों के आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान किया।
मौर्यकाल में भूमि को कृषि के साथ-साथ ‘अर्थ’ का भी मूलाधार माना जाने लगा। इस काल में शोधी विद्वानों ने मिट्‌टी के आधार पर भूमि को वर्गीकृत किया तथा मौसम विज्ञान के अनुरुप उस पर कृषि कर विज्ञान से सामंजस्य स्थापित किया। तत्कालिन भारत मे प्रत्येक वर्ष दो बार वर्षा तथा तदानुरुप दो उपज होती थी। समकालीन युनानी यात्री मेगस्थनीज ने अपनी पुस्तक ‘इंडिका’ में भारतीय कृषि एवं कृषक के संदर्भ में जो लिखा है, उससे तत्कालीन कृषक की उन्नत स्थिति तथा कृषि आधारित विकसित अर्थव्यवस्था के संकेत मिलते है।
उत्तर मौर्यकाल में कृषि का वैज्ञानिक एवं तकनीकी विकास दक्षिण भारत में भी द्रष्टव्य होने लगा। कृष्णा नदी पर बनाया गया कल्लनी(1-2 शताब्दी ई0) बाँध तथा प्रथम दो शताब्दियों में कृष्णा तथा गोदावरी के डेल्टा क्षेत्र में धान के पौधों का प्रत्यारोपण होने के साक्ष्य इस विकास के द्योतक है। इस विकास से उत्पन्न अधिशेष उत्पादन को कुषाण जैसे तत्कालीन शासकों ने संसार के अन्य भागों तक पहुँचाने में महत्वपूर्ण सहयोग दिया, जिससे तत्कालीन कृषि अर्थव्यवस्था ओर अधिक मजबूत हो गयी।
सतत्‌ कृषि व्यवस्था की अवधारणा का परिपक्वता काल:
गुप्तकाल में सतत्‌ कृषि अर्थव्यवस्था का आधार बन गयी थी। निरंतर विकास तथा भविष्य की सुरक्षा हेतु तत्कालीन कृषकों ने भूमि को वैज्ञानिक आधारों यथा गुण, फसल तथा बीज परिमाण इत्यादि के आधार पर वर्गीकृत किया। जहाँ अमरकोश में वर्णित गुण आधारित भू-विभाजन से भू-चयन सरल हो गया, वही महाभाष्य में वर्णित फसल आधारित करना तथा बीज परिमाण के आधार पर विभाजन से भूमि की उर्वरकता की पहचान करना संभव हो सका। कृषि योग्य भूमि की पहचान कर उसे मात्र कृषि हेतु आरक्षित किया गया। भू-उर्वरता को सुरक्षित रखने हेतु कृषक खेत को दो या अधिक बार जोतता था। जुताई के बाद भू-आर्द्रता के संरक्षण के लिए खेत की मिट्‌टी को काष्ठ द्वारा समतल किया जाता था। वराहमिहिर द्वारा एक पेड़ की कलम दूसरे पेड़ पर लगाने, पेड़ों के मध्य दूरी, मौसम अनुरूप सिंचन जैसे तकनीकी विषयों का विस्तृत वर्णन किया जाना भी कृषि में वैज्ञानिकता के समावेश का परिचायक है।
सतत्‌ कृषि के लक्ष्य की प्राप्ति हेतु तत्कालीन समाज श्रम-शक्ति के महत्व को भी स्वीकार करता था। इस काल में कृषक हेतु सहयोगपूर्ण वातावरण बनाना राज्य का दायित्व था। राज्य परिश्रमी कृषकों को पुरस्कार तथा कृषि को क्षति पहुँचाने वालो को दण्ड देता था। कृषि विकास में कृषक की आर्थिक समस्या बाधा न बने, इस हेतु राज्य कृषि आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु ऋण देता था। कृषकों की अल्पकालिक कृषि आवश्यकता हेतु साहूकार भी ऋण देते थे। राज्य ध्यान रखता था कि कृषि कार्यों के समय साहूकार ऋण वापसी का अनावश्यक दबाव न बना सके। इस वातावरण में कृषक अपनी शक्ति का अधिकतम्‌ संभव उपयोग कर सीमांत उपज प्राप्त करता था।
इस काल में श्रम संसाधन के रूप में बैलों का कृषि में सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान था। जिस व्यत्ति के घर में हल, बछड़ा तथा बैल होते थे, उसे सम्पन्न माना जाता था। कृषक बैलों की क्षमता का भी सीमांत उपयोग करते थे, इसी कारण दोनों कार्य यथा हल चलाने तथा गाड़ी खींचने में प्रयुक्त ‘गो’ को समाज में आदर्श माना जाता था। सभवत: वृद्ध बैल ‘बलिवर्द’ का कृषि कार्यों में प्रयोग नहीं होता था। यह तत्कालीन कृषक की नैतिकता के साथ-साथ कृषि में उत्तम संसाधनों के प्रयोग के दृष्टिकोण को भी दर्शाता है। उपजाऊ भूमि तथा शक्ति के सीमांत उपयोग के साथ-साथ कृषि उपकरणों का कृषक समृद्धता से सिधा संबंध स्थापित कर उनके कृषि में महत्व को भी स्वीकार किया गया था। तत्कालीन ग्रन्थों में कृषि उपकरणों के पर्यायवाची शब्द तथा हलों की बनावट इत्यादि तथ्यों का सुक्ष्म विश्लेषण कृषि के तकनीकी विकास को स्पष्ट करता है।
तत्कालीन कृषक विभिन्न क्षेत्रों में प्राकृतिक तत्वों के आधार पर भिन्न-भिन्न फसल उगाते थे। मलय पहाड़ियों में काली मिर्च, कश्मीर में केसर, उत्तर-पश्चिम प्रदेशों में गेहूँ तथा मगध में चावल मुख्यत: पैदा किया जाता था। कृषक अच्छी फसल प्राप्ति हेतु मौसम अनुरूप खेती तथा सिंचन करते थे। मौसम के साथ सामंजस्य से वर्षा-चक्र अधिकांशत: कृषि के अनुकूल रहता था। वर्षा के जल का सीमांत उपयोग करने हेतु धान जैसी वर्षा आधारित फसलों को नदी के समीप अथवा उच्च स्थान पर लगाया जाता था। अफसद शिलालेख कृत्रिम सिंचाई संसाधनों के उपयोग का वर्णन करता है, जिसका निर्माण समाज के पारस्परिक सहयोग से होता था। समकालीन अभिलेखों में शासकों द्वारा झीलों की मरम्मत तथा नहर निकलवाने के उल्लेख मिलते है, जो सिंचाई संसाधनों के विकास के राजकीय प्रयासों को दर्शाता हैं। सिंचाई संसाधनों का सीमांत उपयोग करने हेतु कृषक भी अपने विभाजित क्षेत्र के चारो ओर आड़िया तथा पानी हेतु छोटी-छोटी नालियाँ बनाते थे।
इस काल में कृषि के हर संभव लाभ को प्रोत्साहित किया जाता था। समाज पर्यावरण को मानव अनुरुप बनाये रखने मे वृक्षों की महत्ता को जानता था तथा वृक्षारोपण को प्रोत्साहित करता था। समकालीन विद्वान जानते थे कि मानव ऐसे वृक्षों के रोपण में ध्यान नहीं देगा, जो उसे प्रत्यक्ष लाभ न दे। अत: उन्होने पर्यावरण हेतु लाभप्रद परन्तु प्रत्यक्ष लाभ न देने वाले वृक्षों को धार्मिक अवधारणाओ से जोड़ दिया। धार्मिक ग्रन्थों में पीपल जैसे मंगलमय वृक्षों के रोपण का निर्देश दिया जाना इसकी पुष्टि करता है। वृहत्संहिता में पेड़ों की चिकित्सा पर एक अलग परिच्छेद हैं, जिससे तत्कालीन समाज की पेड़-पौधे के प्रति सजगता का परिचय मिलता है।
गुप्तकालीन विद्वान जानते थे कि उपज सुरक्षा भी अच्छी फसल प्राप्ति हेतु आवश्यक कारक है। अतएव उन्होनें कृषि उपज सुरक्षा हेतु व्यत्तिगत, सामाजिक व राजकीय स्तरों पर उत्तरदायित्व विभाजन की परिकल्पना स्थापित की। कृषक व्यत्तिगत स्तर पर कृषि उपज को पशु-पक्षियों से बचाने का प्रयास करता था। इस हेतु कृषक खेतों के चतुर्दिक जल से भरी हुई गहरी खाईयाँ खोदते, खेतो में मानव पुतलों का प्रयोग करते तथा खेतों में प्राय: लड़कियां गोफन लेकर इक्षु (गन्ना) की मेड़ पर बैठती थी। राज्य मानव से कृषि को होने वाली हानि को रोकने के लिए उत्तरदायी था। भू-स्वामियों द्वारा फसल की सुरक्षा हेतु सड़क की ओर से खेत में बाड़ लगाई जाती थी। बाड़युत्त खेत में पशुओं से फसल को हानि हो, तो गोपालक उसकी क्षतिपूर्ति के लिए जिम्मेदार होता था। गोपालक कृषक को क्षतिपूर्ति न दे, तो राज्य उसे वसूल करवाता था। मनु तथा याज्ञवल्क्य जैसे विद्वानों ने कृषि के विकास हेतु सामाजिक विधानों भी बनाये थे।
तत्कालीन ग्रन्थों में उड़द तथा तिल जैसे दो धान्यों को मिलाकर बोने का वर्णन मिलता है, जो तत्कालीन कृषक द्वारा कृषि में वैज्ञानिकता के अत्यांत सरल समावेश को दर्शाता हैं। कृषक द्वारा अधिक सिंचाई आवश्यकता वाली फसल को नदियों व नहरों के समीप बोया जाना तथा कालिदास द्वारा वर्णित धान के विभिन्न प्रकार यथा शालि, कलम, निवार तथा श्यामक भी उपरोत्त दृष्टिकोण की पुष्टि करते है। भूमि, प्राकृतिक संसाधनों एवं श्रम के सिमांत उपयोग, कृषि में वैज्ञानिकता के सरल समावेश, कृषि उपकरणों के तकनीकी विकास तथा समाज के सभी पक्षों द्वारा दायित्व निर्वहन इत्यादि तत्वो का सन्तुलित समंवय प्राचीन भारतीय कृषि व्यवस्था में स्पष्टत: दृष्टवय होता है, जिसके परिणामस्वरूप सतत्‌ कृषि की अवधारणा अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच गयी।
उपसंहार:
संहिता काल में उत्पन्न एवं जैन व बौद्ध जैसे नवीन धर्मो से समर्थित सतत्‌ कृषि की अवधारणा का भिन्न-भिन्न कालों में निरंतर विकास हुआ। जहाँ मौर्य काल में कृषि एवं वैज्ञानिक सिद्धान्तों का सुन्दर समंवय दृष्टवय होता है, वही उत्तर-मौर्य काल में दक्षिण भारत में भी सतत्‌ कृषि की अवधारणा परिपक्व हो गयी। गुप्तकालीन समाज ने कृषि संबद्ध तथ्यो को समझा तथा उनके अनुरूप खेती को प्रोत्साहित किया। समाज के सभी पक्षों के द्वारा दायित्वों के निर्वहन तथा आपसी सामंजस्य ने कृषि-अधिशेष एवं कृषि संबद्ध उद्योगों को बल प्रदान किया। अधिशेष उत्पादन को हमारे पुर्वजों ने सर्वे भवन्तु सुखिन: जैसे सिद्धान्तों से प्रेरित होकर अन्य क्षेत्रों की आवश्यकता-पूर्ति हेतु निर्यात किया। जिसके परिणामस्वरुप तत्कालीन अर्थव्यवस्था का तीव्र विकास प्रारम्भ हो गया तथा कृषि तत्कालीन अर्थव्यवस्था की सशक्त आधार बनकर उभरी। इस कृषि आधारित अर्थव्यवस्था ने भारत को तत्कालीन विश्व में सर्वोच्च आर्थिक शक्ति के रूप में स्थापित कर दिया।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भी यह प्राचीन भारतीय सिद्धान्त हमारी खाद्य-आवश्यकता पूर्ति हेतु प्रभावशाली सिद्ध हो सकता है। यदि कीटनाशकों, रासायनिक उर्वरकों इत्यादि का प्रयोग रोक कर प्राचीन भारतीय तकनीकों का प्रयोग किया जाये, तो हम अच्छी फसल के साथ-साथ भू-उर्वरकता को भी बनाये रख सकते हैं। उपजाऊ भूमि को कृषि हेतु आरक्षित करके तथा ग्राम पंचायतों के माध्यम से तकनीकी रुप से विकसित कृषि-उपकरण कृषकों तक पहुँचा कर हम अच्छी उपज प्राप्त कर सकते है। साथ ही साथ कृषकों को राज्य एवं समाज से समर्थन एवं सम्मान मिले तथा कृषक कृषि-कार्यों का निर्वहन अपना दायित्व मानकर करे, तो निश्चित रुप से हमारी खाद्य-समस्याओं का समाधान तथा मानव भविष्य सुरक्षित हो सकता है।

Filed in: Articles

No comments yet.

Leave a Reply