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एक नोबल पुरस्कार जो भारतवासियों को बहुत गर्वान्वित न कर सका !

एक नोबल पुरस्कार जो भारतवासियों को बहुत गर्वान्वित  न कर सका !

                                                                              राजीव उपाध्याय malala satyarthi

जब भारत का मंगल यान  मंगल गृह की परिक्रमा मैं प्रवेश किया तो सभी को बहुत अच्छा लगा . हमारे वैज्ञानिकों की  वर्षों की तपस्या रंग लाई थी और हम विश्व का चौथा सफल देश बन गए थे . इसकी ख़ुशी देश के हर नागरिक को होना स्वाभाविक था क्योंकि यह सफलता हमारी कड़ी मेहनत का परिणाम था और परिणाम का मूल्यांकन सर्वमान्य व् सार्वजानिक था . भारत के अभिनव बिंद्रा को चीन ओलिंपिक मैं शूटिंग के लिए सिर्फ एक स्वर्ण पदक मिला तो भी दिल को ख़ुशी हुयी की इतने सालों बाद भारत को स्वर्ण पदक मिलने की  की परम्परा तो फिर शुरू हुयी .उससे पहले भारत को हॉकी मैं १९८० मैं मोस्को मैं स्वर्ण पदक प्राप्त हुआ था .फिर लन्दन ओलिंपिक मैं हमें छः पदक मिले , दिल्ली के कॉमन वेल्थ खेलों मैं हम द्वितीय  रहे तो भी बहुत अच्छा लगा . क्रिकेट के विश्व कप जीतने का तो मज़ा ही कुछ और होता है .

आखिरी नोबल पुरस्कार किसी भारतीय को पूरी तरह भारत मैं किये गए काम के लिए  १९३०  मैं श्री सी वी रमण को मिला था . ( मदर टेरेसा व् सेन का काम या जन्म विदेश मैं हुआ था ) इसका भारतीय वैज्ञानिकों को न मिलना हमें खटकता था . इतने साल बाद भारतीय को नोबल पुरस्कार का मिलना बहुत हर्ष का विषय होना चाहिए था . परन्तु क्यों यह पुरस्कार अच्छा तो लगा पर दिल को बहुत खुश नहीं कर पाया . एक इंग्लिश पिक्चर बनी थी ‘ स्लम डॉग मिलिनैर ‘ और उसके संगीत के लिए रहमान को भी ग्रैमी पुरस्कार मिला था पर देश मैं बहुत ख़ुशी नहीं हुयी थी क्योंकि उससे ज्यादा सुन्दर गीत तो कई पिक्चरों मैं थे . रीता फ़रिया भारत की पहली विश्व सुन्दरी १९६६ मैं बनी थीं पर उनकी जीत पर देश बहुत खुश नहीं हुआ था क्योंकि वह किसी को अत्यधिक सुन्दर नहीं लग रहीं थी .पर ऐश्वर्या राय  के जीतने पर देश मैं ख़ुशी की लहर दौड़ गयी थी . इसका कारण साफ़ था .  लोग देख रहे थे की ऐश्वर्या सब प्रतियोगियों मैं सबसे सुन्दर थीं . जब साउथ अफ्रीका से उनके पहले मिस फोटोजनिक के पुरस्कार की खबर आई तभी देश बहुत खुश था .क्योंकि उनके फोटो वास्तव मैं बहुत ख़ूबसूरत थे और सब प्रतियोगियों मैं सबसे सुन्दर थे . प्रतियोगिता के परिणाम को सर्व मान्य होने के लिए उसका सार्वजानिक व् पारदर्शी होना जरूरी होता है . बिंद्रा या राठोड की शूटिंग सब टीवी पर देख सकते थे . वह निस्संदेह उत्तम शूटर थे . सुशिल कुमार को  पदक मिला तो लोग उनकी कुश्ती  देख रहे थे और पुरस्कार उनके तब तक के जीवन की  लगन व् मेहनत का इनाम था और सर्व मान्य  था .इस लिए देश बहुत खुश हुआ .

पिछले कुछ दिनों से पश्चिम के पुरस्कारों से देश का विश्वास कुछ उठ सा गया है . पश्चिमी पुरस्कार अक्सर देशद्रोह के लिए दिए जाने लगे  जैसे रूस के विद्रोही सोल्ज्हींनिस्तीं  को १९७० साहित्य का नोबल पुरस्कार या मेधा पाटकर को बिजली परियोजनाएं डैम के विरोध के नाम पर  रोकने के लिए दिया गया पुरस्कार  या ओबामा को शुरू मैं ही शांति का नोबल पुरस्कार दिया जाना किसी को समझ नहीं आया .अरुंधती राय , किरण बेदी , केजरीवाल , कुछ ऐसे पुरस्कार विजेता हैं जिनके काम मैं देश में को कोई गर्व या श्रद्धा नहीं थी . जनता को लगा की भारत विरोधी गतिविधियों को बढाने के लिए पश्चिमी मुहरों को पुरस्कृत कर उन्हें सार्वजानिक जीवन मैं घुसाया जा रहा है .

अब इस वर्ष के नोबल पुरस्कार को ही लें . पाकिस्तानी युसुफजई मलाला  का साहस निस्संदेह प्रशंसनीय है . परन्तु विश्व के सबसे ऊंचे पुरस्कार के लिए आवश्यक मापदंड पर वह बहुत गौण है . एक चौदह साल की बच्ची मैं पढने की लगन तो थी पर वह जान बूझ कर किसी आदर्श के लिए मौत का ख़तरा नहीं ले रही थी .उसे तो खतरे का आभास भी नहीं था . उसका पुरस्कार तालिबान  की रूढ़िवादी परम्पाओं को तोड़ने के लिए दिया गया लगता है . वास्तव मैं इस्लाम के नारियों पर लगे प्रतिबंधों को तोड़ने को प्रोत्साहन देने के लिए दिया गया लगता इनाम है .पहले ऐसे पुरस्कार कम्युनिज्म के विरुद्ध प्रतीकात्मक दिए जाते थे अब इस्लाम के विरुद्ध दिए जाते हैं .

भारत मैं कैलाश सत्यार्थी के काम को अच्छा होने के बावजूद भी कोई बहुत ज्यादा नहीं जानता था . उनका बचपन बचाओ आन्दोलन सराहनीय अवश्य है . उन्होंने अबरक की खानों व् अन्य जगह लगभग बंधुआ मजदूरों की तरह सस्ते वेतन के लिए फंसे हुए अनेक बच्चों को बचाया है . कहते हैं की उन्होंने लगभग अस्सी हज़ार बच्चों को बचाया है जो बहुत प्रशंसनीय व् सराहनीय ही नहीं बल्कि वन्दनीय है .जिनकी जिंदगी बदली वह तो उन्हें कोटि कोटि धन्यवाद ही देंगे जो किसी नोबल से कहीं अधिक सुखदाई है .

पर मलाला की तरह यह भी पश्चिम का भारत विरोधी आन्दोलन को प्रोत्साहित करने का प्रयास भी संभव लगता है . पश्चिम के मापदंड एक समृद्ध समाज के माप दंड हैं . वैसे भी उन्हें गरीबों से कोई बहुत प्यार नहीं है जो की उनकी नीतियों के जानकार जानते हैं . उन्हें गरीबों की याद तभी आती है जब उनके हितों पर असर पड़ता है .भारत के कालीन उद्योग पर बच्चों को उपयोग करने का आरोप तभी लगा जब हमारे कालीन बहुत निर्यात होने लगे . फिर हमारे दूध व् गेंहूँ पर आरोप लगे .इसी प्रकार श्री सत्यार्थी हमारे कपड़ों के निर्यात मैं बच्चों को उपयोग करने पर आन्दोलन चला चुके हैं जिसका फायदा चीन , पाकिस्तान इत्यादि को ही हुआ जहाँ लोग ऐसा आन्दोलन चलने की हिम्मत ही नहीं कर सकते .

भारत मैं अच्छे बचपन की परिभाषा क्या है यह नहीं कह सकते . परन्तु गरीब घरों मैं प्राथमिक शिक्षा तक तो बच्चे को पढ़ाना सर्वमान्य है . उसके बाद गरीब घरों मैं बच्चे को परिवार के काम सीखना शुरू कर देते हैं . जैसे मुरादाबाद मैं घर घर मैं बच्चे माँ बाप की पीतल के काम मैं मदद करना शुरू कर देते हैं . लखनऊ मैं चिकन का काम करने लगते हैं .धीरे धीरे पिता को देख बड़े होने तक अपने आप उसका हुनर सीख लेते हैं . वास्तविक शिक्षा वह हुनर है जो बच्चे को विरासत मैं मिला या वह स्कूली किताबी ज्ञान है जिसका कोई मूल्य इसके जीवन मैं नहीं है , यह स्वयं मैं एक बड़ी बहस का विषय है . इसी तरह यदि जो हुनर नहीं दे सकते तो वह बच्चे को पास की चाय की दूकान पर यदि न भेजें तो खिलाएं क्या . बच्चों का काम पर जाना एक गरीबी की मजबूरी है . इसलिए श्री सत्यार्थी के द्वारा छुडाये गए अनेक बच्चे फिर काम पर चले जाते हैं . दक्षिण का पूरा पटाखा उद्योग ऐसे ही चल रहा है . इस वास्तविकता मैं यदि काम से गरीब के बच्चे को भोजन , शिक्षा व् दवा मिल रही तो उसे अनुपयुक्त कहना कठिन है . सुर्ख़ियों मैं आने के लिए लालायित लोग इन्हीं पर आन्दोलन कर अपनी रोटियां सकते हैं .

जब स्लम डॉग मलिनैर प्रदर्शित हुयी थी तो मैं स्पेन मैं था . उसमें बच्चे का अमिताभ को देख कर टट्टी  मैं गिरने के दृश्य को कला कहना कठिन था .हमें स्पेन मैं लोगों को यह समझाने मैं बहुत कठिनाई हुयी की यह दृश्य काल्पनिक हैं .भारत की विदेश मैं छवी उस एक पिक्चर ने बहुत बिगाड़ी . यदि वह सच्चायी  भी थी तो भी आंशिक ही थी . हमारी गरीबी को भुनाने वाली गतिविधियों को पश्चिम मैं अनेक पुरस्कार दे दिए जाते हैं .

मुझे श्री सत्यार्थी के प्रशंसनीय कार्य के बाद भी विश्व का सर्वश्रेष्ठ  नोबल पुरस्कार मिलने से कुछ ऐसा लगा की यदि अगला शांति पुरस्कार भारत मैं समलैंगिकों के अधिकारों के लिए लड़ने वालों को दिया जायेगा तो हमें कैसा लगेगा . यह सिर्फ पश्चिम का प्रिय विषय है जिसको भारत मैं अति हेय व् हीन माना जाता है . परन्तु पश्चिम वासी  इसके योद्धाओं को पुरस्कृत कर सकते हैं शायद हमें तिरस्कृत करने के लिए .

एक और बात जो इस वर्ष समझ नहीं आई वह पुरस्कार के भाषण मैं हिन्दू मुस्लिम एकता व् भारत पाकिस्तान का आपस की लड़ाई रोकने का विवरण था . एक हज़ार वर्षों की इस लड़ाई मैं मलाला  या सत्यार्थी इसमें क्या कर सकते हैं .यह शांति का पुरस्कार था या पश्चिम का शांति का निर्देश था ?

पूरे दृष्टांत से राजनितिक बू सी आ रही थी .

इसी लिए यह चिर प्रतीक्षित अति सम्मानित पुरस्कार भारत वासियों के दिल को वास्तव मैं बहुत खुश नहीं कर सका जैसे मंगल् यान की सफलता ने किया ने किया था . हमें भारत मैं किये गए सार्वजानिक व् सर्वमान्य रूप से विश्व विजयी काम पर मिले नोबल पुरूस्कार का अभी भी इन्तिज़ार है

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