दिवः स्वप्न से दुस्स्वप्न तक : इकबाल व् जिन्नाह से तारेक फतह तक : मुस्लिम लीग की घृणा की विचारधारा का सौ वर्ष का असफल सफ़र
Rajiv Upadhyay
वैसे तो मुस्लिम लीग की स्थापना १९०६ के ढाका अधिवेशन में हुई मानते हैं . परन्तु इसका वास्तविक पूर्ण राजनितिक स्वरुप तब की भारतीय राजनीती के धुरंधर मुहम्मद अली जिन्नाह के १९१३ मैं इससे जुड़ने से पूरा हुआ. इसलिए अब इस बात को सौ वर्ष पूरे हो चुके हैं . इन सौ वर्षों की घटनाओं व् इतिहास के अवलोकन से यह पता लग जाएगा कि क्या इसकी स्थापना से वह दारूल इस्लाम के वह उद्देश्य पूरे हुए जिसकी इसके स्थापकों को आशा थी .
वास्तव मैं १८५७ कि असफल क्रांति के और भी बहुत दूरगामी परिणाम हुए जिनमें प्रमुख था मुस्लिम स्वप्न का पूरी तरह ध्वस्त हो जाना . बहादुर शाह ज़फर को रंगून मैं मृत्यु तक नज़रबंद कर व् उसके पुत्रों को दिल्ली मैं सरे आम फांसी दे कर अंग्रेजों ने मुग़ल शासन के पूर्णतः अंत की घोषणा कर दी . अब हिन्दू और मुसलमान दोनों बराबर के गुलाम थे और दोनों के मन मैं आज़ाद होने की इच्छा थी पर दोनों की परिकल्पनाओं मैं अंतर इतना था की मुसलमान अपने को स्वभाविक शासक मान कर भारत मैं फिर से मुग़ल शासन का स्वप्न देख रहे थे और हिन्दू अब एक हज़ार वर्षों की गुलामी के बाद अपनी पूर्ण स्वतंत्रता का स्वप्न देख रहे जिसमें मुगलों की दुबारा गुलामी का कोई स्थान नहीं था . दोनों ही यह समझ रहे थे की देर सबेर कभी हम स्वाधीन होंगे .
मुस्लिम स्वप्न को दूसरी चोट भी शीघ्र ही लगी . प्रथम विश्व महायुद्ध मैं हार के बाद तुर्की मैं ओटोमन एम्पायर व् खलीफा के अंत से विश्व मैं इस्लामिक शासन का युग हमेशा के लिए समाप्त हो गया. इस हार के बाद पूरी इस्लामिक ओटोमन एम्पायर अंग्रेजों व् फ्रंसियों के हाथ आ गयी .इस हार और इस्लामिक शासन के अंत ने मुसलामानों के दिल को बहुत चोट पहुंचाई . अब भारतीय मुसलमान भी हिन्दुओं की तरह अंग्रेजों के सिर्फ गुलाम मात्र रह गए .
इसी समय मैं होने वाले स्वाधीन भारत मैं अपनी कल्पनाओं के महलों की जगह की तलाश कई संस्थाएं करने लगीं . एक तरफ हिन्दुओं के संपर्क मैं आये अंग्रेजों ने सन १७९१ मैं संस्कृत के अध्ययन को बढ़ावा देने के लिए बनारस मैं कॉलेज खोला जो बाद मैं सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्व विद्यालय बन गया . अंग्रेजों ने संस्कृत के ग्रंथों के प्रकाशन के लिए एशियाटिक सोसाइटी को पैसे देना शुरू किया . हिन्दुओं ने विशेषतः बंगाल व् मद्रास मैं शीघ्र अंग्रेज़ी पढनी प्रारंभ कर दी और उसमें प्रवीणता भी पा ली . कहा जाता है कि सन १८८७ मैं २१००० कर्मचारियों मैं से मैं से ४५% हिन्दू व् मात्र ७% मुसलमान सरकारी नौकरियों मैं थे .
हिन्दुओं की यह त्वरित प्रगति अपने को प्राकृतिक शासक मानने वाले कई मुस्लिम नेताओं को अखर गयी . सर सैय्यद अहमद खान ने मुस्लिम अलगाववाद की पहली नींव रखी . अब तक अँगरेज़ शिक्षा सबको सामान रूप से देते थे और हिन्दू मुसलमान मैं भेद भाव नहीं करते थे . सर सैय्यद ने अलीग़ढ़ मुस्लिम विश्व विद्यालय सन १८७७ मैं प्रारंभ किया जिसके मुख्य उद्देश्यों मैं भारतीय मुसल्मानों को अंग्रेज़ी की शिक्षा देना था जिससे वह सरकारी नौकरियों मैं हिन्दुओं के पीछे न रहें . सर सैय्यद अहमद खान ने मुसलामानों के पिछड़ेपन को स्वीकारा तो पर उसके मूल व् गूढ़ कारणों को नहीं पहचान सके या पूरा सच कहने की हिम्मत नहीं जुटा सके . मुस्लिम उलेमाओं ने सर सैय्यद का बहुत विरोध किया . सन १८६६ मैं देवबंद का मदरसा व् बाद मैं आजमगढ़ का शिबली मदरसा अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय की समकक्ष इस्लामिक संस्थाएं थीं जो मुसलामानों को इस्लामी शिक्षा देने की पक्षधर थीं यद्यपि वह अंग्रेजी का महत्त्व मानती थीं . पर सर सैय्यद ने जाने अनजाने मैं मुस्लिम अलगवाद को जन्म दे दिया.
इन सब ने भारत मैं हिन्दू व् मुसलामानों मैं प्रतिस्पर्धा तेज़ कर दी . परन्तु हिन्दू पढाई और व्यापार दोनों मैं मुसलामानों से आगे थे . मुसलमान तो प्रमुखतः सेना मैं जाते थे. शिक्षा तो उनकी जीवन शैली का आधार ही नहीं थी .
उत्तर प्रदेश मैं अगली मांग हिंदी को उर्दू के समकक्ष सरकारी विभागों मैं माध्यम बनाने की थी . इससे उर्दू बोलने व् लिखने वाले मुसलामानों का शासन पर विशेषतः हिन्दुओं पर दबदबा समाप्त हो जाता था . अंग्रेजों ने सन १९०१ मैं हिंदी को भी उत्तर प्रदेश मैं आधिकारिक भाषा के रूप मैं मान्यता दे दी .
हिंदी के इस उत्थान ने मुसलामानों को बहुत असुरक्षित कर दिया . अब उन्हें स्वतंत्र भारत मैं अपने अल्पसंख्यक होने का डर सताने लगा . उस समय पूरे भारत मैं मुसलामानों की संख्या लगभग तीस प्रतिशत थी . वह भारत के अन्दर ही छोटे मुस्लिम राज की कल्पना करने लगे . बंगाल का विभाजन भी मुस्लिम बहुमत वाला एक राज्य बनाने के लिए किया गया था . सन १९०५ हिन्दुओं के विरोध के कारण अंग्रेजों को बंगाल का विभाजन समाप्त करना पडा . मुसलामानों मैं इससे असुरक्षा की भावना और बढ़ गयी .
इसी डर से ग्रसित हो कर उत्तर प्रदेश के मुसलमानों ने १९०६ मैं मुस्लिम लीग की स्थापना की . परन्तु शुरू से ही यह मुसलमानों के उच्च वर्ग के हितों की रक्षा के लिए ही प्रयासरत थी . १९३० तक इस की पहचान भी उत्तर प्रदेश तक ही सीमित थी . परन्तु १९३० मैं इकबाल के आज के पाकिस्तान के चार राज्यों को मिला कर एक इस्लामिक बहुमत का राज्य बनाने की मांग से व् जिन्नाह के कानूनी अंदाज़ ने अचानक देश की हवा बदल दी .सदियों से साथ रह रहे व् हिन्दुओं पर इस्लामिक शासन करने वाले अचानक हिन्दुओं के साथ रहने को हिन्दुओं की गुलामी मानने लगे जब की वह अंग्रेजों की गुलामी मैं सौ सालों से रह रहे थे . परन्तु इकबाल भी बंगलादेशी मुसलमानों के लिए नहीं सोच रहे थे . वह भी सिर्फ पंजाबी व् पठानों के बारे मैं सोच रहे थे . यही बीमारी आगे बढ़ती गयी .
यह प्रश्न किसी ने नहीं पूछा की हज़ार साल के इस्लामिक राज्य मैं उन्हें क्या मिला ?
क्या इस्लामिक बहुमत वाले पंजाब या बंगाल के राज्य बाकि भारत से किसी भी बात मैं आगे थे ?
आज का गरीब मुसलमान तो हज़ार सालों से मुसलमान होने के बावजूद उतना ही गरीब रहा है. तुर्की ईरानी व् अन्य अशरफ मुसलमान हिन्दुस्तानी गरीब अजज्लफ़ मुसलामानों को सदा से ही हेय मानते थे . आज भी अरब मुसलमान पाकिस्तानी या हिन्दुस्तानी मुसलमानों को हे दृष्टि से देखते हैं . नादिरशाह , अब्दाली , व् बाबर ने तो मुसलमान शासकों को ही हरा कर दिल्ली को तबाह किया था और कत्ले आम मैं हिन्दुस्तानी मुसलमान ही मरे गए .
तो ऐसे मैं किसी ने यह नहीं सोचा कि अगर इकबाल की परिकल्पना का पाकिस्तान मिल भी जाता तो किस का क्या भला होता ?
किसी ने नहीं पूछा कि क्यों कट्टर मुस्लिम शासक औरंगजेब के बाद मुग़ल साम्राज्य एक दम बिखर गया . क्यों तुर्की मैं खलीफा का शासन ख़त्म हो गया . क्यों पैगम्बर के तुरंत बाद ही उनके दामाद हुसैन की निर्मम ह्त्या कर दी गयी . औरंगजेब ने तो शाहजहाँ को कैद ही किया था तुर्की मैं तो — ने भाइयों के अलावा पिता को भी जहर दे कर मार दिया था .
फिर भी उन्हें इस्लाम धर्म मैं स्वर्ग या जन्नत दिखा कर हिन्दुओं के विरुद्ध भड़का तो दिया पर हिन्दुओं के समान शिक्षा, बुद्धि, उद्योग व् व्यापार का विकास नहीं किया . अंग्रेजों या फ्रंसियों के समान तो बनना उनके बस की बात भी नहीं थी .अंग्रेजों व् फ्रंसियों ने २२ इस्लामिक देश बनाये . जब तक अंग्रेजों ने वहां तेल नहीं निकाला तब तक सब रेगिस्तान मैं ऊँट ही चराते रहे . असल मैं इस्लामिक उम्माह एक भ्रम है वास्तविकता नहीं . जैसे अनेकों हिन्दू राजा , ईसाई राजा ,बौध राजा एक दुसरे से लड़ते रहे ऐसे ही मुस्लिम राजा भी एक दुसरे से लड़ते रहेंगे . ऐसे ही कृषि ,उद्योग , कला व् व्यापार का धर्म से कुछ लेना देना नहीं था . मुस्लिम उम्माह उनकी आर्थिक या सामाजिक प्रगति का मूल मन्त्र है ही नहीं .
इन सब के लिए जितनी लगन व् तपस्या की आवश्यकता होती है वह साधारण मुस्लिम जीवन शैली मैं है ही नहीं . पूरे मुस्लिम इतिहास मैं सिवाय युद्ध जीतने के और अन्य प्रमुख धर्मों व् संस्कृतियों के समकक्ष कोई बड़ी उपलब्धी है ही नहीं .आज भी तेल के अकूत भण्डार के बावजूद भी यही यथा स्थिति विज्ञान , कला व् सांस्कृतिक क्षेत्रों मैं बनी हुई है .
वास्तव मैं हज़ार साल के इस्लामिक शासन के उपरान्त भी शिक्षा , व्यापार , उद्योग , कृषि व् अन्य सभी क्षेत्रों मैं पिछड़ा मुस्लिम समाज धर्म मैं उन्नति की जादूई चाबी ढूंढने की उम्मीद लगाये बैठा था . वह शरियत मैं अलादीन का चिराग ढूढ़ रहा था .पर ये पिछड़ेपन के रेगिस्तान की मृगमरीचिका है थी . इसलिए जब पाकिस्तान बन भी गया तो चार साल मैं ही उसका पतन प्रारंभ हो गया . पहले सन १९५१ में तत्कालीन प्रधान मंत्री लियाकत अली खान की ह्त्या करवाई गयी . १९५५ से ईस्ट पकिस्तान मैं आवामी लीग का प्रादुर्भाव हो गया और पाकिस्तानी मुस्लिम लीग हार गयी . उधर
पाकिस्तान मैं इस्कंदर मिर्ज़ा ने दो साल मैं चार प्रधान मंत्रियों को निकाल दिया .१९५८ मैं अयूब खान ने सैनिक क्रांति कर दी . १९७० मैं एक और मुस्लिम जनरल याहया खान व् टिक्का खान ने बड़े गर्व से लाखों बंगाली हिन्दुओं व् मुसलामानों को बर्बरता पूर्वक मार दिया . १९७१ मैं बांग्लादेश जिस के नेताओं ने कभी १९४७ मैं कलकत्ता मैं पकिस्तान के बनाने के लिए लिए ५००० आदमियों को डायरेक्ट एक्शन डे मैं मारा था वह ही पाकिस्तानियों के हाथ लाखों मुसलामानों को मरवा कर अलग हो गया . इस से कोई सबक बिना सीखे १९७८ मैं फिर जिया उल हक ने इस्लाम के नाम पर शासन करने के जूनून मैं पाकिस्तान को सदा के लिए फिर इस्लामिक धार्मिक उन्माद मैं झोंक दिया . उनकी १९८८ मैं मृत्यु के पच्चीस वर्ष बाद भी पकिस्तान उनकी इस गलती का खमियाजा भुगत रहा है .
पाकिस्तान के लिए लड़ने वाली मुस्लिम लीग पहले बंगाल मैं समाप्त हुई और फिर इन वर्षों मैं पकिस्तान मैं भी अपना अस्तित्व ही खो बैठी जब की भारत मैं धर्म निरपेक्ष कांग्रेस का शासन लगातार चल रहा था. पाकिस्तानी मुस्लिम लीग अनेक टुकड़ों मैं तो बाँट ही गयी वह पाकिस्तानी जनता मैं अपनी पहचान नहीं बना पाई . अब सिंधी , बलूची , पठान , मोहाजिर , अहमदिया , शिया व् सुन्नी सब मुसलमान एक दुसरे को मार रहे हैं .
जिन हिन्दुओं से वह डर रहे थे वहां कोई दुर्गा को मानने वाला राम को मानने वाले से नहीं लड़ रहा है बल्कि सब हर मंदिर मैं श्रद्धा पूर्वक जाते हैं . वहां आज भी मुसलमान पकिस्तान से अधिक सुरक्षित हैं क्योंकि यहाँ शिया या सुन्नी या अहमदिया या बोहरा सब साथ रह रहे हैं जबकि मुस्लिम लीग के सपनों के पाकिस्तान मैं सब एक दुसरे के खून के प्यासे हैं .
इकबाल व् जिन्नाह की स्वतंत्रता से पहले की सोच को पकिस्तान मैं तो कोई नहीं गलत कह सकता क्योंकि वहां की फौज , आतंकवादी , जिहादी सब बोलने वाले की जान के पीछे पड जायेंगे .परन्तु विदेशों मैं बसे बुद्धिमान मुसलमान जैसे कनाडा मैं बसे तारेक फतह अब खुल कर कह रहे हैं की पाकिस्तान की बुनियाद हिन्दुओं से नफरत पर आधारित थी . उन्होंने सदियों के साथी हिन्दुओं के साथ रहने को उनकी गुलामी माना . वह धर्म मैं अपनी सुरक्षा व् प्रगति खोजते रहे .समय ने नफरत को बचाए रखा . पहले पाकिस्तानी पंजाब के सिखों से नफरत की उन्हें निकाला , फिर हिन्दुओं को ख़त्म किया . फिर अहम्दियायों को निकाला . फिर बोहराओं को गैर मुसलमान कह दिया . अब इसाईयों व् शिया मुसलामानों को बारी है . तालिबान रावलपिंडी के पास स्वात घाटी पर एक बार तो दस्तखत दे चुका है . कब फिर रावलपिंडी पर तालिबानियों का कब्जा हो जाये पता नहीं .
भारत व् पाकिस्तान को अमरीका व् कनाडा जैसे रहने की सलाह देने वाले जिन्नाह की मुस्लिम लीग अब पाकिस्तान को अंतिम बरबादी की तरफ ले जा रही है . पठानों व् बलूचियों मैं रोष बढ़ रहा है और किसी दिन बांग्लादेश की तरह वह भी अलग हो जायेंगे .
जिन्नाह की मुस्लिम लीग का दारुल इस्लाम के पकिस्तान का का दिवः स्वप्न अब एक दुस्स्वपन ही बन गया है. अगले दस सालों मैं पकिस्तान पुनः टूट कर इस दुस्वप्न को भी हमेशा के लिए समाप्त कर देगा .
इस सब से सिर्फ एक शिक्षा ही मिलती है . घृणा या नफरत कभी किसी जीवन का आधार नहीं बन सकतीं . पाकिस्तान व् मुस्लिम लीग इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण हैं .