शिकवा – जवाबे शिकवा : इकबाल के ह्रदय परिवर्तन व् पाकिस्तान के निर्माण के जादूई समाधान का सौ साल बाद पुनर्मूल्यांकन
राजीव उपाध्याय
यह इतिहास के रहस्यों मैं से एक है की १९०५ तक ‘सारे जहाँ से अच्छा ‘ व् राम को इमाम कहने वाले मुहम्मद इकबाल अचानक १९०७ मैं इंग्लैंड जा कर घोर सांप्रदायिक मुस्लिम अलगवादी राष्ट्रवादी कैसे बन गए .
इंग्लैंड से लौटने के बाद उन्होंने एक भी देश की एकता या स्वतंर्ता पर कविता नहीं लिखी .उन्होंने अपनी काव्य प्रतिभा का प्रयोग १९११ मैं अति प्रसिद्द कविता ‘ शिकवा ‘ व् १९१३ मैं उसका ‘ जवाबे शिकवा ‘ लिखने मैं किया . इन दोनों कविताओं ने इक्बाल को मुसलामानों का ह्रदय सम्राट बना दिया और आज भी उनकी यह दो कवितायें अत्यधिक चाव से सुनी जाती हैं .समस्त मुस्लिम वर्ग उनके अल्लाह से शिकायत करने व् उसके मुसलामानों के पुन्रउत्थान के जवाब के अंदाज़ का कायल है और अब भी उनसे प्रेरित होता है .
१९३० मैं उन्होंने मुस्लिम लीग के इलाहबाद अधिवेशन मैं पहली बार अलग मुस्लिम बाहुल्य पाकिस्तान की मांग उठायी .उन्होंने जिन्ना को जो भारत छोड़ इंग्लैंड मैं जा बसे थे एक के बाद एक चिठ्ठियाँ लिख कर वापिस बुलाया व् अलग पकिस्तान मांगने के लिए प्रेरित किया . इसलिए वह पकिस्तान के जन्म होने मैं उनकी भूमिका चाणक्य की थी व् जिन्ना उनके चन्द्रगुप्त थे .१९३८ मैं उनका देहांत हो गया. पर उनके द्वारा बोया पाकिस्तान का स्वपन बीज १९४७ मैं फला व् १९७१ मैं बँगला देश के निर्माण से बिखर गया . परन्तु आज भी उनकी दो राष्ट्रों के समाधान को अभी भी न पाकिस्तान न ही बांग्लादेश ने नकारा है और शिकवा और जवाबे शिकवा सौ साल बाद भी पकिस्तान के लोगों का प्रेरणास्रोत है. काफी हद हद तक भारतीय मुसलमान भी उनकी शिकवे की भावनाओं से सहमत हैं .
परन्तु सौ साल का समय किसी सिद्धांत के पुनर्मूल्यांकन के लिए काफी होता है .अब हम इसी का प्रयास करेंगे.
इकबाल पश्चिमी की अत्यन्त उन्नति व् भारत व् मध्य एशिया मैं इस्लामिक राज्य व् सभ्य्ता के पतन से दुखी हो कर अल्लाह से प्रश्न करते हैं कि सब मुसलमानों ने इस्लाम को अपने बाहुबल को चीन से अफ्रीका व् युरोप तक फैलाया .उन्होंने सदा युद्ध मैं शेरो के भी पैर उखाड़ दिए और लड़ाई के बीच नमाज़ पढी और जीते . उन्होंने काबा से बुत हटाये , जंगली लोगों को सुसंस्कृत किया जो मूर्तियों व् पेड़ों की पूजा करते थे .तेरे कुरआन को मुसलामानों ने ही सीने से लगाया .परन्तु एक जबरदस्त शिकायत के स्वर मैं कहा कि हे अल्लाह तूने विधर्मियों को सारे ऐशो आराम दे दिए और मुसलमानों को सिर्फ मरने के बाद जन्नत मैं हूरों का वायदा ही दिया . यदि तू कहता है की मुसलमान अब वफादार नहीं रहे तो तू भी तो दिलदार नहीं रहा.
इस पर इकबाल का बहुत विरोध भी हुआ विशेषतः अल्लाह को पक्षपाती कहने पर .
इसके जवाब मैं उन्होंने ‘जवाबे शिकवा ‘ लिखा जिसमें अल्लाह ने उत्तर दिया की जिन मुसलामानों ने इस्लाम को जमीन से आसमान तक उठाया व् काबा की रक्षा की वह तो तुम्हारे पूर्वज थे . तुमने इस्लाम के लिए तो कुछ नहीं किया व् सिर्फ हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे .तुम तो देशों व् जातियों ( सैय्यद , मिर्ज़ा इत्यादि ) मैं बंटे हुए हो. क्या तुम सच्चे मुस्लमान हो ? जिन काफिरों के पास आज सारी दौलत व् ऐशो आराम हैं वह ही वास्तव मैं इस्लाम की सीख को प्रयोग मैं ला रहे है . न तो तुम मैं कोई हुनर है , न शिक्षा है ,न ही पहले वाला जज्बा व् एकता ( उम्मा) है इसलिए तुम्हारी यह दुर्गति हुयी है . इसलिए पहले सब मुसलमान एक हो . आसमान पर सूरज निकलने वाला है . बाग़ फिर से खिले वाला है .तुम सच्चे मुसलमान बन कर पहले वाला जोश लाओ तो दुनिया के सारे सुख क्या तुम्हारा सम्पूर्ण भाग्य ही पूर्णता परिवर्तित हो जाएगा .
प्रश्न है की क्या इकबाल ने मुसलामानों यूरोप की प्रगति का सच बताया या उनके पिछड़ेपन कि असली दवा की तरफ भेजने के बजाय एक मुस्लिम धर्म को पुनः प्रतिष्ठित करने व् इस्लामिक एकता रूपी ( उम्मा) का भावनात्मक झुनझुना दे दिया जो सौ सालों से आज भी उनके दिल को बहला रहा है जबकी उनकी वास्तविक हालत पहले से भी खराब हो गयी है .इकबाल के समय मैं यूरोप न तो एक था न ही उसमें के देशों इसाई धर्म से कोई एकता आई थी .बल्कि वह तो सब के सब विश्व युद्ध की आग मैं झुलस रहे थे . उनकी प्रगति मैं ईसाई धर्म का विशेष हाथ नहीं था क्योंकि इसाई धर्म तो डेड हज़ार वर्षों से वहां मौजूद था .उसके बावजूद भी फ्रांस व् इंग्लैंड सौ साल तक लड़ते रहे .
मेरे विचार से इकबाल के एक महान विचारक होने के बावजूद उनके मुकाबले सर सैय्यद अहमद खान का मुस्लिम पिछड़ेपन की जिम्मेवारी उनकी शिक्षा होने का विश्लेषण अधिक उपयोगी था .यदि इकबाल मुसलामानों को आधुनिक विज्ञान व् तकनीक मैं पश्चिम के बराबर होने की शिक्षा देते तो वह कहीं अधिक उपयोगी होता . तुर्की की खलीफा का ओटोमन राज्य इस्लामिक व् विशाल साम्राज्य होने के बावजूद इकबाल के सामने टूट कर बिखर गया और इकबाल भारतीय मुसलामानों को एक अलग पकिस्तान बनाने का झुनझुना बजाते रहे . क्या इस्लाम तुर्की या उसके पहले बग़दाद को बचा पाया. चलिए एक बार के लिए पकिस्तान मैं विज्ञान व् उद्योगों की प्रगति को छोड़ दें.
क्या पकिस्तान मैं ७५ लाख प्रगतिशील भारतीय मुसलामानों के जाने के उपरान्त भी क्या उर्दू भाषा ,साहित्य,कला या धार्मिक फिलोस्स्फी मैं भारतीय मुसलामानों से अधिक प्रगति की ? एटोंबरो की गाँधी फिल्म के समकक्ष मुगले आज़म व् मिर्ज़ा ग़ालिब जैसा सीरियल भारत मैं ही बना पाकिस्तान मैं नहीं .नौशाद , मुहम्मद रफ़ी , साहिर लुधियानवी व् बड़े गुलाम अली खान भारतमें ही पनपे पाकिस्तान मैं नहीं . यदि पकिस्तान नहीं भी बनता तो भी भारतीय महाद्वीप की इस्लामिक संस्कृति अक्षुण्य रहती क्योंकि पाकिस्तान बनाने से उसके विकास मैं कोई मदद नहीं मिली. जो इस्लाम जनरल जिया उल हक ने पकिस्तान को दिया है उसे तो अल्लाह दुश्मन को भी न दे .जिया के इस्लाम ने तो पाकिस्तान की ईंट से ईंट बजा दी .पर वही इस्लाम तो इकबाल मुसलामानों को पाने का ख्वाब बेच रहे थे.
बांग्लादेश की तो बात ही न करें .यदि इकबाल की उम्माह का इतना ही ख्याल था तो बहुमत मिलने पर मुस्लिम पकिस्तान ने मुजिबर रहमान को प्रधान मंत्री क्यों नहीं मान लिया .असल मैं इकबाल का आर्थिक विकास व् प्रगति के लिए इस्लामिक पुनर्स्थापना का स्वप्न ही दोषपूर्ण था . धर्म की स्थापना के लिए सता की आवश्यकता नहीं होती . भारत मैं सुर तुलसी का भक्ति काल सता से नहीं आया था. यदि आज भारत को कोई सौ करोड़ डोलर दे कर पाकिस्तान को भारत मैं मिलाने के लिए कहे तो भी भारत नहीं मानेगा . पाकिस्तान मैं लेने लायक कुछ है ही नहीं. क्यों हम एक हो कर जिया की मुसीबत अपने गले डालें ? जनरल जिया की मुसीबत जनरल राहिल शरीफ ही संभालें , हम क्यों फंसें.
तो आज सौ साल बाद इकबाल का ‘ जवाबे शिकवा ‘ का हर समाधान झूटा सिद्ध हो गया है और ‘शिकवा’ की मुस्लिम पिछड़ेपन की हर शिकायत पहले से कहीं अधिक मुखर हो गयी है . इसके लिए इकबाल से अधिक सर सैय्यद अहमद खान का शैक्षिक समाधान अधिक उपयुक्त है .और सर सैय्यद खान व् इस्लामिक स्टेट के क्रूर इस्लाम से से भी अधिक गांधीजी का सद्भाव का समाधान ‘ इश्वर अल्लाह तेरो नाम ‘ सबसे अधिक उपयुक्त है और प्रगति का मूल मन्त्र है .
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