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हैदराबाद एनकाउंटर का व्यापक जन समर्थन : तारीख पर तारीख वाली न्याय व्यवस्था पर खतरे की घंटी है जिसका शीघ्र समाधान आवश्यक है

हैदराबाद एनकाउंटर का व्यापक जन समर्थन : तारीख पर तारीख वाली न्याय व्यवस्था पर खतरे की घंटी है जिसका शीघ्र समाधान आवश्यक है

राजीव उपाध्याय rp_RKU-150x150.jpg

priyanka reddyहैदराबाद के प्रियंका रेड्डी रेप केस के सब अभियोगियों की पोलिस एनकाउंटर मैं मृत्यु हो गयी।  सामन्यतः यह कस्टोडियल मृत्यु का केस है जिसकी भर्त्स्ना की जानी चाहिए।  न्याय व्यवस्था ऐसे जंगल राज से नहीं चल सकती।  परन्तु जनता व् देश मैं इसका बहुत स्वागत हुआ है और एक तरह से खुशी की लहर ही दौड़ गयी। गलत काम का इतना व्यापक समर्थन व्  स्वागत भारतीय न्याय व्यवस्था के लिए खतरे की घंटी होनी चाहिए क्योंकि यह जनता के न्याय व् दंड व्यवस्था से विश्वास के उठ जाने का द्योतक है। ।  भारतीय पुलिस व् न्याय व्यवस्था अपराधियों को समय पर दण्डित करने मैं पूरी तरह असमर्थ रही है। सामान्यतः केवल दो से तीन प्रतिशत अपराधों के दोषियों को वर्षों बाद दण्डित कर पाती है।  न्यायालयों मैं लाखों केस वर्षों से लंबित पड़े हैं।  सिविल केस में  तो कभी कभी दादा के मुकद्म्मे मैं पोतों को न्याय मिल पाता है। लालू जी के चारा घोटाले को लें।  चारा घोटाला १९९1-94  में हुआ था. बीस वर्षों तक  केस के लंबित रहा और २०१३ मैं लालू जी को पहली सज़ा मिली। इस बीच सात गवाहों की असामयिक मृत्यु हो गयी जिस पर ह्त्या का संदेह है। अक्सर देर करने के लिए  के लिए  वकील तारीख पर तारीख लेते जाते हैं और कोर्ट उनकी धमकियों से या अन्य कारणों से विलम्ब की परवाह न करते हुए केस को लंबा खींचने देते हैं।  अक्सर वकील हर पेशी का पैसा लेते हैं और तारीख दर  तारीख से उनको तो बहुत फायदा होता है। जो जनता पिस रही है उसका तो कोई माई बाप ही नहीं रहा। ।वकीलों की तारीख दर तारीख मांगने पर रोक तो तुरंत लगानी  चाहिए।

स्वतंत्रता  के बाद  मुकदद्मेबाज़ी में बहुत बढ़ोतरी हुई है। देश की प्रगति के कारण  औद्योगिक , आयकर , कस्टम , पर्यावरण , पीआईएल,किरायेदारों , महिलाओं व् नौकरियों इत्यादी के केस मैं बहुत वृद्धि हुई है । इसके अलावा  सामाजिक संस्थाओं के अवमूल्यन से अब हर पारिवारिक या छोटा केस भी कचहरी पहुँच जाता है। पिछले सत्तर वर्षों में इतने नए कानून  बढ़ गए हैं की कोर्ट व् जजों की संख्या बहुत कम पड़ती है। पंचायत व्यवस्था के फैसलों पर अब लोगों की श्रद्धा  नहीं रही और सभी कचहरी पहुँच जाते हैं। कोई भी वकील छोटी छोटी बातों पीआईएल कर देता है जैसे फिल्मों की कहानी से फिल्म के कलाकारों पर दूर दराज़ में मान हानि का आरोप इत्यादि . दहेज़ व् उत्पीड़न के नाम पर निरे झूठे केस दायर हो रहे हैं। इन सब का उपचार भी आवश्यक है।

इस के अलावा जहां थानों में सर्वव्यापी भ्रष्टाचार सब जानते हैं वहां पुलिस के काम को  न्यायलयों ने बहुत कठिन बना दिया है।  कैदियों के मानवीय अधिकारों के नाम पर पुलिस को नपुंसक बना दिया है. अमरीका जैसा प्रगति शील देश को भी अपने आतंकी  कैदियों को यातना देने के लिए विदेशी जेलों मैं भेजना पड़ा था । अपराधियों के प्रति बहुत सहानुभूति  भी हानिकारक सिद्ध हुयी है। अपराधियों को हथकड़ी न बांधना ऐसा एक उदाहरण है। पुलिस भी अब बहुत निराश हो चुकी है. कानून व्यवस्था ही सारा समय व् साधन ले लेती है।  अपराधियों को पकड़ना तो अब किसी का काम नहीं रहा. पुलिस थानों मैं स्टाफ बढ़ाने की भी आवश्यकता है.इन सब कमियों का खमियाजा समाज को बढ़ते अपराधों  के रूप में भुगतना पड़  रहा है। अपराधियों के प्रति अत्यधिक सहानभूति आज की परिस्थतियों में नुक्सान देती है।

कुछ दिनों  से देश में एक नयी प्रवृति  ने जन्म लिया है। हर सामाजिक चीज़ का इलाज़ भी नए कानून बना कर से किया जाने लगा है. मीडिआ में सुर्खियां बटोरने के लिए बेरोज़गार लोग अदालतों में  अब मुकदद्मे दायर करते रहते हैं।  ऐसे ही एक केस में दिल्ली मैं आवारा कुत्तों के सामाजिक अधिकारों को है कोर्ट ने परिभाषित कर पूरी दिल्ली मैं आवारा कुत्तों की समस्या बेहद बढ़ा दी है। अब दिल्ली मैं आवारा कुत्तों को पकड़ कर दूर नहीं छोड़ सकते। उनको उनके मित्र कुत्तों के पास ही छोङा होगा। रोज़ाना चिकन मटन खा कर जानवरों की तरफदारी करने वालों के चलते मदारी , भालू नचानेवाले , सपेरे तो अब गायब ही हो गए हैं। जिस देश में करोड़ों लोग न्याय पाने का इन्तिज़ार कर रहे हैं यह कितनी  उपयोगी प्राथमिकता है।

सरकार को सामान्य लोगों के बहुत दिनों से लंबित केसों व् आपराधिक मामलों   मैं शीघ्र फैसला देने का प्रबंध करना चाहिये।  यह दायित्व संसद व् सरकार का है और इसके लिए क्रांतिकतरी चिंतन की आवश्यकता है।  इसे सिर्फ वकीलों व् न्यायलयों पर नहीं छोड़ा जा सकता। रिटायर्ड  अफसरों का छोटे सिविल केसों  के लिए व् रिटायर्ड जजों का छोटे आपराधिक के लिए उपयोग किया जा सकता है। बिना वकीलों वाली अदालतों का गठन भी पारिवारिक व् अन्य मामलों मैं किया जा सकता है जिन में सस्ता व् तुरंत न्याय दिलाया जा सकता है।

परन्तु हर हालत मैं इस समस्या का शीघ्र समाधान आवश्यक है अन्यथा या तो प्रियंका रेड्डी काण्ड बढ़ेंगे या जनता के दबाब मैं एनकाउंटर और दोनों स्थितियां भयावह हैं।

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