कुम्भ व् दुर्भाग्य पूर्ण कोरोना : हिन्दू दर्शन व् आदर्शों को पुनर्स्थापित करें , रूढ़ीवाद या रीति रिवाज़ उतने महत्वपूर्ण नहीं हैं

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राजीव उपाध्याय

इस वर्ष हरिद्वार के कुम्भ मेले का आयोजन देश को बहुत मंहगा पडेगा . इस भयंकर कोरोना के प्रकोप मैं जहां देश की अर्थ  व्यवस्था को छिन्न भिन्न करने वाला  लॉक डाउन दस्तक दे रहा हो , ऐसे मैं किसी भी तरह कोरोना को रोकना ही देश की प्राथमिकता होनी चाहिए थी . यदि कोरोना की मौतों का तांडव इसी तरह चलता रहा तो देश को वह लाखों मजदूरों का पैदल बिहार जाने का दारुण दृश्य  पुनः देखना पड़  सकता है  .  कोरोना के प्रकोप के बावजूद भी लाखों लोगों ने कुम्भ मेले मैं भाग लिया . यह उनकी श्रद्धा को दर्शाता है . एक वर्ग  की यह मांग हो सकती है की किसी भी सूरत मैं हज़ारों वर्षों  से चला आ रहा कुम्भ  मेला आयोजित होना ही चाहिए . परन्तु ‘ मन चंगा तो कठौती मैं गंगा ‘ का पाठ भी तो  हमें बचपन की कक्षा मैं पढ़ाया गया था . अब जब अनेकों महंतों को कोरोना हो गया और कुछ की मौत भी हो गयी तो अब आयोजान रोकना तो आग लगने के बाद कुआँ खोदने जैसा है . तब भी इसे जैसा की प्रधान मंत्री जी ने कहा तुरंत सांकेतिक बना देना चाहिए .

मध्य प्रदेश व् दिल्ली की सरकारों ने कुम्भ से   लौटने वालों अनिवार्य रूप से कुँरेंतीन  करने का आदेश दे दिया है . इसे अन्य  राज्य सरकारों भी करना चाहिए . पहले पंजाब ने ऐसे ही धार्मिक आ योजन से लौटे सिखों को कोरोना टेस्ट करवाना अनिवार्य कर दिया था . राज्य सरकारों  को पंजाब का अनुसरण कर सभी का कोरोना टेस्ट अनिवार्य कर देना चाहिए . किसी को अपनी आस्था के लिए दूसरों के जीवन या नौकरी को खतरे मैं डालने का अधिकार नहीं है चाहे वह निजामुद्दीन का मरकज़ हो या कुम्भ मेला. अब तक होली दीवाली पर तो प्रतिबन्ध लगा ही हुआ था . इसी तरह  कुम्भ को भी सीमित अखाड़ों , साधुओं  व् संतों के लिए टेस्ट कराके सीमित कर देना चाहिए था . शेष जनता को घर पर ही गंगा स्नान करने की व्यवस्था की जा सकती थी . गंगा जल टंकरों से बेचा जा सकता था .

bharat milap 2सिर्फ कुम्भ का सवाल ही नहीं है . आज हिन्दू धर्म  की व्यापक व्याख्या की आवश्यकता है . अब राम नवमी आने वाली है . सब मंदिर जा कर आरती कर अपने को धार्मिक मान लेंगे . परंतु कितने पिता की आज्ञा पर राज्य छोड़ सकते हैं . कितने भरत की तरह गलत तरीके से पाए राज्य को त्याग सकते हैं . कितनी नारियां सीता की तरह पति के साथ वन जा सकती हैं . पर ‘ आरती श्री रामायण जी ‘ को गा कर अपने कर्तव्य की इति  समझना राष्ट्र की भूल होगी . इसी तरह गाय , मंदिर , देवालय धर्म के प्रतीक चिन्ह हैं धर्म नहीं . धर्म तो वह है जो धारण किया जाय  . हमारा आचरण धर्म है . रीति  रिवाज़ इतने महत्वपूर्ण नहीं हैं जितना आदर्श . औरंगजेब द्वारा ध्वस्त किये काशी मथुरा की बात अलग है परन्तु इस तोड़ फोड़ के अभियान को भी अब रोकने की आवश्यकता है . देश मैं साम्प्रदायिक सद्भाव भी आवश्यक है . हर किसी को स्वाभिमान के साथ न्याय पूर्वक जीने देना सरकार का दायित्व है चाहे वह किसी धर्म जाती या वर्ण का हो .

इसमें संदेह नहीं की हिन्दुओं को  पिछले अनेक वर्षों  मैं व्यर्थ   मैं  प्रताड़ित  किया गया है . हिन्दू स्वाभिमान को पुनर्स्थापित करने की आवश्यकता भी है . परन्तु धर्म चिन्हों की नहीं आदर्शों की स्थापना महत्वपूर्ण है . यह कठिन है , और धर्म के ठेकदारों के लिए तो यह असम्भव है . भारतीय समाज मैं किसी धर्म मैं गाँधीजी  जैसे अनुकरणीय महा पुरुषों का अकाल है . इसी लिए धर्म चिन्हों को धर्म बनाया जा रहा है . गजनी गौरी या औरंगजेब का बदला  एक विज्ञान , टेक्नोलॉजी व् आर्थिक रूप से विश्व विजयी भारत बनाने मैं है उनकी हार के प्रतीक चिन्हों को मिटाने मैं नहीं . जर्मनी की उ नको रहने दें जो हमारी आत्मा को कचोटते रहें और उनको अपनी प्रेरणा बनाएं कमजोरी  नहीं .  एक विश्व  विजयी, सशक्त, आदर्श वादी भारत सदियों के हिन्दू अपमान का प्रायश्चित है .उसी पर ध्यान केन्द्रित करें .

कोरोना मैं कुम्भ का इतना व्यापक आयोजन गलती थी जिसे तुरन सुधारना आवश्यक है जैसा की प्रधान मंत्री जी ने कहा है और भविष्य के लिए धर्म की परिभाषा का पुनरावलोकन आवश्यक है.

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