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क्या हमारी लोक लुभावन आर्थिक नीतियाँ औद्योगिक प्रगति को डुबो रही हैं ? : The puzzle of India’s industrial growth – mint

क्या हमारी लोक लुभावन आर्थिक नीतियाँ औद्योगिक प्रगति को डुबो रही हैं ? : The puzzle of India’s industrial growth – mint

राजीव उपाध्याय RKU

इसे देश की विडंबना न कहें तो और क्या कहें की जो मोदी सरकार ‘ कॉर्पोरेट जगत की सरकार ‘ का ताना सुनती थी वही सरकार की लोक लुभावन  नीतियाँ हमारे औद्योगिक विकास की सबसे बड़ी बाधा बन गयी है . पाकिस्तान से सर्जिकल स्ट्राइक का साहस दिखने वाले मोदी जी औद्योगिक विकास की  क्रांति लाने  के दूहर व् कठिन  मार्ग पर चलने का साहस नहीं जुटा सके .कांग्रेस व् वाम पंथी दलों ने उन्हें रोक दिया व् भूमि व् मजदूरी सुधार के रास्ते पर नहीं चलने दिया .चीन से त्रस्त अमरीकी उद्योगों के लिए भारत औद्योगिक चीन का विकल्प नहीं बन सका .प्रारंभ मैं जो उद्योगों के लिए सरलीकरण की बात थी वह नक्कारखाने मैं तूती  की आवाज़ बन कर ही रह गयी . मोदी जी केजरीवाल व् राहुल गाँधी की ‘ सूट  बूट की सरकार’ या ‘ केजरीवाल के ‘अम्बानी की सरकार ‘ के ताने को गलत सिद्ध करने मैं ऐसे फिसले के अब संभले नहीं संभला जा रहा . जो बची खुची कसर थी वह बाबा रामदेव की काले धन की मुहीम ने पूरी कर दी . स्वच्छता अभियान गलियों को तो साफ् नहीं कर सका परन्तु अर्थ व्यवस्था की सफाई जोर शोर से हो रही है . कालाधन , बैंकों के बुरे ऋण को निकलने की मुहीम ने भी औद्योगिक प्रगति को धीमा कर दिया . एक तीन साल से गाए जा रहे जीएसटी का गाना भी अभी तक कुछ कर दिखने मैं सफल नहीं हुआ .अनेक उद्योगपति व् अमीर  लोग देश से पलायन कर रहे हें . सरकार की कोई औद्योगिक विकास की दूरगामी निति नहीं बनी है सिर्फ छोटो छोटी तुरंत परिणाम देने वाली बातों मैं फंस गए हैं . मैं फंस गए हैं .भारतीय उद्योगपति पूँजी निवेश नहीं कर रहे क्योंकि आर्थिक विकास के अभाव मैं मांग नहीं बढ़ रही . औद्योगिक विकास हर तरह से  चौपट है क्योंकि बुद्धिहीनता के अलावा औद्योगिक विकास पर राजनीति हावी हो गयी है .

उधर अच्छे उद्देश्य से ही सही , सरकार ने झुटे  विकास के आंकड़े  बनाने शुरू कर दिए जो यदि सच भी हैं तो पहले से भिन्न हैं इसलिए मनमोहन या वाजपेयी के काल से विकास दर की तुलना नहीं हो सकती . इसलिए जहाँ देश मैं कोई विशेष आर्थिक प्रगति नहीं दीखती वहां पता नहीं कहाँ से विश्व की सबसे तेज़ बढ़ने वाली अर्थ व्यवस्था का शगूफा छोड़ दिया जता है . वाजपेयी व् मनमोहन काल की आर्थिक प्रगति देश मैं अंधे को भी दीखती थी . नयी कारें आयीं , मोबाइल आये ,नए घर आये . शानदार शौपिंग माल आयीं , सॉफ्टवेर व् एम् एन सी की लाखों नयी नौकरियां आईं  . पिछले पाँच साल मैं कुछ भी तो नया नहीं आया . ऊंची तनख्वाहों की नौकरियां तो स्वप्न हो गयीं हैं .नए एमबीए संस्था तो क्या खुलें पुरानों को भी चलाना  दूभर हो रहा है . घरेलू उद्योगों के विकास के आंकड़े अर्थहीन होते हैं . अधिकाँश गरीब बैंक से उधार ले कर बीमारी य शादियों मैं खर्च कर देते हैं . उनके विकास के आंकड़े काल्पनिक होते हैं . बांग्लादेश के ग्रामीण बैंक की कहानी भारत मैं दुहराने के  कोई ठोस प्रमाण नहीं हैं . ऐसे ही मंनरेगा के खर्च की कहानी है . यह चुटकुला प्रचलित है की हर साल मंनरेगा की धनराशी से  गावों मैं घास काट कर सड़क बना दी जाती है जो अगले साल फिर बन जाती है .गाँवों मैं कुछ जगह छोड़ कर सिर्फ  कागजी विकास ही हो रहा है .गाँवों की आय सिर्फ कृषि के मूल्य बढ़ने से ही बढ़ती है क्योंकि अब हरित क्रांति समाप्त हो चुकी है .

यह बात नहीं की सरकार की दिशा य प्रयास गलत है . काला धन यदि निकल आये तो सरकार को अधिक टैक्स मिलता है .पर इससे विकास कम हो जाता है क्योंकि सरकार  टैक्स से उतना विकास नहीं कर सकती .वह उसे कहीं और खर्च देती है . यही टैक्स पहले नए लगे उद्योगों के फायदे से बढ़ता  था अब इनकम टैक्स की जोर जबरदस्ती से बढ़ रहा है . बिना विकास के टैक्स बढ़ाना देश के आर्थिक विकास मैं अवरोध बन जाता है . सुनने व् कहने मैं यह बहुत बुरा लगता है परन्तु सच यह है  की आर्थिक विकास की दृष्टि से  काला धन और सफ़ेद धन दोनों मैं कोई फर्क नहीं होता .हमारी अर्थ  व्यवस्था मैं इतनी बीमारी इत्यादि मैं खर्च कर देते हैं . कमियाँ हैं की अब तक रिश्वत या काले धन से आर्थिक विकास मैं मदद ही मिलती थी . यह बात नोबल पुरस्कार विजेता गुनार म्य्र्दल ने भी अपनी पुस्तक एशियाई ड्रामा  मैं स्वीकार की थी . उदाहरण के लिए स्पेकक्ट्रुम की नीलामी से से अर्जित पैसे से  वाजपेयी/ मन मोहन सरका  के सस्ते स्पेकटर्म  ने देश के विकास मैं अधिक योगदान दिया . भारत मैं सस्ती  ज़मीन ,सस्ते खनिज  विकास के लिए आवश्यक हैं क्योंकि बाकी चीज़ें बहुत मंहगी हैं . यह केजरीवाल / रहल गाँधी को प्रत्युत्तर मैं बे इंतहा  की इमानदारी दर्शाना विकास का रोड़ा है . बेचारा उद्योगपति अब क्या करे क्योंकि बाबु अब डर के मरे काम ही नहीं करते   बस सीबीआई व् विजिलेंस  से  अपनी कुर्सी और जान बचने मैं लगे हुए हैं .

भारतीय  जनता सरकार से असंतुष्ट नहीं है . वह इमानदारी चाहती है .उसे काले धन की मुहीम भी पसंद है . वह  मलया  जैसे सेठ बैंकों का पैसा खा जाएँ यह नहीं चाहती . परन्तु जब किंग फिशर एयरलाइन बंद होती है तो  सब बेरोज्गार हो जाते हैं . आग मैं कूदने से पहले यह भी तो सोचें की  इसको कैसे सम्भालेंगे . और  यही जनता अंततः वोट लालू या केजरीवाल को जात पांत या हिन्दू विरोध पर दे देगी जैसा बिहार मैं हुआ . सरकार न घर की रहेगी न घाट  की .

अब तो अगले वर्ष चुनाव का माहौल बनना  शुरू हो जाएगा .कोई बड़ी आर्थिक क्रांति अब नहीं आने वाली . औद्योगिक विकास तो डूबा ही रहेगा . कृषि तो बारिश पर आधारित है .दो साल से अकाल से डू बी हुयी थी अब अच्छी वर्षा से थोड़े संभल जायेगी पर कोई क्रांति नहीं आयेगी . क्रांति के लिए जो साहस व् वैचारिक दृढ़ता चाहिए वह इस सरकार मैं वित्तीय विभागों मैं नहीं मिला .. पर जिन  मोदीजी  से देश को अपार आशाएं थीं वह कांग्रेस व् वामपंथियों के के चक्रव्यूह मैं ऐसा फंसे  की अपनी गुजरात वाली वास्तविक चाल ही भूल बैठे . घटिया  व् चापलूस मंत्रि कुछ करने लायक ही नहीं हैं  .ऊपर से उनके प्रबल समर्थक , दृढ हिन्दुओं को कुछ नहीं मिला वह बहुत दुःखी हैं .मुसलमान बीजेपी य मोदी जी बड़ी संख्या मैं वोट कभी नहीं देंगे और उके विकल्प को ही वोट देंगे .शिक्षा जैसे मंत्रालय ने देश को और हिन्दुओं को अपनी दम्भी अकर्मण्यता से बहुत बड़ा धोखा दे दिया . राम मंदिर न सही शिक्षा ही सुधार लेते . हिन्दुओं की आशाओं पर बहुत तुषारापात हुआ है .जो कुछ थोड़ा बहुत विकास हुआ है वह नितिन गडकरी के सड़कों व् पियूष गोएल   के  बिजली व् कोयले उत्पादन मैं हुआ है .वित्त मंत्रालय व् निति आयोग के राजनीतिकरण  ने सिर्फ बड़ी बड़ी बातें की है और अपनी बेअक्ली से तो देश का वास्तव मैं नुक्सान ही किया है .

मोदीजी की सफलता अजित दोवल की है . वह कोई आर्थिक मामलों का अजित दोवल नहीं खोज पाए !

इसलिए औद्योगिक विकास पर नीचे का मिंट  लेख पढ़ कर

आराम बड़ी चीज़ है मुंह ढक् के सोइये

किस किस को याद कीजिये किस किस को रोईये

 

 

The puzzle of India’s industrial growth

 

Industrial production fell 0.8% in April, while manufacturing contracted by 3.1% compared to the previous year. Photo: Ramesh Pathania/Mint

Industrial production fell 0.8% in April, while manufacturing contracted by 3.1% compared to the previous year. Photo: Ramesh Pathania/Mint

Which measure of industrial growth best reflects reality?

Industrial production fell 0.8% in April, while manufacturing contracted by 3.1% compared to the previous year. That seems to suggest Indian industry is in dire straits. But manufacturing growth for 2015-16 as well as for the January-March quarter at constant prices was 9.3%, according to gross domestic product (GDP) data. True, the GDP numbers show value added, while the Index of Industrial Production (IIP) numbers measure volume. But which set of data should policymakers rely on?

The first three charts show the latest industrial data:

Chart 1: The index of capital goods came in at 186.3 for April. That is the lowest capital goods output for the month of April since 2010, as the chart shows. If the numbers are correct, investment demand is clearly in terrible shape.

Chart 2: Consumer goods are doing better, although production contracted by 1.2% in April. Consumer durables production has picked up and the index was at 289.3 in April, 11.8% higher than in April last year. Note, though, that the consumer durables index was at 290.5 in April 2011, which means it is lower than where it was five years ago. Is this really true? Could it be due to the imports of consumer goods, perhaps Chinese imports?

Also, as the chart shows, the index of consumer non-durables, or perishable consumer goods, was at 142.6 in April, the lowest for the month of April in four years. If correct, this figure brings out the extent of rural distress.

Chart 3: This chart for manufacturing growth is self-explanatory. Since November, except for a brief blip in February, year-on-year manufacturing growth has been negative.

But there are questions about the reliability of the IIP data, so let’s look at four more charts taken from a survey of industrial units from the Reserve Bank of India (RBI)—its latest Industrial Outlook survey.

Chart 4: This chart shows that animal spirits in the industry are at their lowest since at least 2010-11. Expectations weren’t this low even during the dark days of 2013-14. The optimism from the new government taking power in 2014 seems to have completely fizzled out.

Chart 5: This chart shows the expectations for industrial production. Again, it’s now at the lowest in at least the past seven years.

Chart 6: Nor is the near future expected to be brighter, if the order book expectations of industry, from the RBI survey, are any guide.

Chart 7: What does all this mean for industrial employment? As the chart shows, optimism about employment is higher now than in 2013-14, but only just. The initial high hopes of 2014-15 and 2015-16 have been dashed.

The gross value added numbers for industry and the Index of Industrial Production paint very different pictures of the industrial economy. Yes, they measure different things. But the question ultimately is: which yardstick corresponds most closely to the empirical conditions on the ground? Perhaps it’s best to ask businessmen that question, which is precisely what the RBI’s Industrial Outlook survey does. Their answer is unequivocal.

Manas Chakravarty looks at trends and issues in the financial markets. Comments are welcome at capitalaccount@livemint.com

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