5:32 pm - Friday November 23, 2401

क्या चीन अमरीका के बीच की शतरंज मैं भारत सिर्फ पिटने के लिए पाला प्यादा है , कैसे स्थिति को बदलें ?

क्या चीन अमरीका के बीच की शतरंज मैं  भारत सिर्फ पिटने के लिए पाला प्यादा है , कैसे स्थिति को बदलें .

राजीव उपाध्याय RKU

भारत बहुत दिनों से इस गुमान मैं है की उसकी अमरीका से दोस्ती बढ़ रही है . परन्तु भारत को अमरीका ने अब तक वास्तव मैं कुछ नहीं दिया है . यहाँ तक की ड्रोन तकनीक भी छोटी दूरी वाले ड्रोन की ही दी है . बाकि तो सिर्फ अमरीका को शुक्रिया कहने के लिए हवाई जहाज़ों व् हथियारों के सौदे हैं . अमरीका भारत पर भरोसा नहीं कर पा रहा है क्योंकि भारत रूस व् ईरान का भी मित्र है . स्वाभिमानी भारत इजराइल सरीखा सहयोगी बंनने के लिए तैयार नहीं है . हमरी अमरीका मैं यहूदियों जैसी लोबी भी नहीं है .ईरान एक मुसलिम राष्ट्र है जिसने १९६५ की लड़ाई मैं खुल कर पाकिस्तान का  साथ ही  नहीं बल्कि उसे अपने लड़ाकू  सेबर  जेट भी दिए थे . भारत ने उसकी प्रतिबंधों के दिनों मैं मदद की .आज वह अपने मतलब के लिए भारत का मित्र बना था पर प्रतिबन्ध हट्ते  ही उसने गैस फील्ड के लिए नए करार की धमकी दे डाली  .चाह्भार पर भी वह भारत के निवेश के बावजूद चीन का सहयोग खोना नहीं चाहता . अफगानिस्तान ने भारत की मदद के बावजूद ताम्बे की खानें चीन को दे दीं. अमरीका सीख चुका है की मित्रता खैरात से  खरीदी नहीं जा सकती . इसी तरह  अफगानिस्तान व् ईरान सिर्फ पैसों के सगे हैं . जो ज्यादा पैसे देगा उसके सगे हो जायेंगे . इरान हमारा सगा कभी भी नहीं  होगा .रूस को चीन की भी बहुत आवश्यकता है .उसकी अपनी आकान्शायें हैं जिनमें भारत का बहुत हिस्सा नहीं है . चीन से अमरीका का व्यापार भारत के मुकाबले बीस गुना ज्यादा है . इसलिए वह भारत को अपने हित मैं कभी भी प्यादे की तरह पिटवा  सकता है . पकिस्तान चीन सीपेक की राहदारी पर पर अमरीका ने पलटी  मार ली है . गरीब इंग्लैंड पहले ही चीन के साथ है .चैन के एक बेल्ट एक सड़क समारोह  मैं तीस देश हिस्सा ले रहे हैं . भारत को महांभारत की द्रुपद व् द्रोण की कहानी  से शिक्षा लेनी चाहिए .मित्रता सिर्फ बराबरी वालों मैं होती है . अमरीका अपने को विश्व का मालिक समझता है उससे मित्रता नहीं हो सकती सिर्फ संधि या सौदेबाजी हो सकती है जिसमें पकिस्तान की माहिरी है  . अयूब खान ने अमरीका को कुछ नहीं दिया परन्तु अरबों रूपये की सहायता ले ई .आज अमरीका  हम से अफगानिस्तान मैं अपने सैनिक झोंकने  की चाहत रखता है परन्तु यह असम्भव है क्योंकि हम श्री लंका मैं अपने १२०० सैनिक व्यर्थ मैं गंवा चुके हैं . वह चाहता है की हम हिन्द महासागर क्षेत्र मैं चीन को रोकें परन्तु न उसके पास न ही हमारे पास इतना पैसा है की हम चीन का मुकाबला कर सकें  . जापान को छोड़ कर आस पास के सब राष्ट्र बहुत छोटे हैं .अमरीका अपने को विश्व का मालिक समझता है उससे मित्रता नहीं हो सकती सिर्फ संधि या सौदेबाजी हो सकती है . उसने चीन को महाशक्ति बनाया तो उससे भी उसे बहुत फाड़ा हुआ . चीन ने अरबों रूपये के अमरीकी बांड खरीद लिए .भारत १० बिलियन डॉलर के हथियार खरीद कर चीन की बराबरी नहीं कर सकता .

मोदी जी ने अथक प्रयास किये हैं परन्तु हमारी आर्थिक कमजोरी की  वास्तिवकता उनको सफल नहीं होने दे रही . फिर भी वह मनमोहन सिंह की सरकार से ज्यादा हिम्मत दिखा रहे हैं . उन्होंने चीन से डरना बंद कर दिया है . परन्तु फिर भी उनकी सीमाएं हैं .

भारत को चीनी बड़े बटुए की काट ढूंढनी  है जो साधारण सोच के बाबु नहीं दे सकते . रूस के पुतिन की सोच हमसे अच्छी है .इसके लिए हमको डा. किसींजर सरीखे विशेष बुध्धिमान लोगों की आवश्यकता है . हमें जिस चाणक्य की आवश्यकता है वह शायद अभी हमें नहीं मिला है . परन्तु अंततः हमको अपनी रक्षा के लिए  चीन के बराबर की आर्थिक प्रगति करनी होगी . परन्तु हम चीन नहीं हो सकते .भारत को जापान की तरह औद्योगिक क्षेत्र मैं बड़ी  तकनीकी सफलता दिलाना ही एक मात्र समाधान है . परन्तु हमरी बाबुशाही इसको करा पाने मैं एक दम असमर्थ है . उसकी सोच अपने लाभ की व् नकरात्मक होती है .

यह पुराने भारत की क्रिएटिविटी वापिस लाना  बहुत लम्बी प्रक्रिया है .भारत को एक दम उन्मुक्त करना होगा और जनता को सहारा व् सुविधाएं देनी होंगी .कुछ बड़ी सफलताओं से जनता मैं उत्साह जागेगा . फिर धीरे धीरे साधारण व्यापारी भी बड़ा सोचने लगेगा . अभी तो हर कोई उद्योगपतियों का खून चूसने के लिए तत्पर रहता है .बाबुशाही जनता पर  अपनी ताकत कभी भी नहीं खोयेगी  और वह देश का शोषण करती रहेगी .उससे उम्मीद करना व्यर्थ है. इसलिए हमारा देश जापान कभी नहीं बनेगा .

हमको शीघ्र  अतिशीघ्र कुछ ऐसी सोच विकसित करनी चाहिए की हम अमरीका की पुरानी हो रही पनडुब्बियों , जंगी जहाज़ों के बेड़ों इत्यादि को पंद्रह साल केलिए मुफ्त ले लें और उन्हीं ठीक रख पंद्रह साल तक संयुक्त रूप से चलायें . इससे अमरीका को अपना प्रभुत्व पंद्रह साल तक आराम से बनाए रख मिलेगा व् भारत को पंद्रह साल का रक्षा के लिए अस्त्र मिल जायेंगे . भारत के अलावा कोई और देश यह नहीं कर सकता . क्योंकि अमरीका के यह जहाज चल रहे हैं इस लिए रूस भी इससे बहुत नाराज़ नहीं होगा . यह कर पाना  आसान नहीं होगा परन्तु असम्भव भी नहीं है . इसमें अमरीका और हमारा बराबर का सहयोग होगा और यह मित्रता बराबरी की होगी  .इसे सफल बनाने के लिए समर्पित  व् बड़ी सोच की आवश्यकता है .

क्या हमारे पास चीनी बटुए का कोई और विकल्प है ?

 

US U-turn on China puts India in a fix

In a step which could see India put under tremendous pressure, the United States of America has decided to take a U-Turn from its initial position and is set to participate in China’s One Belt, One Road (OBOR) initiative, being organised in Bejing.

The event, is to showcase and build momentum for its new 21st-century silk route, both land and maritime, and other similar initiatives which would lead to increasing connectivity with Asian and European countries and solidify its place in the world as a major trading partner.

In India, along with concerns over its sovereignty, it is also seen as a continuation of Chinese strategy of ‘strings of pearls’ which China uses to flex its muscle in India’s neighbourhood.

The step of the US has put India in a dilemma as the change in its stance is early signal that the Trump administration is reframing the US-China relationship, according to Jagannath Panda, from the Institute for Defense Studies and Analysis, New Delhi.

India, which is still undecided on whether to send its representatives to the event to be held this Sunday and Monday, maintains that China has not built an environment of trust to carry out the belt and road projects.

The country’s concerns on the Chinese project stem from what it perceives to be a lack of regard shown to issues raised by it that projects which are part of OBOR impinge its sovereignty.

For example, the China-Pakistan Economic Corridor, which is a part of the larger project, by which China is set to link the Xinjiang province with the Gwadar port in Pakistan and is to be built in Balochistan, passes through Gilgit-Baltistan region which India claims as its own.

Concerns such as these have led to the serious thoughts whether to send representatives to the event or not and if yes, officials of what level are to attend. Reports have claimed that the country may be represented by junior embassy level officials.

The thinking is that even if it does not attend, it may not lead to any immediate material loss to it as OBOR is not a membership-based organisation, and may even get India praise in certain quarters for taking a principled stand.

Other than officials, academics from India may be present at the meet which is to see representation from over 50 countries including organisations such the World Bank.

The US has now decided to send senior representation to the event, with an inter-agency delegation led by Matthew Pottinger, a top adviser to the Trump administration and National Security Council senior director for East Asia to take part.

But many see it to be a trade-off between the country and China after the latter’s commitment to buy American beef as part of the Donal Trumps’s ‘100-day plan’ agreement, and in return, the US will not only attend the event but also allow Chinese banks to expand their operation in the US.

The decision seems to be a direct result of the meeting between Trump and the Chinese President Xi Jinping when the Chinese leader visited the US last month. Chinese vice-finance minister Zhu Guangyao is reported to have said, ‘We welcome all countries to attend. And we welcome the United States’ attendance as the world’s largest economy.’

Out of the representatives of different countries, head of state’s of more than 29 countries are to be present for the programme. And now with the entry of the US into the fray, along with countries like Britain and Germany, China’s dominant position in the programme may be somewhat diluted.

Other countries that are taking part include Japan and South Korea, which have military differences with China, as well as other countries engaged in territorial disputes with China over the South China Sea issue, including Vietnam and Indonesia. Pakistan, Nepal and Sri Lanka will also take part.

China may be put under pressure on the issue of transparency as other developed countries may ask for more details related to its plans, and whether it would follow internationally-accepted standards on environment and labour in the projects which include six economic corridors but have not seen any reliable map made available.

According to reports, Tom Miller, author of a recent book, China’s Asian Dream, said, ‘What actually gets built will depend on what deals Chinese companies or the government make with other countries, abroad or on the deals that the Chinese government makes with other governments abroad, and no one knows exactly what those are going to be.’

OneIndia News


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Filed in: Articles, World

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