क्या आर्थिक सफलताओं के अभाव मैं भारतीय विदेश नीति की उपलब्धियां अब ठहर कर स्थिर पठार पर आ गयी हैं ?
राजीव उपाध्याय
2014 में देश को सबसे सुखद आश्चर्य भारतीय की नयी विदेश नीति की सफलता से हुआ था . अचानक विश्व ने भारत को एक गरीब देश के बजाय एक उभरती हुयी आर्थिक वैश्विक शक्ति के रूप मैं देखना शुरू कर दिया था .सबसे ज्यादा अचम्भा अंग्रेज़ी बहुत अच्छी नहीं बोल पाने वाले पूर्णतः भारतीय प्रधान मंत्री मोदी जी ने दिया था . उनका अमरीका व् इंग्लैंड का पहला दौरा और वहां के भारतियों को दिया भाषण देश की जनता को लम्बे समय तक आनंदित करता रहा . ओबामा का भारत दोबारा आना व् उनका अमरीका संसद मैं दिया भाषण भी सुनने लायक था . अचानक देश मैं आने वाले राष्ट्राध्यक्षों का तांता लग गया . भारत एक असीमित आशाओं का देश बन गया .
परन्तु अब चार साल बाद विश्व का भारत से मोह भंग हो रहा है . आंकड़ों की हेराफेरी को छोड़ दें तो हमारी आर्थिक प्रगति बहुत मंदी रही . हमारे निर्यात बहुत गिर गए और अपने ३१० बिलियन डॉलर के शिखर से घट कर २८० बिलियन डॉलर पर आ गए . तेल का आयात भी उतना नहीं बढ़ा जितना विश्व को उम्मीद थी . यह सिद्ध हो गया की भारत चीन नहीं है और चार साल का हिसाब लगाने पर वाजपेयी व् मनमोहन काल के बराबर भी आर्थिक प्रगति नहीं हुयी .
अमरीका की निराशा स्वाभिक थी . उसे परमाणु डील से कुछ मिलने की उम्मीद थी जो पूरी नहीं हुयी . यही हाल इंग्लैंड का हुआ . दोनों प्रधान मंत्रियों ने साडी पहना कर रिझाया पर भारत कुछ दे नहीं सका . अंत मैं अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्ध तो आर्थिक आधार पर ही टिकते हैं . कुछ चीन की मुर्खता की वजह से भारत का महत्व बढ़ गया . चीन का पूरे दक्षिण चीन सागर पर कब्ज़ा ज़माना विश्व को नागवार गुजर गया और उसके चलते भारत को मदद देना एक अंतर्राष्ट्रीय आवश्यकता बन गयी . भारत ने अमरीका से हथियार खरीद कर व् उसे नौसैनिक अड्डों की सुविधा देकर कुछ अपना महत्व बढाया . उसके बदले मैं अमरीका ने भी कुछ नए हथियार हमें दे दिए .आर्थिक क्षेत्र मैं हमारी साख बढी और विदेशी मुद्रा मैं वार्षिक निवेश लगभग पचास बिलियन डॉलर पहुँच गया .पर अब और नहीं बढ़ रहा क्योंकि कहीं भी विदेशियों को फायदा नहीं हो रहा . बहुत सी टेलिकॉम कम्पनियां देश छोड़ कर चली गयीं .रक्षा क्षेत्र मैं इतनी बातों के बाद अब तक कुल ६१००० रूपये का विदेश निवेश हुआ है ! हम विश्व मैं विदेशी पूँजी के निवेश मैं नावें नंबर पर हैं .
पकिस्तान पर सरजिकल हमला कर हमने दब्बू भारत युग की समाप्ती की घोषणा कर दी . परन्तु पाकिस्तानी सेना चीन व् परमाणु बम के कारण अब भी झुकने को तैयार नहीं है और वह हाफिज सईद या कश्मीर पर समझौते के लिए तैयार नहीं है .अमरीका और बाकी विश्व के समर्थन से हम चीन से डोकलाम मैं डट गए .चीन पीछे हट कर अब दुबारा जोर से आगे बढ़ने की तैय्यारी कर रहा है . पैसे के अभाव मैं हमारी और हथियार खरीदने की क्षमता अब समाप्त हो गयी है पश्चिम जगत यह जान गया है . चीन से हम आज भी हर तरह से बहुत कमजोर हैं
चीन के मुकाबले हम पश्चिम जगत को क्या दे पाएंगे ? यदि ग्वादर या दक्षिण चीन सागर मैं युद्ध होता है तो क्या हम उसमें भाग ले पाएंगे ? क्या आसियान के देशों को हम कोई सुरक्षा दे पाएंगे ? क्या इस्राइल के लिए हम ईरान या पाकिस्तान से लड़ लेंगे .
तो यह भारत चीन का शक्ति संतुलन किसके काम का है ?
उधर सीपेक की गंभीरता हमें नहीं समझ आयी है . यदि चीन पाकिस्तान के कर्जों के बदले उसके परमाणु बम व् मिसाइल अपने कब्ज़े मैं ले ले और अपनी सेना का लाहोर मैं सैनिक अड्डा बना ले तो हमारी हिमालय की सुरक्षा किस काम की रह जायेगी . पलक झपकते ही चीन सिर्फ एक गुलेल से हम पर परमाणु बम गिरा देगा . उधर रूस भी हम से दूर जा रहा है क्योंकि हम हथियार उससे कम खरीदने लगे हैं . भारत रूस व्यापार बिलकुल नहीं बढ़ रहा है. उसे हमारा अमरीका प्रेम नहीं पसंद आ रहा है . ईरान को हमारा इस्राइल प्रेम नहीं पसंद आ रहा है . गोआ में ब्रिक्स सम्मलेन मैं रूस ने पाकिस्तान को बचा लिया था . ईरान ने तो हमारे द्वारा खोजा गया गैस का भण्डार हड़प लिया और उसने बेसुरा कश्मीरी राग भी अलाप दिया . चाभार बंदरगाह कब तक हमारा रहेगा पता नहीं ? सऊदी अरब पकिस्तान पर रक्षा के लिए आश्रित है और हमारे बहुत काम का नहीं है .
रूस चीन व् ईरान व् पाकिस्तान एक सैन्य ब्लाक बनने की तरफ बढ़ रहे हैं . अफगानिस्तान को उनकी तरफ जाना होगा .यदि रूस ने पाकिस्तान को अमरीका तक हमला करने वाले मिसाइल व् पनडुब्बी दे दिए तो पाकिस्तान अजेय हो जाएगा . हम फिर अलग थलग हो जायेंगे क्योंकि चीन की आर्थिक ताकत को पश्चिम जगत भी चुनौती नहीं दे सकता . पंद्रह साल बाद तो अमरीका भी चीन की सामरिक ताकत को चुनौती नहीं दे पायेगा . किसी भी युद्ध मैं उसके नौसैनिक बेड़े को चीन के मिसाइल ध्वस्त कर देंगे .
अन्तः भारत बिना आर्थिक शक्ति के विश्व शक्ति नहीं बन सकता .
पिछले चार सालों मैं हमारी सुस्त आर्थिक प्रगति ने हमारे लिए अनेक समस्यायों को खडा कर दिया है .चुनाव तो आते रहेंगे . हमें पजातान्त्रिक तरीकों से तेज आर्थिक विकास का मार्ग ढूंढना होगा . यह इतना कठिन नहीं है . वाजपेयी व् नरसिम्हा राव के कार्यकाल मैं बिना प्रचंड बहुमत के देश परिवर्तित हो गया था . यदि देश के प्रबुद्ध वर्ग का अवमूल्यन और वित्त विभाग का दंभ देश को मंहगा पद रहा है .
बिना आर्थिक प्रगति के हमारी विदेश नीति की धार अब मुथरी हो गयी है और हम अब एक स्थिर पठार पर आ गए हैं जिसके ऊपर जाने के लिए हमें अपनी सामरिक ताकत व् विदेश व्यापार विशेषतः निर्यात बढ़ाना होगा .
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