Afghanistan Cauldron : भारतीय दान से पुण्य क्यों नहीं मिलता , चीनी दान सिर्फ पुण्य कमाता है
राजीव उपाध्याय
अफगानिस्तान मैं तालिबान चीते की तरह तेज़ रफ़्तार से काबुल पहुँच गए और अफगानिस्तान की तीन लाख, पूरी तरह से प्रशिक्षित सेना. बिना लड़े गायब हो गयी . अफगान राष्ट्रपति घनी देश छोड़ कर भाग गए . जिस प्रकार पूर्व राष्ट्रपति नजीबुल्लाह को तालिबान द्वारा सरे आम फंसी दी गयी थी और सद्दाम व् गद्दाफी को मृत्यु दी गयी थी उसे ध्यान मैं रखें तो उनका भागना भी एक उचित फैसला था . परन्तु इसी के साथ भारत की अपना अफगानिस्तान व् आस पास के देशों मैं अपना प्रभाव बढाने की आशाओं व् आकान्शाओं का अंत हो गया .
पकिस्तान मैं बिना सोचे समझे जो खुशी की शहनाई बजाई जा रही है वह उनकी मूर्खता है जिस पर वह जिया उल हक के सोवियत रूस के निकलने पर खुशी की तरह ,अपने देश की तबाही की गूंज है . उनकी मूर्ख सेना के चलते स्वत घाटी व् ऑपरेशन ज़र्बे अजब चार साल मैं फिर ज़रूरी हो जाएगा और पुनः हज़ारों सनिकों की और कुर्बानी के बावजूद पाकिस्तानी जनता उग्रवादियों के और चुंगल मैं और फंस जायेगी . उनकी सदियों की लिबरल इस्लाम की परम्पराएं और पीछे धकेल दी जायेंगी क्योंकि तालिबानियों को केवल जन संघर्ष से रोका जा सकता है . पाकिस्तान में जन संघर्ष की अयूब खान के समय के छात्र आन्दोलन के अलावा कोई मिसाल नहीं है. हाँ पाकिस्तान अब Non State Actors का उपयोग भारत को कश्मीर मैं तंग करने के लिए आराम से कर सकेगा .
परन्तु फिर भी जैसा भारत के एक कर्नल दान वीर सिह ने कहा पाकिस्तानी आई एस आई की यह बहुत बड़ी उपलब्धी है की मीर ज़फर की सेना की तरह अफगान सेना को तालिबान के युद्ध से अलग कर दिया और इसी के कारण घनी की अफगान सरकार की पराजय सुनिश्चित हो गयी . अब मुल्ला ओमर युग की पूरी तरह वापिसी भी केवल एक या दो साल की बात है . तालिबानी नेता बेशक नए हैं पर उनके आदर्श व लड़ाके के तो पुराने हैं .एक दो साल मैं जब विश्व के स ब देश नयी सरकार को कबूल लेंगे तब पुराना तालिबान अवश्य लौटेगा .
भारत की दुविधा विशेष है . प्भारत ने अफगानी सद्भावना के लिए बीस हज़ार करोड़ रूपये अफगानिस्तान के विकास पर खर्च करके अपना प्रभाव जमाया था . उसका अमरीका से कोई सम्बन्ध नहीं था पर हामिद करज़ई व् घनी सरकार पर आश्रित था . उनके जाते ही भारतीय प्रभाव गायब हो गया . भारतीय मदद वास्तव मैं आम अफगान के जीवन को अच्छा बनाने के उद्देश से की गयी थी और उसमें सफल रही . भारत ने जो बाँध , सड़कें , बिजली घर , चबार बंदरगाह को जोड़ने वाली सड़कें बनायी उनसे वह वहां की जनता का दिल तो अवश्य जीत लिया पर भारत को कोई आर्थिक लाभ नहीं मिला . केवल पाकिस्तान व् चीन को दूर रखने मैं हम अवश्य सफल हुए . पाकिस्तानी आतंकवाद को रोकने भी बहुत मदद मिली .
इसके विपरीत अमरीका व् रूस जिन्होंने खरबों डॉलर पानी की तरह बहाए उनको एक औपनिवेशी ताकत ही मना गया . अंत मैं इतने खर्च के बावजूद यह दोनों देश पराजित होकरअपमान से निकले . आर्थिक फायदा तो सिर्फ पाकिस्तान को हुआ जिसने अफगानिस्तान की बर्बादी से अरबों डॉलर अमरीका व अरब देशों से कमाए . परन्तु आम अफगानी पाकिस्तान से बेहद नफरत करता है पर इसकी पकिस्तान को कोई परवाह नहीं है . वहां की सेना सिर्फ युद्ध की बात समझती है और युद्ध की स्थिति मैं तालिबान सरकार से पाकिस्तान को अधिक लाभ है . तो पाकिस्तान ने अपना कोई पैसा तो नहीं खर्च किया पर सैन्य व् आर्थिक लाभ पूरा ले लिया . उसका इस्लामी देश होना सिर्फ एक मुखौटा है और अफगान जनता के लिए महत्व हीन है . भारत अफगानिस्तान में सदा एक मित्र राष्ट्र माना जाएगा .
चीन की स्थिति भिन्न् है . चीन ने तालिबान की पुरानी सरकार की और इस युद्ध मैं तालिबान की गुप्त रूप से मदद की जिसके कारण तालिबान के नेताओं पर उसका बड़ा प्रभाव है . जनता भी चीन को एक अमीर देश के रूप मैं जानती है जो उनकी मदद कर सकता है . पर चीन बेहद स्वार्थी है . वह मदद अपने स्वार्थ को पाने के लिए करता है . उस ने बेहद रिश्वत दे कर पिछली सरकार में अफगानिस्तान की ayank ताम्बे की विश्व की सबसे बड़ी खदाने खरीद ली थीं . अब तक अमरीका उसे खनिज निकालने नहीं दे रहा था . अब चीन अपना हक़ मांगेगा .इसी तरह अब लड़ाई यूरेनियम व् लिथियम के भंडारों के लिए व् सीपेक को ताजीकिस्तान , तुर्कमेनिस्तान आदि मध्य एसियायी देशों तक पहुँच देने के लिए है . चीन सिर्फ इसके बदले बड़ी आर्थिक सहायता देगा . उसका उद्देश्य रूस , ईरान , चीन व् अफगानिस्तान पाकिस्तान धुरी बनाने मैं है जिस पर उसका दबदबा होगा . भारत व् जापान की तरह केवल मानवीय आधारों पर मदद पर पैसा खर्च नहीं करता है .पर श्री लंका , नेपाल , बांग्लादेश , बर्मा , मालदीव मैं उसकी चीन को रोकना चाहता है रिश्रवत की रणनीति बहुत सफल रही है .
अमरीका की नीतियों मैं अब आदर्श नहीं रहा वह भी किसी तरह अपना विश्व पर प्रभुत्व बचाने मैं पैसा खर्च करता है . रूसके पास देने के लिए पैसा है ही नहीं न ही यूरोप के देशों के पास पैसा है . अमरीका व् यूरोप चीन भारत को लडवा कर अपनी सुरक्षा बढाने मैं इच्छुक हैं . वह भारत की लागत पर चीन को रोकना चाहते हैं . रूस इसे बहुत पहले भांप गया था और उसका ब्रिक्स का सगठन बहुत अच्छा चल रहा था . चीन ने लद्दाख व् दोक्लाम मैं घुस कर रूस के सपने को चकना चूर कर दिया .
ऐसे मैं भारत को सोचना होगा की इस आदर्श हीन विश्व मैं क्या वह अकेला आदर्शों की मशाल लिए कब तक चल सकता है . अगर वह तालिबान से सिर्फ पाकिस्तान को रोकना चाहता है तो कुछ खर्चे मैं यह संभव हो जाएगा . पाकिस्तान के पास देने के लिए कुछ भी नहीं है .पर चीन को अमरीका ही रोक सकता है . अमरीका इसकी कीमत भारत से वसूलना चाहेगा . वह बिना हमारे लाभ के अफगानिस्तान मैं हमारा खर्चा करवाएगा .
भारत को भी अब पुण्य पाने वाला दान देना सीखना होगा . भारतीय दान के बदले अमरीका को पकिस्तान की बलि देनी होगी और लिथियम व् अन्य खनिज हमें दिलाने होंगे .
कलियुग मैं भारत सतयुग की मान्यताओं से नहीं जी सकता .