Killing Middle Class By Over Taxation : भ्रमित दूकानदारी बुद्धि भारतीय अर्थव्यवस्था को चौपट कर रही है
वर्षों से झूठे आंकड़ों के बल पर ऊंची आर्थिक प्रगति का मायाजाल बिछाने वाले अब अपने ही मकड जाल मैं फंसने लगे हें .
उंचे टैक्स स्लैब्स और हर चीज पर जीएसटी लगा कर और मंहगाई से दस साल मैं वेतन भोगी वर्ग की क्रय शक्ति तीन चौथाई रह गयी . सरकारी प्रचारतंत्र बीस साल बाद और २०३० के भारत के सपने दिखा कर रिझा रहा था . देश देख रहा था कि पहले नौकरियां गयीं , फिर कॉलेज की इंजीनियरिंग और एम् बी ए की सीटें खाली होने लगीं , फिर शिक्षित बेरोजगारों को पकोड़े बेचने कि सलाह दी गयी . फिर और नए झूठ गढ़े गए , जीडीपी के आंकड़ों मैं टैक्स और लाभ को जोड़ कर गिरती अर्थ व्यवस्था की सच्चाई छुपाई गयी . और आंकड़ों का खेल देखिये , यदि टैक्स बढ़ जाय और सब्सिडी घट जाय तो आंकड़ों मैं जीडीपी बढ़ जाएगी पर वास्तविता मैं जनता की क्रय शक्ति घट जायेगी . २०१२-१३ की मंहगाई को कम करने के अलावा देश कि कोई ऐसी आर्थिक उपलब्धि नहीं है जिस पर बहुत गर्व किया जा सके .हाँ रूस के सस्ते तेल ने मंहगाई की मार से जरूर बचाया .
देश की अर्थव्यवस्था को डरे हुए अफसरों और प्रेस कि सहयता से छोटे बड़े दूकानदार चला रहे हें .वह शिक्षित मध्यम वर्ग को रिश्वती या फालतू मानते हें और सारी आर्थिक नीतियाँ चुनाव जीतने और सेठों को और अमीर बनाने पर केन्द्रित होती है . उदाहरण के लिए जब जीएसटी आया था तो पहले वर्ष टैक्स वसूली बीस हज़ार करोड़ घट गयी थी . वह बीस हज़ार करोड़ गए कहाँ ? दुकानदारों ने कम टैक्स दिया और उनका मुनाफ़ा बढ़ गया . फिर उद्योग पतियों के लाखों करोड़ के बैंक लोन माफ़ हो गए . कोविद के दौरान मंहगाई भत्ता नहीं दिया . तो मुफ्त की वैक्सीन का खर्चा किसने उठाया ईमानदारी से टैक्स देने वालों ने . सरकार टैक्स रेटर्न कि बढ़ोतरी तो बताती है पर उसमें कितने जीरो टैक्स या बहुत कम टैक्स देने वालों की संख्या नहीं बताती . सच्चाई यह है कि वेतन भोगी वर्ग औसत से तिगुना टैक्स देता है . अमीर डॉक्टर , वकील, उद्सीयोगपति , दूकानदार बहुत कम टैक्स देते हें . टैक्स को बचा कर दूकानदार पार्टियों को चन्दा देकर उन पर राज्य करता है. इसका ज्वलंत उदाहरण है की देश मैं लक्सरी कार ,घर इत्यादी कि मांग तो बहुत बढ़ गयी पर सस्ते मोबाइल, घर , कार की बिक्री घट गयी.
सरकार टैक्स बढ़ा कर वोट बैंकों को मुफ्त चीज़ें बाँट रही है . देश का राशन का सस्ता चावल विदेशों को एक्सपोर्ट होता पकड़ा गया . अस्सी करोड़ लोगों को मुफ्त राशन क्यों बांटा जा रहा है वह भी माध्यम वर्ग को गरीब बना कर ?क्यों महिलाओं को मुफ्त बसों मैं चढ़ाया जा रहा है . अत्यंत गरीब दस प्रतिशत को मदद समझ आती है . दो तीन एकड़ जमीन वाले किसानों को मदद समझ आती है .पर अस्सी प्रतिशत जनता को राशन हम क्यों दें .इसी तरह भारतीय फक्ट्रियाँ बंद कर चीनी माल बेच कर मुनाफ़ा कमाया जा रहा है.
असल मैं दुकानदारों की सरकार, मध्यम वर्ग को एक कभी न खतम होने वाला कुआं समझ रही थी जिसका जितना मर्जी खून चूस लो . अब बड़े उद्योग पतियों ने डरते डरते सच्चाई बता दी . नेस्ले जैसी खाने का सामान बेचने वाली कंपनियों ने हाथ उठा दिए हें . उनकी बिक्री अब मात्र १.५ प्रतिशत कि दर से बढ़ी है जब कि यह दस प्रतिशत होती थी . तो अब मध्यम वर्ग पुनः १९९२ कि स्थिति मैं आने वाला है जब टमाटर कि सौस कि बोतल फिर से ऊँचे लोगों के घरों मैं ही खाई जायेगी . कार नहीं खरीदी तो कोई बात नहीं अब तो खाने के लाले पड़ने वाले हें .
बिकाऊ मीडिया अभी भी विकसित भारत , विश्व की तीसरी अर्थ व्यवस्था वाला भारत , २०४७ के भारत इत्यादि की मृग मरीचिका मैं अनजान जनता को फंसाने की कोशिश कर रहा है . वास्तविकता यह है कि यदि अदानी संसार के बीस बड़े पोर्ट खरीद ले और बीस बड़ी खदाने खरीद ले तो उससे वेतन भोगी वर्ग को क्या फायदा . उसकी नौकरियां गायब होती जा रही हें और हम सड़क की बातें करके कब तक अपनी पीड़ा को छुपायेंगे.
अगर सीख सकें तो १९९२ – २००० के मन मोहन काल से सीखें . मल्टी नेशनल ने भारत मैं तनख्वाहें बढ़ा दीं . इन बढी तनख्वाह से माल चल निकले . नया शिक्षित युवा वर्ग कार , घर खरीदने लगा . सब तरफ खुशहाली आ गयी . आज सरकारी दूकानदार इस सोने के अंडे देने वाली मुर्गी का पेट काटने पर तुले हें .
सरकार को वेतन भोगी वर्ग से अपनी दुर्भावना समाप्त उनका स्टैण्डर्ड डिडक्शन पांच लाख रूपये , ३० % टैक्स को २० लाख और बीस प्रतिशत को दस लाख की सीमा पर लगाना चाहिए . इन बीस साल से अधिक पुरानी सीमाओं को बदलना परम आवश्यक है. यह कोई दान नहीं बल्कि अब तक के किये गए अन्याय का प्रतिकार ही है .