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बजट मैं संभावित टैक्स कट मैं भी कंजूसी व अदूरदर्शिता  : दुविधा मैं दोऊ गए , माया मिली न राम 

बजट मैं संभावित टैक्स कट मैं भी कंजूसी व अदूरदर्शिता  : दुविधा मैं दोऊ गए , माया मिली न राम

राजीव उपाध्याय

कुछ बड़ी वेबसाईट पर खबर है कि सरकार नयी टैक्स प्रणाली को  लोक प्रिय बनाने के लिए और मध्यम वर्ग को राहत देने के नाम पर  संभवतः दस लाख तक की आय कि टैक्स दर घटा देगी . मध्यम  वर्ग को राहत देने मैं अतीत की  कंजूसी को देखते हुए संभावना है की नयी स्कीम मैं टैक्स फ्री  कुल आय  की सीमा को सात लाख से बढ़ा कर बढ़ा कर दस लाख कर देगी या सात से दस लाख की आय पर कर दर ५ प्रतिशत कर देगी . बाकी मध्यम वर्ग ,इस बजट मैं भी अपने अस्तित्व को बचाने के लिए ,पकोड़े बेचने के फिर नए तरीके ढूंढने लगेगा और असफल हो कर बैठ जाएगा.

परचूनियों और दूकानदारों कि सरकार वैज्ञानिकों , अध्यापकों , इंजीनियरों  को महत्वहीन मानती है क्योंकि न वह वोट बैंक हें और न ही पार्टी को मोटा चन्दा देते हें . इसरो या डीआरडीओ के बड़े   वैज्ञानिक  या यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर या देश को विदेशी मुद्रा भर भर कर लाने वाले सॉफ्टवेर इंजीनियर  बढी उम्र मैं  पकोड़े बेचने को अपनी इज्ज़त का सौदा क्यों मानते हें यह दूकानदारों को समझ मैं नहीं आता है.

आज यह टैक्स की चोरी  कर पार्टियों  को चन्दा देने वाले देश पर राज कर रहें हें और जीवन भर पढ़ाई के माध्यम से अर्जित ज्ञान को धन मानने वाले  लोग जो वेतन से इमानदारी से टैक्स देते हें  टैक्स चोरों के सामने सामने भीख का कटोरा लिए खड़े हें . ऋषि मुनियों के देश मैं ज्ञान की इतनी बेईज्ज़ती हो जायेगी यह किसने सोचा था ? पर निकट भविष्य मैं ही देश इस झूठे विकास के आंकड़ों पर चलती दूकानदारों की  सरकार के दंभ व अभिमान की बड़ी कीमत चुकाएगा

एक समारोह  मैं बोलते हुए वित्त मंत्री ने वस्तुओं की मांग मैं आयी कमी को रिज़र्व बैंक व कॉर्पोरेट को जिम्मेवार बता कर पुनः अपनी गलती से पल्ला झाड लिया . यह निहायत आधारहीन व अदूरदर्शी वक्तव्य था  . निर्मला सीतारमण प्राइस वाटर हाउस कूपर मैं आर्थिक विश्लेषक का  कार्य कर चुकी हें . उन्हें अर्थ शास्त्र का ज्ञान नहीं हो ऐसा संभव नहीं है. पर वह किसी मजबूरी का  शिकार प्रतीत होती हें . लगता है बजट कोई और दूकानदार बनाता है और वह मात्र संसद मैं उसे पढ़ देती हैं.

बजट बनाने वाले को अपने आका की सरकार को बचाना है और अपनी तिजोरी भरनी है. इसलिए वह मध्यम वर्ग पर कर बढाता जा रहा है और व्यर्थ की मुफ्त की स्कीमों से वोट बैंक को खुश रख रहा है . पर यह काठ की हांडी  कब तक चढ़ेगी. ग्रीस , अर्जेंटीना , इटली इत्यादि अनेक देशों ने अंत मैं इसकी बड़ी कीमत चुकाई है . यही हाल भारत का होगा . जो लोग घर ,कार खरीदते हें वह सात लाख के वार्षिक वेतन वाले नहीं होते हें . एक लाख से मासिक ज्यादा वेतन वाली नौकरी तो गायब हो गयी हें . गाँव से  शहर आया युवा या शहर मैं माँ बाप के साथ रहने वाला युवा  आठ दस हज़ार की नौकरी से चुप बैठ रहा है . पर इस वर्ग से सस्ती चीज़ें तो बिकती हें पर अर्थ व्यवस्था ८-१० प्नरतिशत की विकास दर से नहीं बढ़ती है.

सरकार हर टैक्स की छूट मैं इतनी कंजूसी करती है कि उसका मध्यम वर्ग पर या अर्थ  व्यवस्था पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता. इस लिए पढ़ी लिखी वित्त मंत्री से बहुत आशा के साथ प्रार्थना है कि इस बार कम से कम अपने ज्ञान का उपयोग कर और एक बार साहस कर दूकानदारों के शिकंजे से मुक्त हों और  अमरीकी राष्ट्रपति ट्रम्प या  चिदंबरम जी कि तरह , पूरी टैक्स स्लैब को ऊपर उठा दें और दस लाख तक कि आय को टैक्स मुक्त कर बीस लाख तक दस प्रतिशत व तीस लाख के ऊपर तीस प्रतिशत की  टैक्स सीमा निर्धारित कर दें .

भारतीय अर्थ व्यवस्था पर  इसका  सुखद परिणाम एक साल मैं दीख जाएगा और देश उनका मनमोहनजी कि तरह ही कृतज्ञ हो जाएगा .

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