यदि मोदी सरकार अपनी नयी नीतियों के लिए कुछ समय चाहे व् तब तक पुरानी सरकार के अच्छे फैसलों पर क्रियान्वन करती रहे तो इसमें बुद्दिमत्ता ही होगी . परन्तु यदि उसने पुरानी सरकार का एक मात्र इमानदार व् पुरजोर संस्करण ही दिया जैसा की अटल बिहारी वाजपेयी ने किया था तो यह देश व् वोटरों के साथ छलावा होगा .उसका परिणाम भी अटल सर् कार के अगले चुनाव मैं लात मार कर निकलने जैसा ही होगा . आर्थिक व् विदेश नीतियों मैं इतना परिवर्तन शायद संभव व् आवश्यक नहीं है और केवल ज्यादा साहस व् इमानदारी से काम चल सकता है . उद्योंगों के विकास मैं जो बाधाएँ यूपीए – २ ने खड़ी कर दी गयीं थी उनके हट्ते ही विकास गंगा पुनः प्रवाहित होने लगेगी . विदेश निति तो पूरे देश की नीती होती है जिसमें कोई सरकार विशेष बदलाव जल्दी नहीं ला सकती .
देश के सामने चीन के युद्ध की हार ने एक मौका रास्ता बदलने का दिया था जिसे हमने गंवा दिया .इमरजेंसी के हटने के बाद एक मौक़ा फिर आया था जिसे हमने फिर गंवा दिया . यह देश की जनता ने तीसरी बार अपनी बदलाव की इच्छा व्यक्त की है .परन्तु नयी सांस्कृतिक व् विकास की नीतियों के बनने व् कार्यान्वन मैं यदि ज्यादा देर या हिचकिचाहट हुयी हुयी तो जरूर देशव्यापी रोष होगा जिसका परिणाम २००४ वाला ही होगा . इसी तरह अब मात्र आठ प्रतिशत प्रगति दर की बात नहीं है , देश अब छलांग लगाना चाहता है जो पिछले वर्षों की मंथर गति के खामियाजे को समाप्त कर भर सके व् देश को वह सब दे सके जो कांग्रेस के सीमित चिंतन ने नहीं दिया .इसके अलावा विगत तीस वर्षों मैं हिन्दुओं के साथ जो अन्याय हुए हैं उनका प्रतिकार आवश्यक है . हिन्दुओं व् हिन्दू संस्कृति को एक निम्न स्तर का दर्ज़ा दे कर उसके विनाश की जो गंगा कांग्रेस ने बहाई थी उसका शुद्धिकरण भी परम आवश्यक है .
इस लिए पिछली सरकार के स्थितावादी स्तंभों पर ज्यादा आश्रित न रह कर मोदी को नए प्रखर लोगों को प्रोत्साहित करना चाहिए . इस सरकार मैं कोई विशेष जानकार नहीं दीखता जिसके पास अपने कुछ क्रांतिकारी विचार हों और देश मैं जिसका आदर हो . इस समय देश मैं ऐसे एक विशेष व्यक्ती मात्र डा सुब्रमनियन स्वामी ही है . उनका सरकार मैं शामिल होना अत्यंत आवश्यक है . वह इस सरकार को यु पी ए – ३ मात्र बनने से रोकने मैं सक्षम हैं . सांस्कृतिक मामलों मैं ज्ञानी अरुण शौरी की पकड़ काफी गहरी है .
यदि कुछ इनके जैसे क्रांतिकारी व्यक्ती सरकार मैं नहीं दीखते तो धीरे धीरे स्थायित्व वादी ताकतें मोदी सरकार पर हावी हो जाएँगी जो अत्यंत दुर्भाग्य पूर्ण होगा .
नीच लिखा लेख भविष्य की खतरे की घंटी है .
Is the NDA nothing but UPA 3.0?
Gaining political mileage
There are many advantages a new political regime enjoys after forming its government at the Centre. One of them is that it can conveniently put the blame for all the ills of the economy and governance on its predecessor.
Similarly, it can brush up the decisions or proposals that its predecessor had put on hold in view of the impending elections and implement them quickly.
If such decisions are tough and provoke popular protests, it can seek shelter under the excuse that all it did was to implement a decision or a proposal mooted by the previous government.
If they are accepted without any ruffling of feathers, the new government can take credit for its purposeful and effective governance!
The National Democratic Alliance (NDA) government led by Narendra Modi completed 30 days in office last week and a few of its decisions in this period followed precisely this pattern of using its predecessor’s decisions conveniently to gain political advantage.
For instance, the monthly cycle of raising diesel prices by half a rupee a litre was continued without any change from what the United Progressive Alliance (UPA) government was doing for the last several months, barring a short interval when the code of conduct enforced by the Election Commission prevented such a decision from being taken.
A few senior appointments in the government, endorsed by the UPA government, were also similarly ratified.