गोवर्धन पूजा : तिल-तिल घट रहे गोवर्धन पर्वत का राज जाननें के लिए पढ़ें
गर्ग संहिता में ऋषि गर्गाचार्य जी के अनुसार जब भगवान श्रीकृष्ण धरती पर अवतरित हुए तो उन्होंने राधा रानी जी को भी धरती पर जाने का निर्देेश दिया। राधारानी की इच्छा की पूर…्ति के लिए भगवान श्रीकृष्ण की लीला से गोवर्धन पर्वत वृंदावन में लाया गया।
गर्ग संहिता की कथा के अनुसार गोवर्धन द्रोणाचल के पुत्र हैं। एक बार पुलस्त्य ऋषि ने गोवर्धन पर्वत की सुन्दरता को देखकर उसके पिता द्रोणाचल से कहा कि वह उसे अपने साथ काशी ले जाना चाहते हैं। पिता को यह बात अच्छी नहीं लगी परंतु ऋषि के श्राप के भय से उन्होंने पुलस्त्य ऋषि को अपना पुत्र दान में देते हुए उसे ले जाने की आज्ञा दे दी।
पिता ने कहा कि उनका पुत्र गोवर्धन 8 योजन अर्थात 64 मील लम्बा, 2 योजन ऊंचा तथा 5 योजन के घेरे में फैला हुआ है, इसकी परिक्रमा का घेरा ही 14 मील से अधिक है, वह उसे कैसे लेकर जाएंगे। तब गोवर्धन ने मुनि से कहा कि वह स्वयं को इस तरह का बना लेंगे कि उनके हाथ पर बैठकर जा सकें परंतु एक ही बार में वह जहां उन्हें रख देंगे वह वहीं रह जाएंगे।
पर्वत की बात मानकर मुनि ने पर्वत को उठाने के लिए अपना दायां हाथ आगे बढ़ाया तो गोवर्धन बहुत हल्के एवं छोटे आकार के बन कर ऋषि के हाथ पर बैठ गए। जब ऋषि पुलस्त्य पर्वत को ले जाकर काशी जा रहे थे तो गोवर्धन को ब्रजमंडल में भगवान श्रीकृष्ण, श्री राधा जी और सभी ग्वाल बालों और गोपियों की याद सताने लगी,उन्होंने मन ही मन ब्रज में रहने का मन बना लिया। इसी भावना से उन्होंने स्वयं को भारी करना शुरु कर दिया। मुनि पुलस्त्य का हाथ पर्वत के भार से जब थकने लगा तो वह पर्वत से की हुई प्रतिज्ञा भूल गए और उन्होंने पर्वत को ब्रज में विश्राम करने के लिए हाथ से उतारा।
मुनि जब विश्राम करके चलने लगे तो उन्होंने पर्वत को हाथ पर स्थापित होने के लिए कहा तब गोवर्धन ने उन्हें उनकी प्रतिज्ञा याद दिला दी, जिससे गोवर्धन वृंदावन में ही स्थापित हो गए। अपनी ही प्रतिज्ञा से हारे हुए मुनि पुलस्त्य जी को क्रोध आ गया तथा उन्होंने गोवर्धन को श्राप दे दिया कि मेरा मनोरथ पूरा नहीं हुआ, इसलिए तेरा सदा वृंदावन में रहने का मनोरथ भी पूरा न हो, प्रतिदिन तुम तिल तिल घटते हुए समाप्त हो जाओगे। मुनि के श्राप से गोवर्धन पर्वत घट रहा है तथा जब तक धरती पर गंगा जी रहेंगी तब तक कलि का प्रभाव नहीं होगा तथा जो भक्तजन जिस इच्छा से गोवर्धन परिक्रमा करेंगे वह अवश्य पूरी होगी।
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गर्ग संहिता की कथा के अनुसार गोवर्धन द्रोणाचल के पुत्र हैं। एक बार पुलस्त्य ऋषि ने गोवर्धन पर्वत की सुन्दरता को देखकर उसके पिता द्रोणाचल से कहा कि वह उसे अपने साथ काशी ले जाना चाहते हैं। पिता को यह बात अच्छी नहीं लगी परंतु ऋषि के श्राप के भय से उन्होंने पुलस्त्य ऋषि को अपना पुत्र दान में देते हुए उसे ले जाने की आज्ञा दे दी।
पिता ने कहा कि उनका पुत्र गोवर्धन 8 योजन अर्थात 64 मील लम्बा, 2 योजन ऊंचा तथा 5 योजन के घेरे में फैला हुआ है, इसकी परिक्रमा का घेरा ही 14 मील से अधिक है, वह उसे कैसे लेकर जाएंगे। तब गोवर्धन ने मुनि से कहा कि वह स्वयं को इस तरह का बना लेंगे कि उनके हाथ पर बैठकर जा सकें परंतु एक ही बार में वह जहां उन्हें रख देंगे वह वहीं रह जाएंगे।
पर्वत की बात मानकर मुनि ने पर्वत को उठाने के लिए अपना दायां हाथ आगे बढ़ाया तो गोवर्धन बहुत हल्के एवं छोटे आकार के बन कर ऋषि के हाथ पर बैठ गए। जब ऋषि पुलस्त्य पर्वत को ले जाकर काशी जा रहे थे तो गोवर्धन को ब्रजमंडल में भगवान श्रीकृष्ण, श्री राधा जी और सभी ग्वाल बालों और गोपियों की याद सताने लगी,उन्होंने मन ही मन ब्रज में रहने का मन बना लिया। इसी भावना से उन्होंने स्वयं को भारी करना शुरु कर दिया। मुनि पुलस्त्य का हाथ पर्वत के भार से जब थकने लगा तो वह पर्वत से की हुई प्रतिज्ञा भूल गए और उन्होंने पर्वत को ब्रज में विश्राम करने के लिए हाथ से उतारा।
मुनि जब विश्राम करके चलने लगे तो उन्होंने पर्वत को हाथ पर स्थापित होने के लिए कहा तब गोवर्धन ने उन्हें उनकी प्रतिज्ञा याद दिला दी, जिससे गोवर्धन वृंदावन में ही स्थापित हो गए। अपनी ही प्रतिज्ञा से हारे हुए मुनि पुलस्त्य जी को क्रोध आ गया तथा उन्होंने गोवर्धन को श्राप दे दिया कि मेरा मनोरथ पूरा नहीं हुआ, इसलिए तेरा सदा वृंदावन में रहने का मनोरथ भी पूरा न हो, प्रतिदिन तुम तिल तिल घटते हुए समाप्त हो जाओगे। मुनि के श्राप से गोवर्धन पर्वत घट रहा है तथा जब तक धरती पर गंगा जी रहेंगी तब तक कलि का प्रभाव नहीं होगा तथा जो भक्तजन जिस इच्छा से गोवर्धन परिक्रमा करेंगे वह अवश्य पूरी होगी।
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