द्वादश ज्योतिर्लिंग श्रंखला २: श्री मल्लिकार्जुन ,महाकाल ,ओंकारेश्वर ,केदारनाथ

 

 

द्वादश ज्योतिर्लिंग श्रंखला २: श्री मल्लिकार्जुन

हैदराबाद से करीब २०० किलोमीटर दूर आंध्र के कुर्नूल जिले के श्रीशैलम पहाड़ियों की प्राकृतिक सौंदर्य के बीच महादेव का द्वितीय ज्योतिर्लिंग श्रीमल्लिकार्जुन स्थित है। वैसे तो भगवान शिव के सभी ज्योतिर्लिंगों का अत्यधिक महत्त्व है पर उसपर भी ये ज्योतिर्लिंग अद्वितीय एवं विशेष है। इसका कारण ये है कि यहाँ महादेव के साथ-साथ माता पार्वती भी विराजती है तथा मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंगों में से एक होने के साथ-साथ शक्तिपीठों में से भी एक है। मल्लिकार्जुन दो शब्दों से मिलकर बना है – मल्लिका एवं अर्जुन। यहाँ मल्लिका का अर्थ देवी पार्वती एवं अर्जुन का अर्थ भगवान शंकर है। शक्तिपीठ के विषय में एक कथा है कि जब देवी सती ने आत्मदाह किया तब महादेव उनके मृत शरीर को लेकर शोक में इधर-उधर घूमने लगे। उनके इस प्रकार वैराग्य धारण करने पर सृष्टि का संतुलन बिगड़ गया। तब ब्रह्मदेव की प्रेरणा से भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से माता सती के मृत शरीर के ५१ भाग कर दिए। पृथ्वी पर जहाँ-जहाँ देवी सती के ये भाग गिरे वो शक्तिपीठ कहलाया। मल्लिकार्जुन में देवी सती के होंठ गिरे थे जिससे ये महाशक्तिपीठों में से एक बना। यहाँ पर भ्रामरी देवी का एक मंदिर भी है जहाँ पर देवी पार्वती ने भ्रमर के रूप में भगवान शिव की पूजा की थी।
इस ज्योतिलिंग के स्थापना के विषय में एक कथा ये है कि एक बार शिवपुत्र कार्तिकेय एवं गणेश में ये विवाद हो गया कि उनमे से श्रेष्ठ कौन है और किसका विवाह पहले किया जाये। तब देवी पार्वती ने कहा कि इसका निर्णय एक प्रतिस्पर्धा से किया जाये। तब ये निर्णय लिया गया कि जो कोई भी पृथ्वी की ७ परिक्रमाएँ पूर्ण कर पहले लौटेगा वही श्रेष्ठ माना जाएगा और उसका विवाह पहले होगा। ऐसा सुनकर कार्तिकेय अपने माता-पिता का आशीर्वाद लेकर अपने वहां मोर पर बैठ कर तीव्र गति से पृथ्वी की परिक्रमा करने निकल गए। ये देख कर गणेशजी सोच में पड़ गए। एक तो उनका स्थूल शरीर और ऊपर से उनका वाहन मूषक। तो वे किस प्रकार कार्तिकेय से विजित हो सकते थे? तभी उन्हें एक उपाय सूझा और उन्होंने वहाँ बैठे भगवान शिव एवं माता पार्वती की सात परिक्रमाएँ की और उनसे कहा कि उन्होंने संसार की सात परिक्रमाएँ पूर्ण कर ली है। भगवान शिव मुस्कुराये और पुछा ऐसा क्यों? तब विनायक ने कहा – “हे पिताश्री! मेरे लिए तो आप दोनों ही समस्त संसार हैं। और इस अतिरिक्त ये समस्त ब्रह्माण्ड तो स्वयं आपमें समाहित है। इसीलिए मेरे द्वारा की गयी आप दोनों की परिक्रमा पूरे ब्रह्माण्ड की परिक्रमा के सामान है।” महादेव ये सुनकर बड़े प्रसन्न हुए और नारायण एवं ब्रह्मदेव की सहमति के बाद उन्होंने श्रीगणेश को श्रेष्ठ एवं प्रथमपूज्य घोषित कर दिया। उसके बाद उनका विवाह “रिद्धि” एवं “सिद्धि” नामक दो कन्याओं से हुआ। थोड़े समय बाद जब कार्तिकेय पृथ्वी की सात परिक्रमाएँ कर वापस लौटे तो उन्होंने गणेश को अपनी पत्निओं और पुत्रों “क्षेम” एवं “लाभ” के साथ देखा। वे आश्चर्य में पड़ गए और सब बात ज्ञात होने के बाद वे बड़े रुष्ट हुए। उन्होंने भगवान शिव से कहा – “हे पिताश्री! ऐसा नहीं है कि मुझे ये ज्ञात नहीं कि आपकी महत्ता क्या है। गणेश की तरह आप दोनों ही मेरे भी संसार हैं किन्तु ये प्रतियोगिता तर्क एवं बुद्धि की नहीं अपितु बाहुबल की थी अतः मैं इस निर्णय से सहमत नहीं हूँ।” ये कहकर कार्तिकेय रूठकर क्रौञ्च पर्वत, जो आज का श्रीशैलम पर्वत है, पर चले गए।
अपने पुत्र को इस प्रकार रूठ कर जाता देख महादेव एवं देवी पार्वती बहुत दुखी हुए। उन्होंने सप्तर्षियों को कार्तिकेय को मना कर वापस लौटने को भेजा किन्तु वे नहीं आये। फिर उन्होंने देवर्षि नारद को उन्हें मानाने के लिए भेजा किन्तु वे भी कार्तिकेय को लौटाने में असफल रहे। तब महादेव और देवी पार्वती ने स्वयं क्रौञ्च पर्वत जाने का निर्णय किया। जब कार्तिकेय को पता चला कि उनके माता-पिता स्वयं उन्हें मानाने के लिए आ रहे हैं तो उन्होंने सोचा कि वे उनकी आज्ञा टाल नहीं सकते और वे वापस भी नहीं जाना चाहते, इसी कारण कार्तिकेय वहाँ से ३ योजन दूर एक अन्य पर्वत पर चले गए। जब शिव-पार्वती वहाँ पहुँचे तो अपने पुत्र को वहाँ ना पाकर बड़े दुखी हुए और कार्तिकेय के स्नेह में वहीँ मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग के रूप में स्थापित हो गए। कहा जाता है कि आज भी हर पूर्णिमा को देवी पार्वती एवं अमावस्या को भगवान शिव कार्तिकेय को ढूँढने के लिए वहाँ आते हैं। एक अन्य कथा के अनुसार एक बार राजा चन्द्रगुप्त की पुत्री चंद्रावती शैल पर्वत पर तपस्या कर रही थी। उसी समय उसने देखा कि आश्रम की कपिला गाय के स्तन से अविरल दुग्ध-धारा बह रही है। वे बड़े आश्चर्य में पड़ गयी और जब निकट जाकर देखा तो उन्होंने देखा कि कपिला वहाँ पड़े एक शिवलिंग का अपने दूध से अभिषेक कर रही है। तब चंद्रावती ने वहाँ एक मंदिर बना कर भगवान शिव की मल्लिका (बेली/चमेली) के पुष्पों से उनकी पूजा की जिससे उनका नाम मल्लिकार्जुन पड़ा।
ये महान शिवलिंग सदैव देव-दानव-मानव द्वारा पूजित रहा है। सतयुग में दैत्यराज हिरण्यकशिपु और उसके बाद उसका पुत्र प्रह्लाद भी इसकी पूजा करते थे। रावण के वध के बाद श्रीराम ने सीता, लक्ष्मण एवं हनुमान के साथ इस ज्योतिर्लिंग के दर्शन किये। द्वापर में श्रीकृष्ण ने पांडवों सहित इस ज्योतिर्लिंग की पूजा की थी। विजयनगर के सम्राट श्री कृष्णदेवराय ने इस मंदिर का पुनर्निमाण करवाया था। बाद में मराठा सम्राट छत्रपति शिवजी ने इस मंदिर के गोपुरम का निर्माण करवाया और एक निःशुल्क भोजनगृह खोला। वे प्रतिवर्ष इस ज्योतिर्लिंग के दर्शनों को आते थे। अहिल्याबाई होल्कर ने पातालगंगा के तट पर ८५२ सीढ़ियों का एक स्नानघाट बनवाया। जो कोई भी इस ज्योतिर्लिंग के दर्शन और पूजन करता है उसे हमेशा पुत्र सुख मिलता है और श्रावण में यहाँ पूजा करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है।

द्वादश ज्योतिर्लिंग श्रंखला ३: श्री महाकालेश्वर

आकाशे तारकं लिंगं पाताले हाटकेश्वरम् ।
भूलोके च महाकालो लिंड्गत्रय नमोस्तु ते ॥
अर्थात आकाश में तारक लिंग, पाताल में हाटकेश्वर लिंग तथा पृथ्वी पर महाकालेश्वर ही मान्य शिवलिंग है।
इस एक ही श्लोक से महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग की महिमा पता चलती है। मध्यप्रदेश के प्राचीन शहर उज्जैन दो चीजों के लिए प्रसिद्ध है। एक महाकुम्भ एवं दूसरे श्री महाकालेश्वर महादेव। कहते हैं कि ये शिवलिंग स्वयंभू है जिसके ऊपर बाद में मंदिर बना दिया गया। सोमनाथ की भांति ये मंदिर भी ज्योतिर्लिंग के साथ-साथ शक्तिपीठ भी माना जाता है जो यहाँ उनकी पत्नी महाकाली कहलाती है। सोमनाथ की ही भांति मुस्लिम शासकों ने महाकेश्वर मंदिर को भी नष्ट करने का पूरा प्रयास किया। सन १२३४ में मुग़ल शासक इल्तुतमिश ने इस मंदिर को ध्वस्त कर दिया किन्तु हमेशा की तरह शिवलिंग को कोई नुकसान नहीं पहुँचा। उसके बाद सभी राजाओं ने इस मंदिर की सुरक्षा का विशेष ध्यान रखा। कहा जाता है कि भगवान महाकाल के कारण ही महाराज विक्रमादित्य इतने महान सम्राट बने और उन्ही के कारण किसी और राज्य का उनके राज्य पर आक्रमण करने का साहस नहीं होता था। महाकवि कालिदास एवं विद्वान बाणभट्ट का कर्मक्षेत्र भी उज्जैन ही रहा और उनके काव्यों में महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग का प्रभाव साफ़ झलकता है। यही नहीं स्वयं श्रीकृष्ण ने अपनी शिक्षा-दीक्षा के लिए महाकाल की नगरी उज्जैन को ही चुना और महादेव के सानिध्य में केवल ६४ दिनों में ही ६४ कलाओं में वे पारंगत हो गए। कुम्भ मेले के समय तो उज्जैन और महाकालेश्वर की छटा देखते ही बनती है। महादेव को भस्म क्यों प्रिय है इसके बारे में आप विस्तार से यहाँ पढ़ सकते हैं। भगवान महाकाल की ये भस्मारती पूरे विश्व में प्रसिद्द है जिसे देखने के लिए विदेशों से भी लोग आते हैं और ये कई कारणों से विशिष्ट है:

  • यही एक ज्योतिलिंग है जिनकी आरती प्रतिदिन भस्म से की जाती है। ये प्रतिदिन प्रातः भगवान महाकाल को नींद से जगाने की क्रिया है।
  • हर दिन उनका श्रृंगार भिन्न तरीके से किया जाता है जिसमे भस्म का अत्यधिक प्रयोग किया जाता है।
  • पहले महाकाल की भस्मारती श्मशान के मुर्दे के भस्म से की जाती थी किन्तु अब ये प्रथा बंद हो गयी है। अब उनकी आरती कपिला गाय के गोबर के कंडे, शमी, पीपल और पलाश के भस्म से उनकी आरती और श्रृंगार किया जाता है।
  • आपको जानकर आश्चर्य होगा कि एक कापालिक योगी द्वारा सुप्रीम कोर्ट में ये अर्जी डाली गयी है कि महाकाल की आरती पहले की तरह ही श्मशान के मुर्दे की भस्म से की जाये। हालाँकि कोर्ट का ये कहना है कि पूजा कैसे की जाये इसमें कोर्ट कोई हस्तक्षेप नहीं करेगा किन्तु चूँकि भस्म लोगों को प्रसाद के रूप में दिया जाता है इसी कारण मुर्दे की भस्म का प्रयोग करना उचित नहीं है।
  • महाकाल की भस्म प्रसाद के रूप में लोग ग्रहण करते हैं। कहते हैं जो भी महाकाल ज्योतिर्लिंग के दर्शन कर उसकी भस्मारती को ग्रहण करते हैं उन्हें निश्चय ही मोक्ष की प्राप्ति होती है।
  • महाकाल की भस्मारती को स्त्रिओं को देखना मना है इसी कारण भस्मारती के समय महिलाओं को या तो वहाँ प्रवेश नहीं मिलता अथवा जो भी स्त्रियाँ वहाँ हो उनका चेहरा कपडे या घूँघट से ढक दिया जाता है।
  • भस्मारती के समय पुजारियों को केवल एक कटिवस्त्र (धोती) पहनने की अनुमति होती है। उसके अतिरिक्त वे और कोई वस्त्र धारण नहीं कर सकते।
वर्तमान का महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग तीन भागों में बटा हुआ है। ऊपरी खंड में श्री नागचंद्रेश्वर, मध्य में श्री ॐकारेश्वर एवं निचले गर्भगृह में महाकालेश्वर विद्यमान हैं। गर्भगृह में महाकाल पश्चिम में श्रीगणेश, उत्तर में माता पार्वती, पूर्व में कार्तिकेय एवं दक्षिण में नंदी से घिरे हैं। इस ज्योतिर्लिंग के विषय में एक कथा प्रचलित है कि प्राचीन काल में उज्जैन में राजा चन्द्रसेन का राज्य था। उनके राज्य में दूषण नाम के एक दैत्य ने आतंक मचाना आरम्भ कर दिया। देव, दानव, मानव, गन्धर्व सभी उससे आतंकित रहते थे क्योंकि उसे ब्रह्माजी का वरदान प्राप्त था कि उसे कोई हरा या मार नहीं सकता। उसके अत्याचार से जब सब त्राहि-त्राहि करने लगे तब ब्रह्मदेव की प्रार्थना पर महादेव ने उज्जैन में महाकाल का अवतार लिया और दूषण सहित सभी असुरों का समूल नाश कर दिया। उसके बाद चन्द्रसेन और समस्त प्रजा ने उनसे प्रार्थना की कि भविष्य में भी किसी भी आपदा से रक्षा के लिए वे वही रुक जाएँ। तब उनकी इच्छा पूरी करने के लिए महादेव वहाँ महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग के रूप में स्थित हो गए। एक और कथा के अनुसार चन्द्रसेन की महादेव के प्रति अनन्य भक्ति देख कर एक बालक कहीं से एक पथ्थर लेकर उसकी पूजा करने लगा। उसे अपनी कोई सुध-बुध नहीं रही। जब उसकी माता उसे बुलाने आयी तब भी वो समाधि में लीन रहा। तब उसकी माता ने क्रोध में आकर उस शिवलिंग को उठा कर फेक दिया जिससे बालक अत्यंत दुखी हुआ। तब महादेव के चमत्कार से वहां एक भव्य मंदिर का निर्माण हो गया और तभी वहाँ रामभक्त श्री हनुमानजी अवतरित हुए और उन्होंने उस बालक को गोद में बैठाकर सभी राजाओं और उपस्थित जन को सम्बोधित किया:
ऋते शिवं नान्यतमा गतिरस्ति शरीरिणाम्‌॥
एवं गोप सुतो दिष्टया शिवपूजां विलोक्य च॥
अमन्त्रेणापि सम्पूज्य शिवं शिवम्‌ वाप्तवान्‌।
एष भक्तवरः शम्भोर्गोपानां कीर्तिवर्द्धनः
इह भुक्तवा खिलान्‌ भोगानन्ते मोक्षमवाप्स्यति॥
अस्य वंशेऽष्टमभावी नंदो नाम महायशाः।
प्राप्स्यते तस्यस पुत्रत्वं कृष्णो नारायणः स्वयम्‌॥
अर्थात शिव के अतिरिक्त प्राणियों की कोई गति नहीं है। इस गोप बालक ने अन्यत्र शिव पूजा को मात्र देखकर ही, बिना किसी मंत्र अथवा विधि-विधान के शिव आराधना कर शिवत्व-सर्वविध, मंगल को प्राप्त किया है। यह शिव का परम श्रेष्ठ भक्त समस्त गोपजनों की कीर्ति बढ़ाने वाला है। इस लोक में यह अखिल अनंत सुखों को प्राप्त करेगा व मृत्योपरांत मोक्ष को प्राप्त होगा। इसी के वंश का आठवाँ पुरुष महायशस्वी नंद होगा जिसके पुत्र के रूप में स्वयं नारायण कृष्ण के नाम से अवतरित होंगे। तब से ये मान्यता है कि महाकाल के रहते उज्जैन का कोई अनिष्ट नहीं हो सकता। जय महाकाल।।

द्वादश ज्योतिर्लिंग श्रंखला ४: श्री ॐकारेश्वर

मध्यप्रदेश के खण्डवा जिले में परम पावन नर्मदा नदी के बीच स्थित शिवपुरी द्वीप पर भगवान महादेव का चौथा ज्योतिर्लिगं श्री ॐकारेश्वर स्थित है। शिवद्वीप, जिसे मान्धाता द्वीप भी कहते हैं, उसकी आकृति भी आश्चर्यजनक रूप से ॐ के समान है। इस ज्योतिर्लिंग के साथ-साथ नर्मदा नदी का भी बड़ा महत्त्व है। शास्त्र कहते हैं कि जो फल यमुना में १५ स्नान और गंगा में ७ स्नान करने पर मिलता है वो ॐकारेश्वर महादेव की कृपा से नर्मदा के दर्शन मात्र से मिल जाता है। इस ज्योतिर्लिंग की महत्ता का अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि ये मान्यता है कि भले ही आप चारो धाम की यात्रा कर लें और चाहे कितने ही तीर्थ कर लें, जब तक आप ॐकारेश्वर ज्योतिर्लिंग पर जल नहीं चढ़ाते, तब तक आपको अधूरा पुण्य ही प्राप्त होता है। ऐसी मान्यता है कि भगवान शिव प्रतिदिन सभी लोकों की परिक्रमा कर यही आकर विश्राम करते हैं। इसी कारण इस मंदिर में प्रत्येक दिन महादेव की विश्राम आरती की जाती है और प्रतिदिन यहाँ तीन बार पूजा की जाती है। स्कन्द पुराण एवं शिव पुराण में ॐकारेश्वर की महिमा का विस्तार से वर्णन किया गया है। ओम्कारेश्वर में ६८ तीर्थ, ३३ करोड़ देवता, १०८ प्रभावशाली शिवलिंग तथा ८४ योजन का विस्तार करने वाली माँ नर्मदा का विराट स्वरुप विद्यमान है जिसके के दर्शन मात्र से समस्त पाप भस्म हो जाते है। अहिल्याबाई होकर ने यहाँ पर १८००० शिवलिंगों का विसर्जन किया था। आज भी यहाँ उतने ही शिवलिंगों के विसर्जन की प्रथा है। यहाँ के गर्भ गृह को बंद ही रखा जाता है और यहाँ के राजपरिवार के द्वारा इसे खोलने की मनाही है। ऐसा माना जाता है कि गर्भगृह में एक विशाल खजाना रखा है।
प्राचीन कथा के अनुसार इक्ष्वाकु कुल में श्रीराम के पूर्वज युवनाश्व के पुत्र मान्धाता हुए जिसे स्वयं देवराज इंद्र ने पाला और शिक्षित किया। जिस समय मान्धाता का जन्म हुआ उस समय समस्त ग्रह उच्च राशि में स्थित थे जिस कारण वे अत्यंत पराक्रमी हुए। आगे चल कर उन्होंने १०० अश्वमेघ यज्ञ किये और चक्रवर्ती सम्राट बने। उन्ही मान्धाता ने भगवान शिव के दर्शन हेतु नर्मदा नदी के तट पर कठोर तपस्या की जिससे महादेव ने उन्हें दर्शन दिए। वरदान के रूप में मान्धाता ने भगवान शिव से वही रहने की प्रार्थना की जिससे उन्हें प्रतिदिन उनके दर्शन होते रहे। इस प्रकार का वरदान माँगने पर परमपिता ब्रह्मा अत्यंत हर्षित हुए और उनके कंठ से “ॐ” का उच्चारण हुआ और उसी समय भगवान शंकर वहाँ ज्योतिर्लिंग के रूप में स्थापित हो गए। ब्रह्मदेव द्वारा ॐकार करने के कारण उनका नाम ॐकारेश्वर महादेव पड़ा। उन्होंने मान्धाता को ये आशीर्वाद भी दिया कि उन्ही के वंश में आगे चल कर भगवान विष्णु अवतार लेंगे। मान्धाता के नाम पर ही इस द्वीप को शिवद्वीप के साथ-साथ मान्धाता द्वीप भी कहा जाता है। एक अन्य कथा के अनुसार इसी जगह कुबेर ने महादेव की तपस्या की थी जिससे प्रसन्न होकर उन्होंने कुबेर को यक्षों का अधिपति एवं धन का देवता बना दिया। साथ ही साथ उन्होंने कुबेर को लंका नगरी भी प्रदान की जिसे बाद में रावण ने कुबेर से छीन लिया और तब भगवान रूद्र ने कुबेर को अलकापुरी का स्वामी बना दिया। यही पर महादेव ने अपनी जाता से कावेरी नदी को उत्पन्न किया जो उनकी परिक्रमा करके नर्मदा नदी में मिल गयी। आज भी कावेरी की धारा नर्मदा में मिलती हुई देखी जा सकती है।
ॐकारेश्वर मंदिर के बहरी परिसर में अमलेश्वर (ममलेश्वर) महादेव का मंदिर है और इसे भी ज्योतिर्लिंग ही माना जाता है। ये मंदिर अहिल्याबाई होल्कर के द्वारा बनवाया गया था जिसकी वास्तुकला बेजोड़ है। ॐकारेश्वर महादेव के दर्शनों के बाद अमलेश्वर महादेव के दर्शनों का प्रावधान है। कहते हैं अमलेश्वर महादेव के दर्शनों के बिना ॐकारेश्वर महादेव के दर्शन का फल नहीं मिलता है। ॐकारेश्वर शिवलिंग स्वयंभू है और पूर्ण रूप से प्रकृतिक है। यहाँ की परिक्रमा दो प्रकार की मानी जाती है – बड़ी एवं छोटी जो तीन दिन में पूरी होती है जिसमे अनेक छोटे-बड़े मंदिरों के दर्शन होते हैं।
  • पहले दिन: कोटेश्वर, हाटकेश्वर, त्र्यम्बकेश्वर, गायत्रीश्वर, गोविन्देश्वर, सावित्रीश्वर, भूरीश्वर, श्रीकालिका, पंचमुख गणपति, नन्दी, शुकदेव, मान्धांतेश्वर, मनागणेश्वर, श्रीद्वारिकाधीश, नर्मदेश्वर, नर्मदादेवी, महाकालेश्वर, वैद्यनाथेश्वरः, सिद्धेश्वर, रामेश्वर, जालेश्वर, विशल्येश्वर, अन्धकेश्वर, झुमकेश्वर, नवग्रहेश्वर, मारुति, साक्षीगणेश, अन्नपूर्णा, तुलसीजी, अविमुक्तेश्वर, दरियाईनाथ, बटुकभैरव, मंगलेश्वर, नागचन्द्रेश्वर, दत्तात्रेय एवं काले-गोरे भैरव के दर्शन होते हैं।
  • दूसरे दिन: गोदन्तेश्वर, खेड़ापति हनुमान, मल्लिकार्जुनः, चन्द्रेश्वर, त्रिलोचनेश्वर, गोपेश्वर, पिशाचमुक्तेश्वर, केदारेश्वर, सावित्री-कुण्ड, यमलार्जुनेश्वर, श्रीरणछोड़जी, ऋणमुक्तेश्वर, हिडिम्बा-संगम तीर्थ, गौरी-सोमनाथ, अन्नपूर्णा, अष्टभुजा, महिषासुरमर्दिनी, सीता-रसोई, आनन्द भैरव, पंचमुख हनुमान, षोडशभुजा दुर्गा, अष्टभुजादेवी, आशापुरी माता, सिद्धनाथ, दशभुजादेवी, अर्जुन तथा भीम की मूर्तियों, भीमाशंकर, कालभैरव, जूने कोटितीर्थ, सूर्यकुण्ड, चौबीस अवतार, पशुपतिनाथ, गयाशिला, एरंडी-संगमतीर्थ, पित्रीश्वर एवं गदाधर-भगवान , कालेश्वर, छप्पनभैरव तथा कल्पान्तभैरव के दर्शन होते हैं।
  • तीसरे दिन: इस मान्धाता द्वीप से नर्मदा पार करके इस ओर विष्णुपुरी और ब्रह्मपुरी की यात्रा की जाती है। विष्णुपुरी के पास गोमुख से बराबर जल गिरता रहता है। यह जल जहाँ नर्मदा में गिरता है, उसे कपिला-संगम तीर्थ कहते हैं। गोमुख की धारा गोकर्ण और महाबलेश्वर लिंगों पर गिरती है। यह जल त्रिशूलभेद कुण्ड से आता है जिसे कपिलधारा कहते हैं। वहाँ से इन्द्रेश्वर और व्यासेश्वरका दर्शन करके अमलेश्वर के दर्शन होते हैं।

 

द्वादश ज्योतिर्लिंग श्रंखला ५: श्री केदारनाथ

कहा जाता है कि ज्योतिर्लिंगों में केदारनाथ वैसे ही सुशोभित होते हैं जैसे ग्रहों के बीच में सूर्यनारायण। उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले में हिमालय के “केदार” नामक चोटी पर बसे ये स्थान इतना मनोरम है कि यही बस जाने को जी चाहता है। किन्तु ये स्थान मनोरम होने के साथ-साथ दुर्गम भी है। इस ज्योतिर्लिंग का महत्त्व इसी लिए भी अधिक है क्यूंकि ये ज्योतिर्लिंग होने के साथ-साथ चार धामों में से भी एक है। साथ ही साथ ये पञ्च-केदार में से भी एक है। बद्रीनाथ धाम के निकट इस धाम पर आपको हरि (बद्री) और हर (केदार) का अनोखा सानिध्य देखने को मिलता है। कहा गया है:
अकृत्वा दर्शनं वैश्वय केदारस्याघनाशिन:।
यो गच्छेद् बदरीं तस्य यात्रा निष्फलतां व्रजेत्।।
अर्थात जो भी व्यक्ति केदारनाथ के दर्शन के बिना बदीनाथ के दर्शन को आता है उसे उस दर्शन का फल प्राप्त नहीं होता, अर्थात उसकी बद्रीनाथ यात्रा व्यर्थ हो जाती है।
ये मंदिर समुद्र तल से करीब ११७५० फ़ीट ऊपर स्थित है। ये मंदिर वास्तव में कितना पुराना है इसका कोई आधिकारिक प्रमाण तो नहीं है किन्तु भारत की प्रसिद्ध केदारनाथ यात्रा पिछले १००० से भी अधिक वर्षों से निरंतर चल रही है। २०१३ में उत्तराखंड में आये विनाशकारी बाढ़ और भूस्खलन से केदारनाथ मंदिर सबसे अधिक प्रभावित हुआ जिसमे इसके मुख्य द्वार को बड़ी क्षति पहुँची किन्तु मूल शिवलिंग को कोई नुकसान नहीं हुआ। केदारनाथ के मूल मंदिर का निर्माण अर्जुन के पड़पोते, अभिमन्यु के पौत्र एवं परीक्षित और माद्रवती के पुत्र जन्मेजय ने करवाया था। उसके बाद इसका जीर्णोद्धार आठवीं शताब्दी में आदि-शंकराचार्य द्वारा करवाया गया। ग्वालियर के भोज राजा के स्तुति पत्र से ये पता चलता है कि आधुनिक मंदिर उनके द्वारा १०८० से १०९० ईस्वी के बीच बनवाया गया था। इस मंदिर के मुख्य द्वार पर नंदी की एक विशाल प्रतिमा है। इस मंदिर के पुजारी केवल मैसूर के जँगम ब्राह्मण ही होते हैं। प्राकृतिक प्रतिकूलताओं के कारण इस ज्योतिर्लिंग के दर्शन अप्रैल से नवम्बर के बीच होते हैं। मंदिर प्रतिदिन प्रातः ०६:०० बजे खुलता है। दोपहर तीन बजे इसमें एक विशेष पूजा होती है जिसके बाद इसे विश्राम के लिए बंद कर दिया जाता है। शाम के ०५:०० बजे इसे फिर से खोला जाता है और ०७:३० बजे पञ्चमुख शिव की आरती के बाद ०८:३० बजे इसे बंद कर दिया जाता है। 
पौराणिक कथा के अनुसार एक बार भगवान विष्णु को महादेव की तपस्या करने की इच्छा हुई इसी कारण उन्होंने नर एवं नारायण अवतार लेकर इसी जगह भगवान शिव की तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर महादेव ने उन्हें दर्शन दिए और उनसे वरदान मांगने को कहा। तब उन्होंने कहा कि द्वापर युग में वे दोनों कृष्ण-अर्जुन केरूप में अवतार लेंगे। उस समय वे अपनी कृपा उनपर बनाये रखें। साथ ही साथ उन्होंने भगवान शिव से उसी जगह पर स्थित रहने की प्रार्थना की जिसे स्वीकार कर महदेव उस स्थान पर केदारनाथ ज्योतिर्लिंग के रूप में स्थापित हो गए। जब देवी पार्वती महादेव की तपस्या कर रही थी तो वे अत्यंत थक गयी और जीर्ण अवस्था में स्नान के लिए वहाँ एक कुंड में पहुँची। किन्तु उस कुण्ड का पानी अत्यंत ठंडा था, तब भगवान शिव की कृपा से उस कुंड का पानी गर्म हो गया और देवी पार्वती ने उस कुंड में स्नान किया। वो कुंड आज गौरी कुंड के नाम से जाना जाता है और इतने ठन्डे मौसम में भी उस कुंड का पानी आश्चर्यजनक रूप से हल्का गर्म रहता है। स्कंदपुराण की एक कथा के अनुसार एक बड़ा क्रूर एवं हिंसक बहेलिया था जो घुमते हुए केदार क्षेत्र में आ गया। यहाँ उसे देवर्षि नारद दिखे जिन्हे वो बहेलिया मारने को उद्धत हुआ। तब देवर्षि ने उसे उस क्षेत्र एवं भगवान शिव की महिमा बताई और कहा कि इस क्षेत्र में जिसकी भी मृत्यु होती है वो अवश्य ही शिवलोक में जाता है। देवर्षि नारद के सत्संग से वो बहेलिया उनके चरणों में गिर पड़ा और फिर सदा के लिए केदार क्षेत्र में ही बस गया। भगवान शिव की कृपा से वो एक महान भक्त बना और अंततः शिवलोक को प्राप्त हुआ।
ये स्थान पञ्च केदार में से एक है। स्कंदपुराण में ही वर्णित एक अन्य कथा के अनुसार एक बार दैत्य हिरण्याक्ष (ये हिरण्यकशिपु का भाई हिरण्याक्ष नहीं है) ने इंद्र को उसके पद से च्युत कर दिया और उसके अत्याचार से पृथ्वी त्राहि-त्राहि कर उठी। तब इंद्र ने महादेव से अनुरोध किया कि वे सृष्टि को हिरण्याक्ष के आतंक से मुक्त करवाएं। तब इंद्र के अनुरोध पर भगवान शिव ने उनसे पूछा कि “के दरियामिः” अर्थात वो किस किस का नाश करें? तब इंद्र ने उन्हें हिरण्याक्ष सहित पाँच दैत्यों के नाम बताये। फिर महारुद्र एक महिष के रूप में उन पाँच स्थानों पर गए और हिरण्याक्ष सहित अन्य चार दैत्यों को जल में डुबा कर उनका नाश कर दिया। तब इंद्र ने उनकी स्तुति की और उनसे प्रार्थना की कि वे उसी स्थान पर स्थापित हो जाएँ। तब महादेव पञ्च केदार के रूप में उन पाँच जगह स्थित हो गए जो महादेव द्वारा “के दरियामिः” वाक्य के उच्चारण के कारण वे सभी स्थान “के-दार” कहलाये।
महाभारत की कथा के अनुसार युद्ध के पश्चात पांडवों का मन व्याकुल हो गया और उनपर स्वजनों की हत्या का पाप भी चढ़ गया। तब श्रीकृष्ण एवं महर्षि वेदव्यास ने उन्हें बताया कि इस पाप से तो उन्हें केवल महादेव ही मुक्त कर सकते हैं। तब पांडव महादेव की खोज में काशी विश्वनाथ के दर्शनों को पहुँचे किन्तु भगवान शिव स्वजनों की हत्या के पाप से घिरे पांडवों को दर्शन नहीं देना चाहते थे इसी कारण वे हिमालय चले गए। तब पांडव उन्हें खोजते हुए हिमालय पर पहुँचे। उन्हें वहाँ आता देख महादेव केदार पर्वत पर चले गए। धुन के पक्के पांडव उन्हें ढूंढते हुए केदार पहुंचे। तब महादेव ने एक महिष का रूप धरा और वहाँ उपस्थित भैसों के झुण्ड में छिप गए। तब भीम ने विशाल रूप धरा और दो चोटियों पर अपने पैर धर दिए और शेष पांडवों ने भैसों के झुण्ड को हाँकना शुरू कर दिया। शेष सभी तो भीम के पैरों के बीच से निकल गए किन्तु महादेव पैरों के बीच से नहीं निकल सकते थे इसी कारण वे वही रुक गए। तब पांडव महिषरूपी महादेव को पहचान गए। उनसे बचने के लिए महादेव वही भूमि में धंसने लगे और चार अन्य जगह से निकले। ये देख कर भीम ने महिषरूपी शिव का पिछला हिस्सा जो अभी भूमि में पूरी तरह से धँसा नहीं था उसे पकड़ लिए। लेकिन वो हिस्सा जमीन में धँसता रहा। तब भीम ने अपने बड़े भाई हनुमान से प्रार्थना की जिससे महाबली हनुमान का बल भी भीम में आ गया। लेकिन भला महारुद्र की शक्ति से आगे कौन टिक सकता है? भगवान शिव के महिषरूपी स्वरुप का पिछला हिस्सा जमीन में धँसता रहा किन्तु धुन के पक्के भीम ने उसे छोड़ा नहीं और उसके साथ-साथ जमीन में धंसने लगे। तब भीम सहित सभी पांडवों ने क्रंदन कर महादेव की प्रार्थना शुरू कर दी। उनकी ऐसी दृढ़ इच्छाशक्ति देख कर अंततः महादेव ने उन्हें दर्शन दिया और उन्हें स्वजनों की हत्या के पाप से मुक्त कर दिया और महिष के पिछले भाग के रूप में केदारनाथ में ही रुक गए। जिन पाँच स्थानों पर महिष के भाग निकले वे पञ्चकेदार कहलाये और वे हैं:
  1. केदारनाथ प्रमुख तीर्थ में महिष की पीठ के रूप में।
  2. मध्य महेश्वर में उसकी नाभि के यप में।
  3. तुंगनाथ में उसकी भुजाएँ और हृदय के रूप में।
  4. रुद्रनाथ में मुख के रूप में (नेपाल का पशुपतिनाथ)।
  5. कल्पेश्वर में जटाओं के रूप में।

 

 

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