द्वादश ज्योतिर्लिंग श्रंखला : बाबा बैद्यनाथ , घृष्णेश्वर ,रामेश्वरम

द्वादश ज्योतिर्लिंग श्रंखला १२: श्री घृष्णेश्वर महादेव

श्री घृष्णेश्वर महादेव की पावन कथा के साथ आज द्वादश ज्योतिर्लिंग श्रृंखला समाप्त हो रही है। महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले से लगभग ३५ किलोमीटर दूर, एलोरा की गुफाओं से सिर्फ १ किलोमीटर की दूरी पर भगवान शिव का १२वां ज्योतिर्लिंग श्री घृष्णेश्वर महादेव स्थित है। यहाँ से आठ किलोमीटर दूर दौलताबाद के किले में भी श्री धारेश्वर शिवलिंग स्थित है। औरंगाबाद, जो मुग़ल सल्तनत के क्रूर बादशाह औरंगजेब की राजधानी थी, इस ज्योतिर्लिंग के संघर्ष की साक्षी है। मुग़ल साम्राज्य में अन्य हजारों मंदिरों की तरह इस ज्योतिर्लिंग के पुराने मंदिर को भी चौदहवी शताब्दी में निर्ममता पूर्वक तोडा गया किन्तु मूल ज्योतिर्लिंग आज तक सुरक्षित है। बाद में छत्रपति शिवजी के दादा श्री मालोजी भोसले द्वारा मंदिर का जीर्णोद्धार हुआ और फिर १६वी शताब्दी में आधुनिक मंदिर का निर्माण महान शिव-भक्तिनी अहिल्याबाई होल्कर ने करवाया। इसका निर्माण लाल पत्थरों से हुआ है और इसकी शिल्पकला दक्षिण भारत के मंदिरों से मिलती जुलती है। २४ खम्भों पर टिका ये मंदिर सबसे छोटा ज्योतिर्लिंग मंदिर है। लाल पत्थरों पर उकेरी गई भगवान विष्णु के दशावतार की कारीगरी इसकी सुंदरता में चार चाँद लगाती है। इस मंदिर में पुरुष अपना अंगवस्त्र (कुर्ता, बनियान) उतार कर ही अंदर जा सकते हैं।
सभी ज्योतिर्लिंगों में इस ज्योतिर्लिंग की कथा सर्वाधिक मानवीय है। पौराणिक कथा के अनुसार देवगिरि पर्वत के समीप भरद्वाज कुल में उत्पन्न सुधर्मा निवास करते थे जो सदैव भगवत्भक्ति में डूबे रहते थे। उनकी पत्नी सुदेहा थी जो सभी प्रकार से अपने पति का ध्यान रखते हुए अपने पतिव्रत धर्म का पालन करती थी। उन दोनों के जीवन में बस एक ही कष्ट था कि उनकी कोई संतान नहीं थी क्यूंकि सुदेहा सन्तानोत्त्पत्ति में असमर्थ थी। अपने कुल के उद्धार और पुत्र प्राप्ति के लिए सुदेहा ने सुधर्मा का दूसरा विवाह अपनी छोटी बहन घुश्मा से करवाने पर बल दिया। सुधर्मा ने उसे बहुत समझाया कि जिस प्राण से प्यारी बहन से वो उसका विवाह करवाना चाह रही है, पुत्र प्राप्ति के बाद उसे ही अपनी बहन से सबसे अधिक ईर्ष्या होगी। इतना समझाने के बाद भी सुदेहा ने सुधर्मा का विवाह घुश्मा से करवा दिया। विवाह के पश्चात वो एक दासी की भांति अपनी बड़ी बहन सुदेहा की सेवा किया करती थी। सुदेहा भी उससे अपनी पुत्री की भांति स्नेह करती थी। घुश्मा अनन्य शिव भक्त थी। वो प्रतिदिन मिटटी के १०१ शिवलिंग बना कर उसे पास के तालाब में विसर्जित कर दिया करती थी। समय आने पर घुश्मा के गर्भ से एक अत्यंत तेजस्वी पुत्र ने जन्म लिया जिससे तीनों आनंद से भर गए। आरम्भ में सब प्रेमपूर्वक चलता रहा किन्तु जैसे-जैसे समय बीता, घुश्मा का सौभाग्य देख सुदेहा ईर्ष्या की अग्नि से जलने लगी। उसके मन में इस कुविचार ने जन्म ले लिया कि घुश्मा ने उसके पति पर अधिकार जमा लिया और अब पुत्र होने पर वो सुधर्मा की प्रिय हो गयी है। समय बीता और घुश्मा का पुत्र युवा हुआ और उसका विवाह कर दिया गया। अब तो सुदेहा की ईर्ष्याग्नि और भी भड़क उठी। उसे पाप-पुण्य का ध्यान ना रहा और एक दिन उसने सोते हुए घुश्मा के पुत्र की हत्या कर दी और उसके शव के टुकड़े-टुकड़े कर उसी तालाब में फेंक दिया जिसमे घुश्मा प्रतिदिन शिवलिंगों का विसर्जन किया करती थी।
अगले दिन सवेरे जब उसकी पत्नी ने अपने पति को ना पाया और उसकी शय्या को रक्तरंजित देखा तो वो रोते-रोते अपनी सास घुश्मा के पास गयी और सब बात बताई। घर में दुःख का माहौल हो गया। अब तक सुदेहा को भी अपनी गलती का आभास हुआ और वो भी पश्चाताप की अग्नि में जलकर रोने लगी किन्तु उसने मारे भय के किसी को कुछ नहीं बताया। इतने कठिन समय में भी घुश्मा का भगवान रूद्र से विश्वास ना उठा। उसने कहा – “हे महादेव! अगर मैंने मन से सदैव आपकी भक्ति की है तो मुझे विश्वास है कि मेरा पुत्र वापस आ जाएगा।” ये कहकर वो प्रतिदिन की भांति १०१ शिवलिंगो को लेकर तालाब की ओर चली। उसके पीछे-पीछे सुधर्मा, सुदेहा और उसकी पुत्रवधु भी तालाब पर पहुँच गए। जैसे ही घुश्मा ने उन शिवलिंगों का विसर्जन किया, महादेव की कृपा से तालाब में से उसका पुत्र हँसते हुए निकल आया और उसके चरण स्पर्श किये। साथ ही महादेव ने उन सबों के अपने दर्शन दिए और सबको सत्य से अवगत करवाया। सुदेहा के पापकर्म से क्रोधित महारुद्र उसका वध करने को उद्धत हुए तब घुश्मा ने उनके पैर पकड़ते हुए उनसे अपनी बड़ी बहन के लिए क्षमादान माँगा। उसकी भक्ति देख कर भगवान शिव प्रसन्न हुए, सुदेहा को क्षमा कर दिया और घुश्मा को वर माँगने को कहा। घुश्मा ने वर के रूप में उनसे वहीँ स्थित होने की प्रार्थना की। तब महादेव वहाँ घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग के रूप में स्थित हो गए। घुश्मा की शिव भक्ति के कारण ये महान ज्योतिर्लिंग “घुश्मेश्वर” के नाम से भी जाना जाता है। जो भी इस ज्योतिर्लिंग की कथा सुनता है और इसके दर्शन करता है उसे निश्चय ही शिवलोक की प्राप्ति होती है। जय महाकाल।
द्वादश ज्योतिर्लिंग श्रंखला ११: श्री रामेश्वरम

दक्षिण भारत के तमिलनाडु में स्थित भगवान शिव के ११वें ज्योतर्लिंग श्री रामेश्वरम की महत्ता अपरम्पार है। उत्तर में जो स्थान श्री काशी विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग का है वही दक्षिण में रामेश्वरम महादेव का। ये भारत के चार धामों में से एक माना जाता है। उनमे से तीन धाम बद्रीनाथ, द्वारिकापुरी एवं पुरी जगन्नाथ जहाँ भगवान विष्णु को समर्पित हैं, रामेश्वरम में हरि एवं हर का अनोखा संगम देखने को मिलता है। इस ज्योतिर्लिंग की महिमा और भी बड़ी इस लिए हो जाती है क्यूंकि इसकी स्थापना स्वयं श्रीराम ने की थी। इसी ज्योतिर्लिंग के निकट एक और महान शिवलिंग है जिसे हनुमदीश्वर महादेव के नाम से जाना जाता है। इसकी स्थापना रामेश्वरम के ठीक बाद रुद्रावतार हनुमान द्वारा की गयी थी। रामेश्वरम एवं हनुमदीशश्वर महादेव को यमज (जुड़वाँ) शिवलिंग भी कहा जाता है। हनुमदीश्वर महादेव के विषय में आप विस्तार से यहाँ पढ़ सकते हैं।
रामेश्वरम के धनुष्कोटि में स्थित रामसेतु की महिमा किसी से छिपी नहीं है। लंका विजय से वापस लौटने के पश्चात विभीषण के अनुरोध पर श्रीराम ने धनुष्कोटि पर ही उस सेतु को तोड़ दिया था ताकि कोई और लंका पर आक्रमण ना कर सके। चेन्नई से लगभग ६०० किलोमीटर दूर ये तीर्थ हिन्द महासागर और बंगाल की खाड़ी से घिरा हुआ है और यहीं बंगाल की खाड़ी हिन्द महासागर से मिलती है। रामेश्वरम से कुछ दूर गंधमादन पर्वत स्थित है जहाँ से महाबली हनुमान ने समुद्र पार करने के लिए छलाँग मारी थी। बाद में इसी पर्वत पर श्रीराम की सेना इकठ्ठा हुई थी। इस पर्वत पर आज पदुका मंदिर स्थित है जहाँ लोग श्रीराम के चरणों की पूजा करते हैं। रामेश्वरम के आस-पास पादुका मंदिर, लक्ष्मण तीर्थ, सीता कुण्ड, सेतु माधव, एकांत राम, बाइस कुण्ड, विल्लीरणि तीर्थ, कोदंड स्वामी मंदिर, आदि सेतु इत्यादि दर्शनीय स्थल हैं। रामेश्वरम मंदिर में ज्योतिर्लिंग के अतिरिक्त भगवान शिव की दो और माता पार्वती की दो मूर्तियां भी स्थित हैं। इस ज्योतिर्लिंग के विषय में दो अलग कथाएं हैं। एक तो जब श्रीराम देवी सीता को छुड़ाने के लिए लंका पर आक्रमण करते हैं तो समुद्र के तट पर उन्हें भगवान शिव की पूजा करने की इच्छा होती है। तब वे विजय की कामना से वहीँ बालू का एक शवलिंग बना कर भगवान महारुद्र की पूजा करते हैं और उनसे विजयश्री का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। श्रीराम के अनुरोध पर भगवान शिव उस स्थान रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग के रूप में स्थित हो जाते हैं।
एक और कथा के अनुसार जब रावण का वध कर के श्रीराम देवी सीता के साथ वापस लौटे तो गंधमादन पर्वत पर ऋषियों ने श्रीराम से कहा – “हे पुरुषोत्तम! निःसंदेह आपने रावण का नाश कर पृथ्वी को उसके अत्याचार से मुक्ति दिलवाई है किन्तु रावण को साधारण राक्षस नहीं था। वो महर्षि पुलत्स्य का पौत्र एवं ऋषि विश्रवा का पुत्र था। उसका वध करने के कारण आपको ब्रह्महत्या का पाप लग गया है।” ऐसा सुनकर श्रीराम बड़े दुखी हुए और उन्होंने उन ऋषियों से इस पाप के प्रायश्चित का उपाय पूछा। तब उन्होंने श्रीराम को बताया कि ब्रह्महत्या और गोहत्या महापाप माने गए हैं और इससे केवल भगवान शिव ही मुक्ति दिला सकते हैं। अतः आपको इसके प्रायश्चित हेतु भगवान रूद्र से प्रार्थना करनी चाहिए। तब श्रीराम सागर तट पर पहुँच कर शिव पूजा को तैयार हुए। ऋषियों ने कहा कि विश्व में सर्वश्रेष्ठ शिवलिंग काशी में मिलते हैं। तब श्रीराम की आज्ञा से हनुमान शिवलिंग को लेने काशी चले गए। हनुमान के आने में विलम्ब हो रहा था इसी कारण शुभ मुहूर्त बीतते देख देवी सीता ने वहीँ बालू से शिवलिंग की स्थापना कर दी और श्रीराम ने अपनी पूजा संपन्न की। जब हनुमान काशी से शिवलिंग लेकर पहुँचे तो वहाँ एक नया शिवलिंग देखकर उन्होंने श्रीराम से कहा – “हे प्रभु! मैंने इतना श्रम कर इस शिवलिंग को प्राप्त किया किन्तु आपने बालू का शिवलिंग बना कर उसकी पूजा कर ली। मैं जो शिवलिंग ले कर आया हूँ वो पाषाण का है, ये बालू का शिवलिंग कितनी देर टिकेगा?” हनुमान को इस प्रकार बोलते देख श्रीराम ने कहा – “हे महाबली! शुभ मुहूर्त बीतते देख सीता ने इस शिवलिंग की स्थापना कर दी। किन्तु कोई बात नहीं, तुम इस शिवलिंग को हटा कर इसके स्थान पर अपना शिलिंग स्थापित कर दो।” ये सुनकर हनुमान ने उस शिवलिंग को उखाड़ना चाहा किन्तु बात ही बात में पूरे पर्वत शिखर को उखाड़ देने वाले पवनपुत्र हनुमान उस बालू के शिवलिंग को हिला भी नहीं पाए। उसे उखाड़ने के प्रयत्न ने हनुमान को एक तेज झटका लगा और वो वहाँ से २० योजन दूर गंधमादन पर्वत पर जा गिरे। जब उनकी चेतना वापस आयी तो उन्हें अपने अभिमान पर बड़ी ग्लानि हुई। वे वापस आये और श्रीराम और भगवान शिव से क्षमा याचना की। तब श्रीराम ने कहा – “हे हनुमान! तुम्हारा श्रम व्यर्थ नहीं जाएगा। आज से तुम्हारे द्वारा लाया ये शिवलिंग तुम्हारे ही नाम से श्री हनुमदीश्वर कहलायेगा।” ये कहकर उन्होंने वहीँ रामेश्वरम शिवलिंग के पास हनुमदीश्वर शिवलिंग की स्थापना की और सबने उसकी विधिवत पूजा की।
रामेश्वरम हरि-हर के अनोखे संगम को दर्शाता है। रामेश्वरम की स्थापना करते हुए जब देवी सीता ने श्रीराम से इसका अर्थ पूछा तब श्रीराम ने कहा – “हे सीते! रामस्य ईश्वरः यस्य सः रामेश्वरम। अर्थात जो राम का ईश्वर है वही रामेश्वर है।” दूसरी ओर जब देवी पार्वती भगवान शिव से रामेश्वर का अर्थ पूछती है तो वे कहते हैं – “प्रिये! रामः ईश्वरः यस्य सा रामेश्वरम। अर्थात राम जिसके ईश्वर हैं वही रामेश्वर है।” इस प्रकार का अनोखा एवं सुन्दर वर्णन केवल रामेश्वरम के लिए संभव है। रामेश्वरम स्वयं महादेव का ही रूप है और जो भी इसके दर्शन करता है उसकी समस्त इच्छाएं पूर्ण होती है। जय श्री रामेश्वरम।

 

द्वादश ज्योतिर्लिंग श्रंखला १०: बाबा बैद्यनाथ

“चिताभूमि पर स्थापित बैद्यनाथ ही वास्तविक ज्योतिर्लिंग है।” ये कथन शिवपुराण में लिखा है और इसका वर्णन मैं इसी कारण कर रहा हूँ कि महाराष्ट्र में स्थित परली बैद्यनाथ और हिमाचल में स्थित बैद्यनाथ को वहाँ के स्थानीय लोग असली ज्योतिर्लिंग मानते हैं किन्तु चिताभूमि (देवघर) में स्थिति बाबा बैद्यनाथ को ही वास्तविक ज्योतिर्लिंग के रूप में मान्यता प्राप्त है। इस स्थान को चिताभूमि इसी कारण कहा जाता है क्यूंकि ये एक शक्तिपीठ भी माना जाता है जहाँ माता सती का ह्रदय गिरा था। इसी कारण इसे हृदयपीठ भी कहा जाता है। कहते हैं कि इस ज्योतिर्लिंग के दर्शन से सभी कामनाएं पूर्ण होती है इसी कारण इसका एक नाम “कामना लिंग” भी है। इस ज्योतिर्लिंग की स्थापना के बाद महादेव का सानिध्य पाने सभी देवता इस स्थान में आकर रहने लगे इसी कारण इस स्थान का नाम देवघर पड़ा। ज्योतिर्लिंग होने के कारण छोटा होने पर भी ये स्थान झारखण्ड के सर्वाधिक प्रसिद्ध है। बैद्यनाथ जो पहले बिहार में था, सन २००० में झारखण्ड के अलग होने पर वहाँ चला गया। बिहार के राजकीय दस्तावेजों में भी इसे बिहार के लिए अपूर्तीय क्षति बताया गया। इस मंदिर का इतिहास बहुत पुराना है। आधुनिक काल में भी अकबर के दरबारी मानसिंह को इस स्थान से अत्यधिक लगाव था। उन्होंने यहाँ पानी का एक कुंड बनवाया जिसे आज मानसरोवर के नाम से जाना जाता है। इसके अलावा देवघर गुप्त साम्राज्य की आखिरी राजधानी भी रह चुका है। वैसे तो भगवान शिव के सभी ज्योतिर्लिंगों में श्रावण के समय अत्यधिक भीड़ रहती है किन्तु देवघर के बाबा बैद्यनाथ का कोई मुकाबला नहीं। २०१७ के आंकड़ों के अनुसार पिछले श्रावण में यहाँ प्रतिदिन तकरीबन १५०००० लोग बाबा के दर्शनों को आये और सोमवार को तो ये आँकड़ा कई गुणा बढ़ जाता है। वैसे तो देवघर मंदिर परिसर में कई छोटे बड़े मंदिर हैं लेकिन मुख्य रूप से दो मंदिर प्रसिद्ध है। एक भोलेनाथ का मंदिर जो परिसर के मध्य में है और दूसरा माता पार्वती (कई लोग इसे देवी सती का भी मंदिर मानते हैं) का मंदिर जो मुख्य मंदिर से थोड़ी ही दूर है। इन दोनों मंदिरों के शिखरों को एक कपडे से जोड़ा गया है जो शिव-पार्वती के गठबंधन को दर्शाता है।

इस शिवलिंग के बारे में एक पौराणिक कथा है जो लंकापति रावण से सम्बंधित है। सभी जानते हैं कि रावण ने कैलाश पर आक्रमण किया और भगवान शिव द्वारा परास्त होने के बाद उनका महान भक्त बना। उसके पश्चात एक दिन रावण के पिता विश्रवा ने उससे कहा कि अगर वो अजेय होना चाहता है तो महादेव को प्रसन्न कर उन्हें लंका में स्थित होने को कहे। ऐसा होने पर उसे पराजित करना असंभव हो जाएगा। तब रावण ने कैलाश पर घोर तपस्या करनी आरम्भ कर दी। जब वर्षों तक तपस्या करने पर महादेव प्रसन्न नहीं हुए तब उसने अपना एक-एक सर काटकर आहुति देना आरम्भ कर दिया। ऐसा करते हुए उसने अपने ९ शीश काट दिया और जैसे ही वो अपना १०वां सर काटने को उद्धत हुआ, भगवान शिव ने प्रकट होकर उसे ऐसा करने से रोक दिया। भगवान ने उसे उसके कटे शीश फिर से प्रदान किये और उसे वरदान माँगने के को कहा तो रावण ने उनसे लंका चलने की प्रार्थना की। इसपर महादेव ने कहा कि वे कैलाश छोड़ कर लंका नहीं जा सकते किन्तु फिर उन्होंने अपनी काया से एक शिवलिंग की उत्पत्ति की और रावण से कहा – “हे दशानन! ये शिवलिंग स्वयँ मेरा ही रूप है अतः तुम इसे ही लंका ले जाओ। इसके वहाँ रहते कोई भी तुम्हे परास्त नहीं कर सकेगा। लेकिन इस बात का ध्यान रखना कि लंका ले जाते समय इसे कहीं बीच में ना रखना। यदि ऐसा हुआ तो ये वही स्थापित हो जाएगा।” तब रावण ने महादेव का धन्यवाद अदा किया और उस दिव्य शिवलिंग को लेकर लंका की ओर चला। जब देवताओं ने ये देखा तो वे भगवान विष्णु के पास गए और उनसे प्रार्थना करते हुए कहा – “हे नारायण! ये भगवान रूद्र ने क्या कर दिया? इसी रावण के नाश के लिए तो आप श्रीराम के रूप में पृथ्वी पर अवतार लेने वाले हैं। अगर रावण इस शिवलिंग को लंका ले जाने में सफल हो गया तो ये अवध्य हो जाएगा और आपका अवतार लेना भी विफल हो जाएगा। अतः किसी भी प्रकार इसे इस शिवलिंग को लंका ले जाने से रोकिये।”
तब नारायण ने देवी गंगा का आह्वान किया और उनसे कहा कि वो रावण के उदर में समा जाएँ। रावण उस शिवलिंग को लेकर चिताभूमि पहुँचा ही था कि भगवान विष्णु की आज्ञानुसार देवी गंगा रावण के उदर में समा गयी। उनके प्रभाव से रावण को तीव्र लघुशंका लगी किन्तु शिवलिंग हाथ में लिए वो लघुशंका कैसे करे? तब लघुशंका के वेग से व्याकुल रावण इधर-उधर किसी को खोजने लगा जिसे वो शिवलिंग थमा सके। उसी समय भगवान विष्णु एक चरवाहे के वेश में वहाँ पहुँचे। रावण ने जैसे उन्हें देखा उनके पास आकर बोला – “सुन चरवाहे! मैं इस समय लघुशंका के वेग से व्याकुल हूँ इसीलिए थोड़ी देर के लिए इस शिवलिंग को पकड़ कर रख। किन्तु ध्यान रखना कि इसे नीचे ना रखना। मैं तुरंत आता हूँ और इस कार्य के लिए मैं तुझे तेरे वजन के बराबर स्वर्ण पारितोषिक के रूप में दूंगा।” तब चरवाहे रुपी नारायण ने मुस्कुराते हुए कहा – “हे राजन! ठीक है मैं इसे पकड़ कर खड़ा रहता हूँ। किन्तु मैं केवल २ घडी तक इसे पकड़ सकता हूँ। अगर आप दो घडी में वापस नहीं आये तो मैं इसे नीचे रख दूंगा।” रावण ने सोचा कि लघुशंका के लिए कितनी देर लगती है? इसी कारण उसने उनकी ये शर्त मान ली और शिवलिंग उस चरवाहे के हाथ में थमा दिया। जब रावण लघुशंका करने लगा तो उसका वेग इतना अधिक था कि उसमे बहुत समय लग गया और उससे एक पूरा कुंड भर गया। जैसे तैसे रावण जब वापस लौटा तो दो घडी बस बीतने ही वाली थी। तब नारायण ने उससे शिवलिंग वापस लेने को कहा किन्तु लघुशंका के बाद बिना आचमन के वो शिवलिंग को कैसे स्पर्श करता। उसने आस-पास देखा किन्तु उसे कही जल नहीं मिला। तब रावण ने बड़ी शक्ति से भूमि पर मुष्टिप्रहार किया जिससे वहाँ से जल निकल पड़ा और उसी जल से रावण ने आचमन और स्नान किया। यही जल शिवगंगा के नाम से प्रसिद्ध हुआ जो आज भी मंदिर के निकट बहती है। जब तक रावण स्नान करता दो घडी पूर्ण हो गयी और चरवाहा रुपी भगवान विष्णु उस शिवलिंग को पृथ्वी पर रख कर अंतर्धान हो गए। जब रावण वापस आया तो उसे शिवलिंग जमीन पर पड़ा दिखा। उसने अपनी पूरी शक्ति लगायी किन्तु वो उसे हिला भी नहीं पाया। क्रोध में आकर उसने अपने अंगूठे से उस शिवलिंग को धरती में धँसा दिया और पश्चाताप करता हुआ वापस लंका लौट गया। बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग आज भी टेढ़ा होकर धरती में धँसा हुआ है और उसके ऊपर आपको अंगूठे के दवाब का निशान भी दिखता है।
रावण के जाते ही परमपिता ब्रह्मा और नारायण के नेतृत्व में समस्त देवता वहाँ पहुँचे और उस शिवलिंग की पूजा की। सभी देवताओं के वहाँ आने से उस स्थान का नाम देवघर पड़ा। स्वयं भगवान विष्णु ने उस ज्योतिर्लिंग की प्राण-प्रतिष्ठा की। रावण इस शिवलिंग को लंका नहीं ले जा पाया किन्तु वो प्रतिवर्ष लंका से वहाँ आकर उसकी पूजा करता था। भगवान विष्णु के अवतार परशुराम, श्रीराम एवं श्रीकृष्ण द्वारा भी इस शिवलिंग की पूजा का वर्णन मिलता है। वानरराज बाली ने भी इस शिवलिंग का समुद्र के जल से अभिषेक किया था। हनुमान भी प्रतिवर्ष यहाँ पूजा करने के लिए आते थे। आज भी ये मान्यता है कि जब देवघर में रामकथा होती है तो हनुमान वहाँ इस शिवलिंग के दर्शनों को आते हैं। इस प्रकार देव-दानव-मानव द्वारा पूजित इस शिवलिंग की महिमा अपार है। बाद में बैजनाथ नामक एक गरेड़िये ने इस शिवलिंग को देखा और उसकी पूजा करनी आरम्भ की। तभी से इस स्थान को बैद्यनाथ भी कहा जाने लगा और फिर इस शिवलिंग के लिए मंदिर की स्थापना हुई। ये मंदिर भी वास्तुकला का एक अद्भुत नमूना है। जिस गर्भगृह में महारुद्र का मूल शिवलिंग स्थापित है वो बहुत छोटा है और इतने सारे लोगों के वहाँ रहने के कारण हवा का स्तर कम हो जाता है। इसी कारण कुछ वर्ष पहले बिहार सरकार ने ये कोशिश की कि वहाँ एक छोटी सी खिड़की बना दी जाये ताकि वायु का आवागमन हो सके किन्तु इस मंदिर की शिल्पकारी इस प्रकार की गयी है कि अगर उस गर्भगृह से एक ईंट भी निकाली गयी तो पूरा मंदिर गिर सकता है। ये अपने आप में बहुत बड़ा आश्चर्य है। यही कारण है कि आज एक इतने बड़े-बड़े इंजीनियर भी उस गर्भगृह में एक छोटी से खिड़की भी नहीं बनवा सके हैं।
यहाँ पर जल चढाने के लिए बिहार के सुल्तानगंज से जल उठाने का प्रावधान है लेकिन आजकल लोग भागलपुर और आस-पास के इलाके से भी जल उठाने लगे हैं। फिर वहाँ से ११५ किलोमीटर पैदल चलकर देवघर पहुँचते हैं जो सामान्यतः ४-५ दिनों में पूरी होती है। यहाँ जल चढाने के लिए एक विशेष कावड़ियों का दस्ता भी होता है जिसे डाकबम कहते हैं। डाकबम बनना बहुत ही कठिन है क्यूंकि एक बार चलने के बाद ये कहीं बीच में नहीं रुकते और २४ घंटों के अंदर जल चढ़ाते हैं। डाकबम के लोगों के लिए अलग से व्यवस्था की जाती है और उन्हें सामान्य कतारों में नहीं खड़ा होना पड़ता। बिहार की एक बुजुर्ग महिला बहुत प्रसिद्ध थी जो इतने बुढ़ापे में भी डाकबम बनकर जाती थी और २४ घंटे के अंदर शिवलिंग का अभिषेक करती थी। इन्हे लोग कृष्णा-बम के रूप में जानते थे। देवघर से ६० किलोमीटर दूर दुमका जिले के जरमुंडी में बाबा बासुकीनाथ का मंदिर है और ऐसी मान्यता है कि बैद्यनाथ के बाद जब तक बासुकीनाथ शिवलिंग को जल नहीं चढ़ाया जाता तब तक बैद्यनाथ का पुण्य प्राप्त नहीं होता। इसी कारण देवघर में जल चढाने के बाद लोग दुमका बाबा बासुकीनाथ में जल चढाने जाते हैं। हालाँकि ये मान्यता आधिनुक काल में शुरू हुई है और पुराणों में इसका कोई वर्णन नहीं है। इसके अतिरिक्त बैद्यनाथ के बाद सुल्तानगंज के अजगैबीधाम मंदिर में भी जल चढाने की प्रथा है। जब आप जल उठाने सुल्तानगंज पहुँचते हैं तो वहाँ के पंडित आपके पूरे वंश का वर्णन बता देंगे जो आपको आश्चर्य में डाल सकता है। साथ ही साथ ये भी कि किस वर्ष आपके परिवार से कौन-कौन बाबा के दर्शनों को आया था। उससे भी आश्चर्य ये है कि इस जानकारी को सहेजने के लिए उनके पास कोई कंप्यूटर नहीं होता है। वे पुराने ज़माने के बही-खाते में सभी कुछ सहेज कर रखते हैं। हालाँकि जब आप ये जानकर आश्चर्य में होते हैं तो वे आपसे अधिक पैसे ऐंठने का भी प्रयास करते हैं इसलिए अधिक पैसे देने से बचें। जय बाबा बैद्यनाथ।
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