द्वादश ज्योतिर्लिंग श्रंखला १२: श्री घृष्णेश्वर महादेव
श्री घृष्णेश्वर महादेव की पावन कथा के साथ आज द्वादश ज्योतिर्लिंग श्रृंखला समाप्त हो रही है। महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले से लगभग ३५ किलोमीटर दूर, एलोरा की गुफाओं से सिर्फ १ किलोमीटर की दूरी पर भगवान शिव का १२वां ज्योतिर्लिंग श्री घृष्णेश्वर महादेव स्थित है। यहाँ से आठ किलोमीटर दूर दौलताबाद के किले में भी श्री धारेश्वर शिवलिंग स्थित है। औरंगाबाद, जो मुग़ल सल्तनत के क्रूर बादशाह औरंगजेब की राजधानी थी, इस ज्योतिर्लिंग के संघर्ष की साक्षी है। मुग़ल साम्राज्य में अन्य हजारों मंदिरों की तरह इस ज्योतिर्लिंग के पुराने मंदिर को भी चौदहवी शताब्दी में निर्ममता पूर्वक तोडा गया किन्तु मूल ज्योतिर्लिंग आज तक सुरक्षित है। बाद में छत्रपति शिवजी के दादा श्री मालोजी भोसले द्वारा मंदिर का जीर्णोद्धार हुआ और फिर १६वी शताब्दी में आधुनिक मंदिर का निर्माण महान शिव-भक्तिनी अहिल्याबाई होल्कर ने करवाया। इसका निर्माण लाल पत्थरों से हुआ है और इसकी शिल्पकला दक्षिण भारत के मंदिरों से मिलती जुलती है। २४ खम्भों पर टिका ये मंदिर सबसे छोटा ज्योतिर्लिंग मंदिर है। लाल पत्थरों पर उकेरी गई भगवान विष्णु के दशावतार की कारीगरी इसकी सुंदरता में चार चाँद लगाती है। इस मंदिर में पुरुष अपना अंगवस्त्र (कुर्ता, बनियान) उतार कर ही अंदर जा सकते हैं।
सभी ज्योतिर्लिंगों में इस ज्योतिर्लिंग की कथा सर्वाधिक मानवीय है। पौराणिक कथा के अनुसार देवगिरि पर्वत के समीप भरद्वाज कुल में उत्पन्न सुधर्मा निवास करते थे जो सदैव भगवत्भक्ति में डूबे रहते थे। उनकी पत्नी सुदेहा थी जो सभी प्रकार से अपने पति का ध्यान रखते हुए अपने पतिव्रत धर्म का पालन करती थी। उन दोनों के जीवन में बस एक ही कष्ट था कि उनकी कोई संतान नहीं थी क्यूंकि सुदेहा सन्तानोत्त्पत्ति में असमर्थ थी। अपने कुल के उद्धार और पुत्र प्राप्ति के लिए सुदेहा ने सुधर्मा का दूसरा विवाह अपनी छोटी बहन घुश्मा से करवाने पर बल दिया। सुधर्मा ने उसे बहुत समझाया कि जिस प्राण से प्यारी बहन से वो उसका विवाह करवाना चाह रही है, पुत्र प्राप्ति के बाद उसे ही अपनी बहन से सबसे अधिक ईर्ष्या होगी। इतना समझाने के बाद भी सुदेहा ने सुधर्मा का विवाह घुश्मा से करवा दिया। विवाह के पश्चात वो एक दासी की भांति अपनी बड़ी बहन सुदेहा की सेवा किया करती थी। सुदेहा भी उससे अपनी पुत्री की भांति स्नेह करती थी। घुश्मा अनन्य शिव भक्त थी। वो प्रतिदिन मिटटी के १०१ शिवलिंग बना कर उसे पास के तालाब में विसर्जित कर दिया करती थी। समय आने पर घुश्मा के गर्भ से एक अत्यंत तेजस्वी पुत्र ने जन्म लिया जिससे तीनों आनंद से भर गए। आरम्भ में सब प्रेमपूर्वक चलता रहा किन्तु जैसे-जैसे समय बीता, घुश्मा का सौभाग्य देख सुदेहा ईर्ष्या की अग्नि से जलने लगी। उसके मन में इस कुविचार ने जन्म ले लिया कि घुश्मा ने उसके पति पर अधिकार जमा लिया और अब पुत्र होने पर वो सुधर्मा की प्रिय हो गयी है। समय बीता और घुश्मा का पुत्र युवा हुआ और उसका विवाह कर दिया गया। अब तो सुदेहा की ईर्ष्याग्नि और भी भड़क उठी। उसे पाप-पुण्य का ध्यान ना रहा और एक दिन उसने सोते हुए घुश्मा के पुत्र की हत्या कर दी और उसके शव के टुकड़े-टुकड़े कर उसी तालाब में फेंक दिया जिसमे घुश्मा प्रतिदिन शिवलिंगों का विसर्जन किया करती थी।
अगले दिन सवेरे जब उसकी पत्नी ने अपने पति को ना पाया और उसकी शय्या को रक्तरंजित देखा तो वो रोते-रोते अपनी सास घुश्मा के पास गयी और सब बात बताई। घर में दुःख का माहौल हो गया। अब तक सुदेहा को भी अपनी गलती का आभास हुआ और वो भी पश्चाताप की अग्नि में जलकर रोने लगी किन्तु उसने मारे भय के किसी को कुछ नहीं बताया। इतने कठिन समय में भी घुश्मा का भगवान रूद्र से विश्वास ना उठा। उसने कहा – “हे महादेव! अगर मैंने मन से सदैव आपकी भक्ति की है तो मुझे विश्वास है कि मेरा पुत्र वापस आ जाएगा।” ये कहकर वो प्रतिदिन की भांति १०१ शिवलिंगो को लेकर तालाब की ओर चली। उसके पीछे-पीछे सुधर्मा, सुदेहा और उसकी पुत्रवधु भी तालाब पर पहुँच गए। जैसे ही घुश्मा ने उन शिवलिंगों का विसर्जन किया, महादेव की कृपा से तालाब में से उसका पुत्र हँसते हुए निकल आया और उसके चरण स्पर्श किये। साथ ही महादेव ने उन सबों के अपने दर्शन दिए और सबको सत्य से अवगत करवाया। सुदेहा के पापकर्म से क्रोधित महारुद्र उसका वध करने को उद्धत हुए तब घुश्मा ने उनके पैर पकड़ते हुए उनसे अपनी बड़ी बहन के लिए क्षमादान माँगा। उसकी भक्ति देख कर भगवान शिव प्रसन्न हुए, सुदेहा को क्षमा कर दिया और घुश्मा को वर माँगने को कहा। घुश्मा ने वर के रूप में उनसे वहीँ स्थित होने की प्रार्थना की। तब महादेव वहाँ घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग के रूप में स्थित हो गए। घुश्मा की शिव भक्ति के कारण ये महान ज्योतिर्लिंग “घुश्मेश्वर” के नाम से भी जाना जाता है। जो भी इस ज्योतिर्लिंग की कथा सुनता है और इसके दर्शन करता है उसे निश्चय ही शिवलोक की प्राप्ति होती है। जय महाकाल।
द्वादश ज्योतिर्लिंग श्रंखला ११: श्री रामेश्वरम
दक्षिण भारत के तमिलनाडु में स्थित भगवान शिव के ११वें ज्योतर्लिंग श्री रामेश्वरम की महत्ता अपरम्पार है। उत्तर में जो स्थान श्री काशी विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग का है वही दक्षिण में रामेश्वरम महादेव का। ये भारत के चार धामों में से एक माना जाता है। उनमे से तीन धाम बद्रीनाथ, द्वारिकापुरी एवं पुरी जगन्नाथ जहाँ भगवान विष्णु को समर्पित हैं, रामेश्वरम में हरि एवं हर का अनोखा संगम देखने को मिलता है। इस ज्योतिर्लिंग की महिमा और भी बड़ी इस लिए हो जाती है क्यूंकि इसकी स्थापना स्वयं श्रीराम ने की थी। इसी ज्योतिर्लिंग के निकट एक और महान शिवलिंग है जिसे हनुमदीश्वर महादेव के नाम से जाना जाता है। इसकी स्थापना रामेश्वरम के ठीक बाद रुद्रावतार हनुमान द्वारा की गयी थी। रामेश्वरम एवं हनुमदीशश्वर महादेव को यमज (जुड़वाँ) शिवलिंग भी कहा जाता है। हनुमदीश्वर महादेव के विषय में आप विस्तार से यहाँ पढ़ सकते हैं।
रामेश्वरम के धनुष्कोटि में स्थित रामसेतु की महिमा किसी से छिपी नहीं है। लंका विजय से वापस लौटने के पश्चात विभीषण के अनुरोध पर श्रीराम ने धनुष्कोटि पर ही उस सेतु को तोड़ दिया था ताकि कोई और लंका पर आक्रमण ना कर सके। चेन्नई से लगभग ६०० किलोमीटर दूर ये तीर्थ हिन्द महासागर और बंगाल की खाड़ी से घिरा हुआ है और यहीं बंगाल की खाड़ी हिन्द महासागर से मिलती है। रामेश्वरम से कुछ दूर गंधमादन पर्वत स्थित है जहाँ से महाबली हनुमान ने समुद्र पार करने के लिए छलाँग मारी थी। बाद में इसी पर्वत पर श्रीराम की सेना इकठ्ठा हुई थी। इस पर्वत पर आज पदुका मंदिर स्थित है जहाँ लोग श्रीराम के चरणों की पूजा करते हैं। रामेश्वरम के आस-पास पादुका मंदिर, लक्ष्मण तीर्थ, सीता कुण्ड, सेतु माधव, एकांत राम, बाइस कुण्ड, विल्लीरणि तीर्थ, कोदंड स्वामी मंदिर, आदि सेतु इत्यादि दर्शनीय स्थल हैं। रामेश्वरम मंदिर में ज्योतिर्लिंग के अतिरिक्त भगवान शिव की दो और माता पार्वती की दो मूर्तियां भी स्थित हैं। इस ज्योतिर्लिंग के विषय में दो अलग कथाएं हैं। एक तो जब श्रीराम देवी सीता को छुड़ाने के लिए लंका पर आक्रमण करते हैं तो समुद्र के तट पर उन्हें भगवान शिव की पूजा करने की इच्छा होती है। तब वे विजय की कामना से वहीँ बालू का एक शवलिंग बना कर भगवान महारुद्र की पूजा करते हैं और उनसे विजयश्री का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। श्रीराम के अनुरोध पर भगवान शिव उस स्थान रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग के रूप में स्थित हो जाते हैं।
एक और कथा के अनुसार जब रावण का वध कर के श्रीराम देवी सीता के साथ वापस लौटे तो गंधमादन पर्वत पर ऋषियों ने श्रीराम से कहा – “हे पुरुषोत्तम! निःसंदेह आपने रावण का नाश कर पृथ्वी को उसके अत्याचार से मुक्ति दिलवाई है किन्तु रावण को साधारण राक्षस नहीं था। वो महर्षि पुलत्स्य का पौत्र एवं ऋषि विश्रवा का पुत्र था। उसका वध करने के कारण आपको ब्रह्महत्या का पाप लग गया है।” ऐसा सुनकर श्रीराम बड़े दुखी हुए और उन्होंने उन ऋषियों से इस पाप के प्रायश्चित का उपाय पूछा। तब उन्होंने श्रीराम को बताया कि ब्रह्महत्या और गोहत्या महापाप माने गए हैं और इससे केवल भगवान शिव ही मुक्ति दिला सकते हैं। अतः आपको इसके प्रायश्चित हेतु भगवान रूद्र से प्रार्थना करनी चाहिए। तब श्रीराम सागर तट पर पहुँच कर शिव पूजा को तैयार हुए। ऋषियों ने कहा कि विश्व में सर्वश्रेष्ठ शिवलिंग काशी में मिलते हैं। तब श्रीराम की आज्ञा से हनुमान शिवलिंग को लेने काशी चले गए। हनुमान के आने में विलम्ब हो रहा था इसी कारण शुभ मुहूर्त बीतते देख देवी सीता ने वहीँ बालू से शिवलिंग की स्थापना कर दी और श्रीराम ने अपनी पूजा संपन्न की। जब हनुमान काशी से शिवलिंग लेकर पहुँचे तो वहाँ एक नया शिवलिंग देखकर उन्होंने श्रीराम से कहा – “हे प्रभु! मैंने इतना श्रम कर इस शिवलिंग को प्राप्त किया किन्तु आपने बालू का शिवलिंग बना कर उसकी पूजा कर ली। मैं जो शिवलिंग ले कर आया हूँ वो पाषाण का है, ये बालू का शिवलिंग कितनी देर टिकेगा?” हनुमान को इस प्रकार बोलते देख श्रीराम ने कहा – “हे महाबली! शुभ मुहूर्त बीतते देख सीता ने इस शिवलिंग की स्थापना कर दी। किन्तु कोई बात नहीं, तुम इस शिवलिंग को हटा कर इसके स्थान पर अपना शिलिंग स्थापित कर दो।” ये सुनकर हनुमान ने उस शिवलिंग को उखाड़ना चाहा किन्तु बात ही बात में पूरे पर्वत शिखर को उखाड़ देने वाले पवनपुत्र हनुमान उस बालू के शिवलिंग को हिला भी नहीं पाए। उसे उखाड़ने के प्रयत्न ने हनुमान को एक तेज झटका लगा और वो वहाँ से २० योजन दूर गंधमादन पर्वत पर जा गिरे। जब उनकी चेतना वापस आयी तो उन्हें अपने अभिमान पर बड़ी ग्लानि हुई। वे वापस आये और श्रीराम और भगवान शिव से क्षमा याचना की। तब श्रीराम ने कहा – “हे हनुमान! तुम्हारा श्रम व्यर्थ नहीं जाएगा। आज से तुम्हारे द्वारा लाया ये शिवलिंग तुम्हारे ही नाम से श्री हनुमदीश्वर कहलायेगा।” ये कहकर उन्होंने वहीँ रामेश्वरम शिवलिंग के पास हनुमदीश्वर शिवलिंग की स्थापना की और सबने उसकी विधिवत पूजा की।
रामेश्वरम हरि-हर के अनोखे संगम को दर्शाता है। रामेश्वरम की स्थापना करते हुए जब देवी सीता ने श्रीराम से इसका अर्थ पूछा तब श्रीराम ने कहा – “हे सीते! रामस्य ईश्वरः यस्य सः रामेश्वरम। अर्थात जो राम का ईश्वर है वही रामेश्वर है।” दूसरी ओर जब देवी पार्वती भगवान शिव से रामेश्वर का अर्थ पूछती है तो वे कहते हैं – “प्रिये! रामः ईश्वरः यस्य सा रामेश्वरम। अर्थात राम जिसके ईश्वर हैं वही रामेश्वर है।” इस प्रकार का अनोखा एवं सुन्दर वर्णन केवल रामेश्वरम के लिए संभव है। रामेश्वरम स्वयं महादेव का ही रूप है और जो भी इसके दर्शन करता है उसकी समस्त इच्छाएं पूर्ण होती है। जय श्री रामेश्वरम।
द्वादश ज्योतिर्लिंग श्रंखला १०: बाबा बैद्यनाथ