एक बार गोस्वामी तुलसीदासजी सूरदास जी का सत्संग करने पधारे | सूरदासजी एवं गोस्वामी जी में मित्रता होने के कारण दोनो संत मिलने पर भरपूर विनोद किया करते थे |
गोस्वामीजी के पधारते साथ ही सूरदासजी ने विनोद में कहा:
“गोस्वामीजी, आप श्रीकृष्ण को भजा करें क्योंकि श्रीकृष्ण सोलह कलाओं के अवतार हैं परंतु श्रीराम केवल बारह कलाओं के अवतार हैं |”
इसपर गोस्वामीजी ने भी आनंद में उत्तर दिया
” अच्छा ? श्रीराम बारह कलाओं के अवतार भी हैं ? हम तो केवल उन्हे एक राजकुमार मान कर भज रहे थे | आज आपने उन्हे बारह कला के अवतार बताकर मेरी भक्ति को कई गुना अधिक कर दिया |”
इस प्रकार का होता है संतों का विनोद जिसे कुछ लोग तथ्य मानकर अपने संप्रादाय विषयक ग्रंथों में छाप देते हैं |
इन दिनों एक ऐसी भ्रान्ति फैलाई जा रही है कि श्रीराम बारह कला के अवतार हैं और श्रीकृष्ण सोलह कला के अवतार हैं और इस कारण से श्रीराम श्रीकृष्ण से न्यून हैं।
पर इसपर विचार किया जाए तो यह भ्रान्ति की सारहीनता सिद्ध हो जाएगी। क्योंकि बारह कला और सोलह कला का निर्धारण ही अस्तित्वहीन और अशास्त्रीय है। भगवान् श्रीकृष्ण सोलह कला के अवतार हैं और श्रीराम बारह कला के अवतार हैं इस सिद्धांत में कोई भी शास्त्रीय प्रमाण नहीं है। और तार्किक आधार भी नहीं है क्योंकि दोनों एक ही हैं।
वाल्मीकि रामायण के द्वारा यह बहुत स्पष्ट हो चुका भगवान् श्रीराम ही श्रीकृष्ण हैं।
ब्रह्मा जी ने स्तुति करते हुए कहा कि-
“कृष्णश्चापि बृहद्बलः । “
अर्थात् आप ही भगवान् श्रीकृष्ण होंगे।
श्रीरामचरितमानस, छठे सोपान में श्रीराम की स्तुति करते हुए देवताओं ने कहा :
मीन कमठ सूकर नरहरी। बामन परसुराम बपु धरी॥
जब जब नाथ सुरन्ह दुःख पायो।नाना तनु धरि तुम्हहिं नसायो॥
इसी प्रकार ब्रह्माजी ने श्रीमद् वाल्मीकि रामायण में श्रीराम की स्तुति करते हुए कहा :
“त्वं त्रयाणां हि लोकानामादिकर्ता स्वयंप्रभुः |” – (वा०रा० ६-११७-१८)
अर्थात् – “हे श्रीराम ! आप तीनों लोकों के आदिकर्ता हैं और स्वयं भगवान् हैं |
राकापति षोडश उए तारागन समुदाय
सकल गिरंन दव लागय बिनु रवि रात न जाय
ऐसेइ बिनु हरि भजन खगेसा
मिटइ न जीवन केरि कलेसा
भगवान् श्रीराम सूर्यकुल में जन्मे हैं इसलिए उनके यहाँ बारह कलाएं और भगवान् श्रीकृष्ण चंद्रकुल में जन्मे इसलिए उनके यहाँ सोलह कलाएँ मानी जाती हैं।
यदि बारह और सोलह में अंतर माना जाए तो १२ माशे में ही एक तोला पूर्ण हो जाता है और वही सोलह आने में पूर्ण होता है।
वैसे आनंद की बात तो यह है कि ब्रह्म का एक अर्थ है जो स्वयं बड़ा हो और दूसरे को भी बड़ा करे। तो यह विशेषता केवल नव अंक में ही प्राप्त होती है।
तुलसी अपने राम को भजन करो निस्संक।
आदि अन्त निर्वाहिहैं जैसे नव को अंक॥
अब यदि कोई तर्क करे कि श्रीकृष्ण अष्टमी के दिन जन्मे और श्रीराम नवमी के दिन जन्मे इस कारण श्रीराम बड़े हैं तो यह केवल भावुक भक्त का प्रेम माना जाएगा। इसी प्रकार यह तर्क कलाओं पर भी लागू होगा।
अस्मत्प्रसादप्रमुखः कलया कलेश इक्ष्वाकुवंश अवतीर्य गुरोर्निदेशम्।
तिष्ठन् वनं सदयितानुज आविवेश यस्मिन् विरुध्य दशकन्धर आर्तिमार्क्ष:॥
(श्रीमद् भागवतम् 2.7.23)
अर्थात् :
ब्रह्माजी नारद जी से कहते हैं कि हम लोगों पर प्रसन्न होकर इक्ष्वाकुवंश में समस्त कलाओं के ईश्वर भगवान् श्रीराम श्रीसीताजी के सहित अवतीर्ण हुए। और पिता दशरथ की बात मानकर धर्मपत्नी भगवती सीता एवं प्रिय अनुज कुमार लक्ष्मण के साथ दण्डकारण्य में प्रवेश किया। उन्हीं से विरोध के कारण रावण ने भौतिक दृष्टि से बहुत कष्ट पाया।
इस प्रकार ‘कलेश’ शब्द का उच्चारण कर देने से भागवतकार ने यह सिद्ध किया है कि भगवान् राम केवल बारह या सोलह कलाओं के अवतार नहीं हैं अपितु समस्त कलाएँ हमारे भगवान् श्रीराम में ही समाहित होती हैं।
श्रीआद्यशंकराचार्य जी अपने श्री रामभुजंग-स्तोत्र में श्रीराम को संपूर्ण कलाओं के ईश्वर से संबोधित करके स्तुति करते हैं :
“शिवंनित्यमेकंविभुंतारकाख्यंसुखाकारमाकारशून्यंसुमान्यम्।
महेशंकलेशंसुरेशंपरेशंनरेशंनिरीशंमहीशंप्रपद्ये॥२॥”
अर्थात् : जो परम कल्याण-स्वरूप, त्रिकाल में नित्य, सर्वसमर्थ, तारक राम के नाम से प्रसिद्ध, सुख के निधान, आकार शून्य, सर्वमान्य, ईश्वर के भी ईश्वर, “सम्पूर्ण कलाओं के स्वामी परन्तु उनका स्वामी कोई नहीं “, सम्पूर्ण मनुष्यों के स्वामी, पृथ्वी के भी स्वामी पर उनका कोई शासक नहीं है; मैं उन भगवान् श्री राम की शरण लेता हूँ।
सर्वेषामवताराणां अवतारी रघूत्तमः।
सर्वासां सवितां मध्ये शरयू: पावनी यथा।
अवधधाम धामाधिपति अवतारणपति राम।
सकलसिद्धपति जानकी दासनपति हनुमान।।
१६ कलाओं की चर्चा का आरम्भ क्यों हुआ ?
वस्तुतः यह १६ कलाएं जीव की हैं ।
अर्थात् पुरुष शरीर जब प्रकट होता है तो उसमें ५ ज्ञानेन्द्रियाँ, ५ कर्मेन्द्रियाँ, १ मन और पंचमहाभूत ये मिलकर १६ कलाएं हो जाती हैं। इन्हीं को १६ कलाओं का अवतार कहा जाता है।
इस परिभाषा से भगवान् श्रीराम और श्रीकृष्ण में समानता है क्योंकि दोनों मनुष्याकृति के अवतार हैं और दोनों में ११ इन्द्रियाँ एवं ५ महाभूत विद्यमान हैं।
श्रीमद् भागवतम् में सर्वप्रथम १६ कला का प्रयोग हुआ :
जगृहे पौरुषं रूपं भगवान् महादादिभि:।
सम्भूतं षोड़शकलमादौ लोकसिसृक्षया ॥
(श्रीमद् भागवतम् १.३.१)
सबसे पहले लोक की रचना करने के लिए महद् आदि तत्वों से मिश्रित एवं १६ कलाओं से सम्पूर्ण पौरुष अर्थात् पुरुषसम्बन्धी शरीर को परमात्मा ने स्वीकार किया।
श्रीधरी-टीका :
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‘षोड़शकलम्’ की व्याख्या करते हुए भागवतभावार्थ दीपिका में श्रीधर स्वामी कहते हैं –‘ एकादश इन्द्रियाणि, पंच महाभूतानि यस्मिन् तत् षोड़शकलम् ।’
श्रीधर स्वामी आगे कहते हैं –
‘यद्यपि नैवंविधो भगवतो विग्रहस्तथापि विराड्जीवन्तर्यामिणो भगवतो विराडुपासनार्थ एवायम्।’
अर्थात्- यद्यपि भगवान् के विग्रह में इन कलाओं की चर्चा नहीं की जाती फिर भी विराट् परमात्मा की उपासना की दृष्टी से यहाँ १६ कलाओं का व्यवहार किया गया है।
विजयध्वज तीर्थ टीका:
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१६ कलाओं की चर्चा करते हुए श्रीमद्भागवतम् के प्रसिद्ध टीकाकार विजयध्वज तीर्थ कहते हैं –
कलास्तु पंचभूतानि ज्ञानकर्मेंद्रियाणि च।
पंचपंच मनश्चैव षोड़शोक्ता महर्षिभिः॥
श्रीवंशीधर शर्मा टीका एवं सुबोधिनीकार पक्ष:
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इसी पक्ष का प्रसिद्ध टीकाकार श्रीवंशीधर शर्मा समर्थन करते हैं। सुबोधिनीकार भी ‘षोड़शकलम्’ की व्याख्या में इसी पक्ष को प्रस्थापित करते हैं।
समस्त टीकाकारों के श्रीचरणकमलों में प्रणाम करके १६ कला के अवतार भगवान् श्रीराम जिनका मानव शरीर जब भक्त के समक्ष दृष्टिगोचर होता है, उसमें यह सभी १६ कलाएँ दृष्टिगोचर हो जाती हैं, उन्हें हम प्रणाम करते हैं।
११ इन्द्रियाँ और ५ महाभूत के एक साथ विद्यमान होने को ही १६ कला का अवतार माना जाता है।
श्रीराम में पंचभूत और अलौकिक इन्द्रियों के स्पष्ट दर्शन होते हैं :
मन :
मोहि अतिसय प्रतीति मनकेरि।
जेहि सपनेहु परनारी न हेरी॥
चक्षु :
राजीव नैन धरे धनु सायक।
भगत विपति भंजन सुखदायक॥
श्रवण :
कल कपोल श्रुतिकुंडल लोला।
चिबुक अधर सुन्दर मृदु बोला॥
नासिका :
कुमुदबन्धुकर निन्दक हासा।
भृकुटि बिकट मनोहर नासा॥
चितवन :
चितवन चारु मारुमद हरनी।
भावन हृदय जात नहिं बरनी॥
चरणकमल :
परसत पद पावन सोक नसावन प्रकट भई तपपुंज सही।
करकमल :
कबहुँ सुकर सरोज रघुनायक धरिहौं नाथ सीस मेरे।
इस प्रकार भगवान् का षोड़श कलात्मक एवं सर्वांगसुंदर रूप से भक्तों को ध्यानगोचर होता है।
यद्यपि भगवान् की यह एकादश इन्द्रियाँ और पंच महाभूत लौकिक नहीं अलौकिक हैं, अविनाशी हैं, इसलिए –
कोटि काम छवि स्याम सरीरा।
नीलकंज बारिधि गम्भीरा॥
श्रीराम का चरित्रचित्रण करते हुए २ सबसे प्रामाणिक ग्रन्थ, श्रीरामचरितमानस एवं श्रीमद् वाल्मीकि रामायण, भी श्रीराम के षोड़शकलासंपन्न होने की पुष्टि करते हैं :
श्रीमद् वाल्मीकि रामायण :
महर्षि वाल्मीकि ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही देवर्षि नारद से १६ प्रश्न करते हैं –
कोन्वस्मिन्साम्प्रतं लोके गुणवान्कश्च वीर्यवान् ।
धर्मज्ञश्च कृतज्ञश्च सत्यवाक्यो दृढव्रत:।।१.१.२।।
चारित्रेण च को युक्तस्सर्वभूतेषु को हित: ।
विद्वान्क: कस्समर्थश्च कश्चैकप्रियदर्शन: ।।१.१.३।।
आत्मवान्को जितक्रोधो द्युतिमान्कोऽनसूयक: ।
कस्य बिभ्यति देवाश्च जातरोषस्य संयुगे ।।१.१.४।।
महर्षि वाल्मीकि कहते हैं – इस समय
१) कौन गुणवान
२) कौन वीर्यवान्
३) कौन धर्मज्ञ
४) कौन कृतज्ञ
५) कौन सत्यवादी
६) कौन दृढ़व्रत
७) कौन चरित्रसम्पन्न
८) कौन सम्पूर्ण भूतों के एकमात्र हितैषी
९) कौन विद्वान्
१०) कौन समर्थ
११) कौन एकमात्र प्रियदर्शन
१२) कौन आत्मवान् अर्थात् मनस्वी
१३) किसने क्रोध को जीता है
१४) कौन द्युतिमान्
१५) कौन किसी के भी गुणों में दोषदर्शन नहीं करता और
१६) युद्ध में क्रुद्ध होने पर किसके समक्ष देवता भी डर जाते हैं ?
इसी प्रकार श्रीरामचरितमानस में भी माता पार्वती भोलेनाथ से श्रीराम के विषय में १६ प्रश्न ही करती हैं –
१) राम सो अवध नृपति सुत सोई।
२) की अज अगुन अलखगति कोई॥
३) जौं नृप तनय त ब्रह्म किमि
४) नारि बिरहँ मति भोरि।
५) प्रथम सो कारन कहहु बिचारी।निर्गुन ब्रह्म सगुन बपु धारी॥
६) बालचरित पुनि कहहु उदारा॥
७) कहहु जथा जानकी बिबाहीं।
८) राज तजा सो दूषन काहीं॥
९) बन बसि कीन्हे चरित अपारा।
१०) कहहु नाथ जिमि रावन मारा॥
११) राज बैठि कीन्हीं बहु लीला।
१२) सकल कहहु संकर सुखसीला॥
१३) बहुरि कहहु करुनायतन कीन्ह जो अचरज राम।
१४) प्रजा सहित रघुबंसमनि किमि गवने निज धाम॥
१५) पुनि प्रभु कहहु सो तत्त्व बखानी। जेहिं बिग्यान मगन मुनि ग्यानी॥
१६) भगति ग्यान बिग्यान बिरागा। पुनि सब बरनहु सहित बिभागा॥
श्रीराम में लौकिक दृष्टि से १६ कलाएं निहित हैं इसी कारण दोनों ग्रंथों की श्रीराम कथा के प्रारम्भ में १६ प्रश्न आए।
सौभाग्य की बात यह है चंद्र का योग भी केवल श्रीराम के साथ ही सुना जाता है।
वैदिक आर्षग्रन्थों में केवल श्रीराम के साथ चंद्र का संयोग मिलता है।
यह संयोग श्रीकृष्ण या अन्य अवतारों के साथ नहीं मिलता।
रामाय रामभद्राय रामचन्द्राय वेधसे।
रघुनाथाय नाथाय श्रीसीतायाः पतये नमः।
महर्षि वाल्मीकि स्वयं युद्धकाण्ड में कहते हैं :
‘रामचन्द्रमसं दृष्ट्वा ग्रस्तं रावणराहुणा।’
इस प्रकार चन्द्र का प्रयोग ही यह स्पष्ट कर रहा है कि श्रीराम में चन्द्रमा की भाँति ही १६ कलाएं हैं।
कला का एक और पक्ष है जिसमें स्वयं सन्दर्भकार श्रील जीवगोस्वामी जी कहते हैं –
‘ ताः कला षोडश प्रोक्ता: वैष्णवै: शास्त्रदर्शनात्।
शक्तित्वेन तु ता: भक्त विवाकादिषु सम्मता:॥
श्रीर्भु: कीर्तिरिला कान्तिर्लीला विद्येति सप्तकम्।
विमलोत्कर्षिणी ज्ञाना क्रिया योगा तथैव च।
प्रह्वी सत्या तथेशानानुग्रहेति नव स्मृताः ॥’
अर्थात् श्री, भू, कीर्ति, इला, कान्ति, लीला, विमला, उत्कर्षिणी, ज्ञाना, क्रिया, योगा, प्रह्वी, सत्या, ईशाना और अनुग्रहा ये भगवान् की १६ शक्तियाँ हैं।
इस प्रकार ये १६ शक्तियाँ भगवान् राम में विराजमान हैं और भावुक भक्त इन्हीं १६ शक्तियों को १६ कलाओं के रूप में देखते हैं।
१) श्री – नित्य ह्लादिनी शक्ति
उभय बीच श्री सोहती कैसी ।
ब्रह्म जीव बीच माया जैसी ॥
‘श्रियः श्रीश्च’ श्रीराम श्री के भी श्री हैं अर्थात् वैभव के वैभव (वा०रा० २.४४.१५)
२) भू – रामावतार में स्वयं पृथ्वी भगवान् की सास बनीं।
वाल्मीकि जी भी लिखते हैं:
‘पृथिव्या सह वैदेह्या श्रिया च पुरुषर्षभः।’
(२.४४.१७)
३) कीर्ति – श्रीराम जैसी कीर्ति किसी की नहीं सुनी जाती।
कीरति सरित छहूँ रितु रूरी।
समय सुहावनि पावनि भूरि॥
कीर्ति: कीर्तया:
श्रीराम कीर्ति के भी कीर्ति अर्थात् नामवान के नाम हैं।
(वा०रा० २.४४.१५)
४) इला – अर्थात् वाणी।
परशुराम जी श्रीराम की वाणी के विषय में कहते हैं :
‘जयति वचन रचना अतिनागर’
रामः द्विर् न अभिभाषते ।। [वाल्मीकि रामायण २.१८.३०]
न किंचिदाहाहितमप्रियं वचो न वेत्ति रामः परुषणि भाषितुम्।
[वाल्मीकि रामायण २.१२.१०८]
५) कान्ति –
‘सब कर परम प्रकासक जोई।
राम अनादि अवधपति सोई॥
६) लीला – स्वयं भरद्वाज जी कहते हैं :
‘कहहुँ सुनहुँ रघुपति की लीला’
शिवजी कहते हैं :
‘गिरिजा सुनहु राम की लीला।
सुरहित दनुज विमोहन लीला॥’
७) विद्या – भगवान् राम ने ५६ दिन में विद्या अध्ययन पूरा कर लिया था :
गुरु गृह गए पढ़न रघुराई।
अलपकाल विद्या सब आई॥
८) विमला शक्ति – श्रीराम के यश में विद्यमान है।
‘बरनऊँ रघुवर विमल जसु जो दायकु फल चारि॥’
९) उत्कर्षिणी – सारा संसार राम की बड़ाई से ही बड़ा होता है।
‘जो बड़ होइ सो राम बड़ाई।
१०)ज्ञाना- श्रीराम स्वयं अखण्ड ज्ञान संपन्न हैं।
ज्ञान अखण्ड एक सीतावर ।
मायावस्य जीव सचराचर।
११) क्रिया –
सारा संसार श्रीराम से ही तो कर्म की शिक्षा लेता है।
भगवती श्रुति कहती हैं :
‘कर्ममार्गश्चरित्रेण ज्ञानमार्गस्तु नामतः ।
मानसजी में भी –
‘कीन्ही क्रिया सब सहज सुचि सरित पुनीत नहाइ।’
१२) योगा – भगवान् योगा शक्ति से संपन्न हैं तभी अयोध्यावासियों को एक साथ दर्शन देने के लिए उन्होंने अमितरूप प्रकट कर लिए-
‘अमितरूप प्रगटे तेहि काला।
जथाजोग मिले सबहिं कृपाला॥’
१३) प्रह्वी – सारा संसार भगवान् राम के अधीन है ।
‘राम रजाय मेटि मन माहीं।
देखा सुना कतहुँ कोउ नाहीं॥’
१४) सत्या – श्रीराम विनोद में भी असत्य नहीं बोलते
‘सत्यसंध दृढ़व्रत रघुराई’
१५) ईशाना – श्रीराम सबको वश में करके रखते हैं।
‘उमा न कछु कपि के अधिकाई।
प्रभु प्रताप जो कालहिं खाई॥’
१६) अनुग्रहा – श्रीराम परम करुणासिंधु हैं।वह थोड़ा नहीं बहुत अनुग्रह करते हैं।
‘हरि तुम बहुत अनुग्रह कीन्हो।
साधन धाम विवुध दुर्लभ तनु मोहि कृपा करि दीन्हों॥’
(विनय पत्रिका)
छान्दोग्योपनिषद के चतुर्थ अध्याय में सत्यकाम को आचार्य गोचारण का आदेश देते हैं। सत्यकाम जब गायों की संख्या १००० करने के पश्तात् आचार्य के यहां लौटने लगते हैं तो ब्रह्म के एक एक पाद का उपदेश करने के लिए क्रम से साँड, अग्नि, हंस और मद्गु रूप से चार विभूतियाँ प्रकट होती हैं और भगवान् की १६ कलाओं का उपदेश करती हैं।
१) प्रकाशवान् पाद :
प्रथम दिवस साँड ने सत्यकाम को ब्रह्म के पाद का उपदेश किया और कहा :
प्राचीकला, अवाचीकला, प्रतीचीकला, उदीचीकला अर्थात् पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर ये चारों दिशाएँ ही ब्रह्म की कलाएँ हैं।
चारों दिशाएँ भगवान् राम के वश में हैं इसलिए आपको दिक्पाल भी प्रणाम करते हैं।
चारों दिशाओं से प्रभुराम का विशेष सम्बन्ध भी है-
उत्तर में जन्म, पूर्व में विवाह, पश्चिमी सभ्यता से स्वयं मंथरा और कैकयी को निमित्त बनाकर वनवास और दक्षिण में रावण वध।
२) अनन्तवान् पाद :
द्वितीय दिवस स्वयं अग्नि ने सत्यकाम को समझाते हुए कहा -पृथ्वी, अन्तरिक्ष, द्यौ, समुद्र ये चार कलाएँ हैं।
सम्पूर्ण पृथ्वी, अन्तरिक्ष, स्वर्ग और समुद्र ये सब श्रीराम द्वारा शासित हैं।
इसलिए गोस्वामीजी ने कहा :
भूमि सप्तसागर मेखला ।
एक भूप रघुपति कोसला ॥
सागर स्वयं श्रीराम के बाण से भयभीत होकर शरण में आया:
कनक थार भरि मनिगन नाना।
बिप्र रूप आयउ तजि माना ॥
३) ज्योतिष्मान् पाद :
तीसरे दिन के उपदेश में हंस ने अग्नि, सूर्य, चंद्र और विद्युत् को ब्रह्म की कलाएँ कहा।
अग्नि प्रभु का मुख है, सूर्य नेत्र हैं, चंद्र उनका मन है और विद्युत् जैसा उनका पीताम्बर है :
आनन अनल अम्बुपति जीहा। नयन दिवाकर कच घनमाला।
मन ससि चित्त महान्।तडित विनन्दक पीत पट उदर रेख बलतीन।
४) आयतवान् पाद :
चतुर्थ दिन मद्गु ने सत्यकाम को उपदेश करते हुए कहा :प्राण, चक्षु, श्रोत्र और मन -ये ब्रह्म की चार कलाएँ हैं।
इन चारों को भी भगवान् राम ने स्वीकारा।
~प्राण समान राम प्रिय अहहू
~नेत्र-राजीव नयन धरे धनुसायक
~श्रवण-श्रवण सुभग भूषण छवि छाये
~मन-मोहि अतिसय प्रतीति मन केरी
इसप्रकार उपनिषदों ने भी चतुष्पाद विभूति एवं १६ कलाओं को भगवान् राम के चरित्र में स्पष्ट दर्शन कराया।
स जायति षोडशकलको जानक्यानंदवर्द्धनो रामः।
श्रुतयोSपि यस्य चरितं गायन्त्यो न ययुः पारम्॥
वेद भी जिनका चरित गाते पार नहीं पाते ऐसे भगवती जानकी जी के आनंद को बढ़ाने वाले, सोलह कलाओं से संपन्न, पुराण पुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम की जय हो।
षोडशैव कलाः पुंसः सामान्यं श्रुतिभिः श्रुताः।
विशिष्टास्तु कलास्तस्य ह्यनन्ता जानकीपतेः॥
श्रीसीतापति भगवान् श्रीराम की सामान्यरूप से सोलह कलायें ही श्रुति द्वारा प्रतिश्रुत हैं। परमेश्वर की विशेष कलायें तो अनन्त हैं। उनका कोई अंत नहीं पा सकता।
प्रेरणास्तोत्र : जगद्गुरु रामभद्राचार्य जी
सम्पादक : अपूर्व अग्रवाल