Some Highly Popular Anti Growth Myths That Have To Be Buried By The Next Government : कुछ बहुत लोकप्रिय मिथक जिन्होंने भारत का आर्थिक विकास रोक दिया
विगत पाँच वर्षों मैं ईमानदार सरकार , मेहनती नेतृत्व व् संसद मैं एक पार्टी के राज के बावजूद इतना कम आर्थिक , औद्योगिक व् कृषि का विकास होना देश के नेताओं व् प्रबुद्ध वर्ग के चिंतकों के लिए एक पहेली है जिसे अभी सुलझाना आवश्यक है नहीं तो अगले पाँच वर्ष भी हम विकास के फर्जी आंकड़ों की भूल भुलैया मैं घूमते रहेंगे .यह बात सब जानते हैं की सरकार इससे अधिक विकास चाहती थी परन्तु कर न सकी . परन्तु जिन कारणों ने विकास को अवरुद्ध किया वह कोई बोल नहीं पा रहा क्योंकि जन मानस को हमने एक सपना बेचा था जो गलत था पर अब कहानी का राजा निर्वस्त्र है कौन कहे ? या यह कहिये की सच कह कर बिल्ली के गले मैं घंटी कौन बांधे ? पर बृहत् राष्ट्रीय हित मैं अब यह आवश्यक हो गया है की उन मिथकों की सच्चाई सबको बतायी जाय जिससे नयी सरकार पुरानी गलतियां नहीं दोहराए .
१.काले धन की ट्रक की बत्ती के पीछे भागना बंद करो :’ भ्रष्टाचार या काला धन विकास को मुख्यतः अवरुद्ध कर रहा है ‘ एक लोकप्रिय झूठ है
कोई भी सभ्य समाज भ्रष्टाचार के रोग को समाप्त करना चाहता है . भारत की जनता ने अनेकों बार अपनी इमानदारी की इच्छा को चुनावों मैं व्यक्त किया है .परन्तु अज्ञानवश , पिछले पाँच वर्ष हमें भ्रष्टाचार व् कालेधन को समाप्त करने की ऐसी लोकप्रिय परन्तु एकदम झूठी भूल भुलैया मैं फंसा दिया की हम जितनी काले धन की दवा खाते गए उतना ही आर्थिक संकट का रोग बढ़ता गया . विकास की कमी का रोग ठीक न कर पाने के कारण मजबूरी में हम झूठे आंकड़े बना कर देश को भ्रमित करते रहे . सच यह है की जैसा नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अर्थशास्त्री गुनार मैरडल ने एशिया के गहन अध्यन के बाद अपनी पुस्तक ‘ एशियाई ड्रामा ‘ मैं लिखा था की एशिया के देशों मैं भर्ष्टाचार से से अधिक सरकारी अकर्मण्यता ,सुस्ती व् गलत नीतियाँ गरीबी के लिए ज्यादा जिम्मेवार हैं . चीन मैं भारत से ज्यादा भर्ष्टाचार है पर उसकी सही नीतियों ने अप्रत्याशित उन्नत देश बना दिया .भारत की अर्थव्यवस्था मैं टैक्स चोरी के काले धन से सिर्फ सरकार के टैक्स मैं कमी आती है और कोई और नुक्सान नहीं होता . यह टैक्स की की चोरी चुनावों के खर्च मैं लग जाती है और हमारे उद्योगों को बड़ा नुक्सान होने से रोकती है . यही हाल देश के अन्दर रहे अन्य तरह के काले धनों का है .वह सब सामाजिक रूप से अवांछनीय हैं परन्तु उनसे आर्थिक विकास अवरुद्ध नहीं होता है . बल्कि कालेधन की अर्थव्यवस्था मैं बाबुओं के दखल न होने से ज्यादा चुस्त होती है और विकास को ज्यादा बल मिलता है . इसलिए भर्ष्टाचार को एक सामाजिक नासूर की तरह खत्म करना चाहिए . लेकिन अर्थव्यवस्था को इतनी बड़ी चोट पहुंचा कर काले धन की मरीचिका के पीछे भागना उपयुक्त नहीं है .
इसलिए अगले पाँच वर्षों में सरकार को इमानदारी की मुहीम को बरकरार रखते हुए आर्थिक विकास को एक मात्र प्रमुख लक्ष्य मानना होगा क्योंकि अन्य आवश्यक विकास बिना पैसे के नहीं हो सकते .
२. संतुलित बजट व् कम वित्तीय घाटा देश की प्रगति के लिए अति आवश्यक है : एक और बहु प्रचलित सरकारी भ्रम
२०१४ के शुरू मैं जब देश मैं दस प्रतिशत की वार्षिक मंहगाई की दर थी तब संतुलित बजट व् वित्तीय घटे को कम करने की बहुत आवश्यकता थी .परन्तु २०१५ तक हमने मंहगाई पर काबू पा लिया था . उसके बाद हमें औद्योगिक विकास को प्राथमिकता देनी चाहिए थी . परन्तु कमरतोड़ मंहगाई के दूध से जले वित्त मंत्रि ने पाँच वर्ष वित्तीय घाटे के छाछ को फूंक फूंक कर पीने मैं बिता दिये . इसमें रिज़र्व बैंक का भी हाथ था . इसलिए सरकार मंहगाई को तो रोकने मैं सफल हो गयी पर इससे देश के तेजी से विकास की गाडी छूट गयी . वाजपेयी जी व् मनमोहन सिंह के प्रथम कार्यकाल में तेज़ विकास के साथ मंहगाई भी कम थी . यह अब भी संभव है . नोट्बंदी व् जीएसटी ने सामान की मांग बहुत कम कर दी है . कृषि और उद्योगों की विकास दर भी कम होने से मांग कम हुई है .निजी क्षेत्र अभी निवेश करने की अवस्था में नहीं है . इसलिए सरकार को देश मैं मांग व् आपूर्ती दोनों को बढ़ाना होगा जिसके लिए विकास व् उत्पादन के लिए उपयोगी सरकारी खर्च को बढ़ाना होगा .
अगली सरकार को वित्त विभाग एक पाकिस्तान के शौकत अज़ीज़ या हमारे मनमोहन सिंह जैसे ज्ञानी अर्थशास्त्री को सौंपना पडेगा जो वित्त मंत्रालय के अल्पबुद्धि परन्तु बेहद घमंडी बाबुओं को वश मैं कर देश की अर्थव्यवस्था को दलदल से निकाल कर तेज विकास की सड़क पर डाल सके .
३. भारतीय उद्योगपति देश की अर्थ व्यवस्था के आधार स्तम्भ हैं उनके पलायन , शोषण या उत्पीडन से देश का विकास नहीं हो सकता है :
देश के आर्थिक विकास को मंदा करने में शुरू से ही विपक्ष के ‘ सूट बूट की सरकार ‘ य अम्बानी अदानी की सरकार ‘ , ‘गरीब विरोधी सरकार ‘ इत्यादि जैसे नारों का बहुत योगदान रहा है . दिल्ली व् बिहार की हार ने तो सरकार को बुरी तरह से झिझोड़ दिया . इसके बाद तो अर्थशास्त्र पर राजनीती पूरी तरह से हावी हो गयी . उसके बाद इंदिरा गाँधी की समाजवादी नीतियों व् नयी सरकार की लोक लुभावन आर्थिक नीतियों मैं कोई फर्क ही नहीं रह गया . नोट बंदी एक सफल राजनितिक परन्तु एक विनाशकारी आर्थिक कदम सिद्ध हो गयी . देश के खुदरा व्यापारी यह साफ़ बता सकते हैं की नोट बंदी से आयी मंदी आज भी समाप्त नहीं हुयी है . जब नर सिम्हा राव एक अल्पमत की सरकार मैं इतने बड़े काम कर गए तो प्रधान मंत्रि यदि विपक्ष को साथ लेकर चलने का प्रयास करें तो नयी आवश्यक आर्थिक नीतियों के लिए संसद मैं भी समर्थन बना सकते हैं .
भारतीय उद्योगपति भी भारत के अन्य वर्गों की ही तरह हें. न तो हमारे वैज्ञानिक , न ही खिलाड़ी न ही प्राध्यापक विश्वस्तरीय हें और न ही हमारे सरकारी बाबु हेनरी किसिंजर हैं . परन्तु सत्ता के नशे मैं लालची बाबु अपनी कमियों को नजरंदाज कर उद्योगपतियों मैं दोष ढूंढते फिरते हैं और फिर नेताओं के साथ मिलके उनका शोषण और उत्पीडन करते रहते हैं . पिछले पाँच वर्षों में उत्पीडन से तंग आ कर बहुत धनिक लोग विदेशों मैं बस गए हैं जो देश के लिए हानिकारक है .
आय कर व् अन्य सरकारी तंत्रों ने पिछले कुछ वर्षों मैं उद्योगपतियों को बहुत चूसा व् सताया है . मध्यम वर्ग को तो अब कोई पूछता ही नहीं है .सरकारी तंत्र द्वारा अमीरों का उत्पीडन रोकना होगा .
४. ढोंगी इमानदारी , दूधवाले पर अनेकों इंस्पेक्टर : अति उत्साहित सीबीआई , विजिलेंस , ईडी , ऑडिट और बहुत एक्टिव न्याय पालिका आर्थिक प्रगति व् राष्ट्र हित में नहीं है
टीवी या अखबारों पर बहु चर्चित इमानदारी के अभियानों से इमानदारी नहीं बढ़ेगी . उसके लिए अन्य उपाय आवश्यक हें . चुनावी खर्चे अब इतने बढ़ गए हैं की अब पैसे के किये सब दल सरकारी तंत्र का दुरूपयोग करते हैं . फिर भी बाबुओं पर अनेकों विजिलेंस इंस्पेक्टर और सर्वव्यापी डर बिठा कर हमने उन्हें एक दम निष्क्रीय व् अकर्मण्य बना दिया है . देश में इतने दिनों में कोई क्रांतिकारी नयी नीति नहीं आयी है.चमचों से घिरी इस सरकार को पुनः स्वाभिमानी बाबुओं की पहल व् कठिन फैसले लेने के साहस को स्थापित करना होगा जो बहुत कठिन है . अरहर दाल की प्रारम्भिक मंहगाई ऐसे ही एक डरपोक फैसले से हुयी थी जब बाबुओं ने मंहगे दाम के कारण दाल का का टेंडर दुबारा इशू कर दिया था जब की देश मैं दाल का अभाव था . एक तो बाबु स्वभाव से डरपोक होता है . उसे इंस्पेक्टरों का बहुत डर दिखा कर इतना डरा दिया है उन्होंने अब काम करना ही बंद कर दिया है . इस परिस्थिति को वापिस सामान्य करना होगा . इसी तरह दस साल पुरानी डीजल कार व् पंद्रह साल से अधिक पुराने ट्रकों को बंद करने का न्यायलय का निर्णय देश के विकास के लिए घातक था .सरकारी नीतियों का स्थायित्व व्यवसायिक निवेश के लिए बहुत आवश्यक है.
५.सस्ते अयस्क , स्पेक्ट्रम , खनिज इत्यादि उद्योगों के लिए आवश्यक हें : कथित पारदर्शिता का विनाशकारी भूत उतारो .
पिछले पाँच सालों मैं अनेकों बड़ी टेलिकॉम , व् अन्य कम्पनियाँ दिवालिया हो गयी हैं . मंहगे स्पेक्ट्रम या खानों की नीलामी से देश को बहुत नुक्सान हुआ है . जितना धन नीलामी से आया उससे ज्यादा बैंकों का कर्जा डूब गया है . इसके विपरीत वाजपेयी युग मैं सस्ते स्पेक्ट्रम ने देश भर में मोबाइल फैला दिया था . भारत मैं इतनी छुपे हुए खर्चे हैं की उद्योगों को सस्ता कच्चा माल देना एक राष्ट्रीय आवश्यकता है . सरकार को विपक्ष को यह समझाना चाहिए . उद्योगों की मुश्किलों को बिना समझे राजनीती वश झूठी इमानदारी को गले का सांप नहीं बनने देना चाहिए . हाँ यह भी सच है की फियट एम्बेसडर युग के कार उद्योग ने सिद्ध कर दिया है भारतीय उद्योगों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर लाना भी आवश्यक है . परन्तु बाबुओं का विजिलेंस का डर उन्हें राष्ट्रहित के लिए आवश्यक सही फैसले नहीं लेने देता है .
६. निर्यातकों व् उद्योगों के साथ अब सरकारी साझेदारी आवश्यक है
७. विकास की आर्थिक नीतियों को राजनीति से बचाना :
पिछले पाँच वर्षों की सफल राजनीतिक उपलब्धियों के बाद अब नयी सरकार को साहस कर औद्योगिक व् कृषि विकास को प्राथमिकता देनी होगी . इसके लिए जनता व् विपक्ष को विश्वास में लेकर ओछी राजनीती को विकास की आवश्यकताओं को अवरुद्ध करने से रोकना होगा . भारत चीन का तभी सामना कर सकता है जब हमारा निर्यात व् आर्थिक विकास बहुत तेज़ी से बढे . इसके लिए सारे देश को साथ लेकर त्वरित विकास की ओर चलना ही प्रथम राष्ट्रीय आवश्यकता है .