स्वार्थी अमरीका और उस के डसित मित्र देश : बिछड़े सभी बारी बारी : अब भारत भी लपेटे में
डा. हेनरी किसिंजर ने एक बार कहा था की अमरीका की दुश्मनी तो सिर्फ खतरनाक है पर उसकी दोस्ती तो प्राण लेवा होती है . इस का अहसास अब अमरीका के सभी बड़े मित्र देशों को हो गया है और अब सब अमरीका से पल्ला झाड रहे हैं .
पहले तो भारत ने अपने बांग्लादेश के समय के पुराने मित्र रूस को कठिन समय में झोडने से मना कर दिया और जम कर सस्ता तेल , फर्टीलाईज़र, स्टील , कोयला खरीद लिया . फिर सऊदी के राज कुमार सलमान अमरीकी राष्ट्रपति बिडेन को लेने जेद्दा के हवाई अड्डे पर भी नहीं पहुंचे और न ही उन्होंने तेल का उत्पादन बढाने की मांग को माना . बल्कि इसके विपरीत सऊदी ने तेल के दाम बढाने के लिए उत्पादन घटा दिया. यह वही सलमान थे जिन्होंने राष्ट्रपति ट्रम्प के लिए 54 इस्लामिक राष्ट्राध्यक्ष बुला दिए थे और 110 बिलियन डॉलर के हथियार भी खरीद लिए थे . अब तो सऊदी का मोह ऐसा भंग हुआ है कि वह रूस चीन के ब्रिक्स संगठन में भी आना चाह रहा है . UAE ने अमरीकी 35 F 35 की डील टाल कर फ्रांस के राफेल हवाई जहाज़ खरीद लिए . आखिरी बचे मित्रों में अब जापान ने भी अपनी अर्थ व्यवस्था को बचाने के लिए रूस से तेल खरीदने का निर्णय ले लिया है और वह अब अपनी रक्षा स्वयं करने के लिए भी तैयार हो रहा है क्योंकि वह जान गया है कि अम्रीका उसे चीनी हमले से नहीं बचा पायेगा. ताइवान की भी हालत खस्ता है . चीन उसे दस साल में हथिया ही लेगा और कमजोर अमरीका कुछ नहीं कर पायेगा.
अमरीका की आखिरी आस यूरोप था क्योंकि द्वितीय विश्व युद्ध की आर्थिक तबाही से अमरीका ने उसके उठने मैं बहुत मदद की थी . अब उस में भी विद्रोह चालू हो गया है . विद्रोह का कारण भी यूरोप की मंहगाई से खस्ता अर्थ व्यवस्था ही है . यूरोप रूस के सस्ते तेल , गैस व् कोयले पर आश्रित था . पहले तो रूस ने गैस देने में न नुकुर कर जतला दिया की तुम हम पर आश्रित हो . फिर एक दिन उसने अपनी गैस पाइप लाइन रिपेयर के लिए बंद कर दी और शुरू करने के बाद भी गैस की सप्लाई कम कर दी . रूस सर्दियों मैं यूरोप मैं गैस की कमी करना चाह रहा था . उसकी यह इच्छा स्वयं अमरीका ने रूस की गैस की पाइप लाइन इंग्लैंड की मदद से तुडवा कर पूरी कर दी. यूरोप के बड़े देशों ने तो अपनी सर्दियों की मांग के अनुसार गैस भंडारित कर ली है पर छोटे देश क्या करें? अब तो यूरोप के छोटे देश बड़े ऊर्जा संकट मैं हें और जापान की तरह पुनः रूस की शरण मैं जा रहे हैं . अमरीका ने यूरोप को गैस तो दे दी पर बेहद बढी हुयी कीमतों पर . इससे जर्मनी की BASF सरीखी गैस पर आश्रित इंडस्ट्री चीन में शिफ्ट होने की कगार पर आ गयी . जर्मनी के चांस्लर अपनी डूबती अर्थ व्यवस्था को बचाने के लिए भागे हुए चीन व् सऊदी के दौरे पर चले गए और चीन को अपना बंदरगाह दे दिया . हद तो तब हुयी जब पूरे यूरोप में नाटो के विरुद्ध प्रदर्शन होने लगे . जापान सरीखे सारे बड़े तो बड़े, वियतनाम जैसे छोटे देशों ने भी डॉलर बांड बड़ी मात्रा में बेच दिए .
अमरीका ने क्यों एक युक्रेन के व्यर्थ के युद्ध मैं सारे यूरोप को डाल दिया और सारे विश्व में त्राहि त्राहि हो गयी . ऊपर से दर्द से बिलबिलाते विश्व की कोई चिंता किये बिना अमरीका अपने मंहगे हथियार व् गैस बेच कर खूब फायदा कमा रहा है और शेकेस्पारे के शाईलोक की तरह हो गया है. अब अमरीका कभी भी यूरोप में अपना कभी पुराना विश्वास नहीं पा सकेगा .
पर इन सब के पीछे क्या कारण थे . क्यों अमरीका विश्व मैं इतना अकेला पड़ गया है ?
इन सब के पीछे सिर्फ एक ही कारण था . रूस के टूटने के बाद अमरीका अत्यंत घमंडी , स्वार्थी व् निरंकुश हो गया था . उसकी सब पॉलिसियों का एक मात्र उद्देश्य अमरीकी वर्चस्व को सदा अक्षुण्य रखना था . परन्तु कहावत है कि चौबे जी छबे बनने चले थे और रह गए दूबे . यही अमरीका के साथ हुआ .
अमरीका पर विश्वास उठने में शरुआत सद्दाम को झूठ मूठ के दोषारोपण में फांसी देने से हुयी . सब जगत को पता था की इस्राइल के हमले के बाद सद्दाम कोई परमाणु बम नहीं बना रहा था पर पिता के हारने का बदला लेने के लिए पुत्र बुश ने इराक को व्यर्थ तबाह कर दिया . फिर प्रजा तंत्र की गुण गान करने वाले अमरीका ने मिस्र के चुने हुए राष्ट्र पति मोर्सी को सेना से हटवा दिया और अंत में उनकी जेल में ही मौत हो गयी . यही हाल लीबिया की गद्दाफी का भी हुआ . अंत में पुतिन ने सीरिया मैं अमरीका की विजय यात्रा को रोक दिया . सीरिया से अमरीका संतप्त विश्व को पुतिन मैं एक आशा की किरण प्रकट होती देखी.
अमरीकी राष्ट्रपति ट्रम्प ने यूरोप को तब बड़ा झटका दिया जब उन्होंने जर्मनी के साथ संयुक्त रूप से विकसित फईज़र की कोरोना वैक्सीन को जर्मनी को नहीं दिया . हद तो तब हुयी जब जर्मनी की खरीदी हुयी कोरोना की दवा को रास्ते मैं उतार कर अमरीका भेज दिया . इसके पहले भी उन्होंने बिना यूरोप से पूछे ईरान से किये गए समझौते को इक तरफा तोड़ दिया . यूरोप अंतर्राष्ट्रीय समझौतों को इक तरफ़ा तोड़ने के विरुद्ध था पर ईरान के परमाणु बम की धमकी से डर गया . कनाडा , मेक्सिको WTO इत्यादि के साथ हुए समझौतों को भी तोड़ दिया . संसार को ट्रम्प के आगे झुकना पडा पर टीस तो होनी ही थी .
राष्ट्रपति ट्रम्प ने जो किया वह निस्सदेह अमरीका के हित में था और उसकी निरंतर गिरती अर्थ व्यवस्था के लिए आवश्यक भी था . इसलिए लोगों ने उन्हें माफ़ तो कर दिया परन्तु अमरीका पर अब उनका विश्वास और हटना शुरू हो गया था .
राष्ट्रपति बिडेन बेहद बूढ़े थे और वास्तिवकता से अनभिग्य थे . वह अपने जवानी के समर्थ अमरीका के दिवः स्वप्नों मैं जी रहे थे . इसलिए उन्होंने सब देशों को एक बादशाह की तरह हांकना शुरू कर दिया . डा किस्सिंजर पेट्रो डॉलर के बदले में सऊदी किंग को बेहद इज्ज़त देते थे . इज्ज़त तो दूर , राष्ट्रपति बिडेन ने प्रिंस सलमान को पत्रकार खगोशी की ह्त्या के लिए दण्डित करने की बातें कर दीं जो सऊदी को बहुत चुभ गयी . भारत के प्रधान मंत्री से संयुक्त प्रेस कांफ्रेंस न कर उपराष्ट्रपति को भेज दिया . भारतियों को वीसा बंद सा कर दिया . पाकिस्तान को ऍफ़ १६ हवाई जहाज के पुर्जे दे दिए. फ्रांस की पनडुब्बी डील ऑस्ट्रेलिया से छीन ली . जर्मनी के बजाय गैस की सप्लाई पोलैंड के रस्ते करने की कोशिश करने लगे और पोलैंड को जर्मनी से द्वितीय विश्व युद्ध की एवज़ मैं पैसे मांग करवा दी . रूस के बॉर्डर पर नाटो के मिसाइल लगवा दिए . हर किसी की दुम पर कोई बम लगा कर अपनी शक्ती प्रदर्शित करने लगे .अफ़ग़ानिस्तान से नाटो के सैनिकों को तालिबान के भरोसे छोड़ कर भागने से अब कोई नाटो देश अमरीका के साथ नहीं लड़ने आयेगा .
इन सब दुर्व्यवहारों के पीछे अमरीका का एक मात्र सुपर पॉवर होने का घमंड था . अब सब देश अमरीका की वास्तविकता जान गए हैं . अब अमरीका का पतन शुरू हो चुका है और उसका यह घमंड अवश्य टूटेगा . परन्तु इसके दुष्परिणाम भी होंगे. भारत , ताइवान , आसियान , जापान को चीन से मुकाबला करने की सक्षम रण निति बनानी होगी. रूस के आस पास के देशों को रूस से बचना मुश्किल हो जाएगा . विघटित यूरोप शक्तिहीन हो जाएगा और षड्यंत्रों का सहारा ले सकता है.
इस सबसे भारत को पश्चिमी नव उपनिवेशवाद के उदय से खतरा है . पश्चिमी राष्ट्र रूस व् चीन का कुछ नहीं बिगाड़ पाएंगे . इसलिए वह सब भारत को तोड़ने का संगठित प्रयास करेंगे . इस के लिए देश की अखंडता को सुरक्षित रखने के लिए संविधान मैं बदलाव करने पड़ सकते हैं . अमरीका व् यूरोप को आर्थिक रूप इतना कमजोर नहीं हो जाना चाहिए कि वहां विद्रोह की आशंका हो जाए .
विश्व शांति के लिए पुराने केनेडी कालीन अमरीका का रहना भी आवश्यक है पर इस घमंडी अमरीका का नहीं .