सर्वोच्च न्यायलय संविधान के मूलभूत ढांचे मैं परिवर्तन नहीं कर सकता न ही संसद या कार्यपालिका की शक्तियां घटा सकता है : केशवानंद भारती केस का फैसला न्यायालय पर भी लागू है

सर्वोच्च न्यायलय संविधान के मूलभूत ढांचे मैं परिवर्तन नहीं कर सकता न ही संसद या कार्यपालिका की शक्तियां घटा सकता है : केशवानंद भारती केस का फैसला न्यायालय पर भी लागू है

राजीव उपाध्याय

पिछले पिचहत्तर साल के इतिहास में नयायपालिका ने इमरजेंसी जैसे कई बुरे दिन भी देखे हैं और अच्छे भी पर सब मिला कर जनता का उच्च न्यायलय पर विश्वास बना रहा है .

परन्तु अत्यधिक लंबित केसों , अत्यंत देर से मिलने वाले न्याय से जनता न्यायिक व्यवस्था से त्रस्त है और ‘ तारिख पर तारिख देने वाले कोर्ट जनता के बजाय वकीलों के लिए ज्यादा काम करते से प्रतीत हो रहे हैं.  अब इस नियुक्तियों के अधिकारों की इस छीना झपटी  के अभियोग में अब अब सर्वोच्च न्यायलय व् हाई कोर्ट भी आ गए हैं . इसके अलावा दिवाली , होली , जन्माष्टमी जैसे हिन्दू त्योहारों व् महिला अधिकारों की पश्चिम की नक़ल से हिन्दू पारिवारिक व्यवस्था को छिन्न भिन्न करने के न्यायिक प्रयासों से जनता भी दुखी है . यह सच है की इन विगत वर्षों मैं न्यायालयों ने अपने अधिकार बहुत बढ़ा लिए हैं. विशेषतः व्याख्या के नाम पर कानून बदलने की नयी परम्परा से  कार्यपालिका व् संसद का नाराज़ होना ठीक भी है.

1986 में पी एल भगवती जी ने पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन को आरम्भ कर न्यायपालिका के सरकार के क्षेत्र मैं दखल देने की परम्परा शुरू की . परन्तु सदुपयोग के साथ इसका जम कर दुरूपयोग भी हुआ जैसे नर्मदा डैम को वर्षों लंबित रखा . २०१४ – १५ के बाद  देश की अर्थ व्यवस्था को खनन व् टेलिकॉम सेक्टर के निर्णयों से अर्थव्यवस्था को बहुत नुक्सान हुआ.राष्ट्रपति की फाँसी की सज़ा माफ़ करने की शक्ति समाप्त सी कर दी . राष्ट्रपति की याकूब मेनन  की फांसी की सज़ा न माफ़ करने के बाद भी सर्वोच्च न्यायलय में अनेकों बार सुनवाई हुई और एक बार तो रात के तीन बजे कोर्ट खोला गया. यह राष्ट्रपति का अपमान प्रतीत होता है. पंजाब के ड़ीआईजी संधू को जेल देने के दुष्परिणाम दशकों तक देश भुगतेगा . स्वयं स्वर्गीय के पी एस गिल इससे बहुत दुखी हुए थे. जजों की नियुक्ति संविधान मैं सरकार का अधिकार है . पर १९९३ से यह अधिकार सर्वोच्च न्यायलय ने अपने अधिकार क्षेत्र में ले लिया है .

प्रजा तंत्र में जनता की प्रतिनिधि संसद है न की न्यायालय . जनता को न्याय दिलाना भी सरकार की ही जिम्मेवारी है .सरकार को इस प्रक्रिया से नहीं निकाला जा सकता.

केशव नन्द भारती केस के निर्णय ने एक सीमा रेखा खिंची थी कि संसद संविधान के मूल भूत ढांचे को नहीं बदल सकती . कार्य पालिका , संसद व् न्याय पालिका के संवैधानिक अधिकार भी इस मूल ढांचे का अंग हैं . सर्वोच्च न्यायलय स्वयं भी इस रेखा का उल्लंघन नहीं कर सकता . न्यायालय कानून को नहीं बदल सकते न ही नया क़ानून बना सकते हैं . परन्तु अनेक निर्णय संसद के इस अधिकार उल्लंघन हैं. इसी तरह कोर्ट को सरकारी कर्मचारियों को दंड देना अनुचित है यह सरकार का काम है. सेनाओं के मामलों मैं भी कोर्ट की सीमाएं हैं जिनका अतिक्रमण नहीं होना चाहिए. इसी तरह जो आस्थाएं व् सनातन परम्पराएं संविधान से पहले हज़ारों वर्षों से चली आ रही हें उनको कोर्ट नहीं बदल सकता .

इस लिए आवश्यक हो गया है की न्यायालय कुछ कदम पीछे हटें व जनता , सरकार व् संसद के अधिकारों का भी सम्मान करें .

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