पश्चिमी विकृत अति नारीवाद व समलैंगिकता प्रेम के न्यायिक संरक्षण से भारतीय समाज की रक्षा करना सरकार का दायित्व है

पश्चिमी विकृत अति नारीवाद व समलैंगिकता प्रेम के न्यायिक संरक्षण से भारतीय समाज की रक्षा करना सरकार का दायित्व है

राजीव उपाध्याय

 

समलैंगिकता व् वैवाहिक बलात्कार के मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायालय ने फिर एक कदम आगे बढ़ कर भारतीय समाज को विघटन की अगली सीढी पर लाने का प्रयास किया है . अभी तो सरकार की मात्र राय मागी है पर इसका सज्ञान ही कोर्ट की मंशा दिखलाता है . हिन्दू विवाह संस्कारों मैं वैवाहिक बलात्कार की कोई गुंजाइश व् परिभाषा नहीं है . परिवार की व्यवस्था ही काम सुख से पशुओं सरीखी हिंसा को निकालने के लिए प्रारम्भ हुई  थी . यह तो विवाह के मूल आधारों में से एक है . इसमें बलात्कार और जेल कहाँ से  आ गये . क्या  अब घरों में कैमरे लगाने पड़ेंगे ! वैवाहिक  हिंसा पर  तो कानून है ही . इस भयंकर दूरगामी परिणाम देने वाली सोच को मात्र कुछ पश्चिमी विकृत अति नारी वाद की संस्थाएं बढावा दे रही हैं . फिर भी सर्वोच्च न्यायलय ने इसकी शुरुआत करते हुए इसे अनचाहे गर्भाधारण की अवस्था मैं जबरदस्ती इसको दंड संहिता मैं जोड़ दिया है जिसे तुरंत हटाना आवश्यक है .

पश्चिमी समाज में अति नारीवाद के प्रचलन से  आधे विवाह टूट जाते हैं . इसका मूल कारण बड़ी Unearned Abnormal Alimony है जिसने नारी को आलसी व उच्छिन्खल बना दिया है . पश्चिमी समाज इसके कारण विनाश की कगार पर आ पहुंचा है  जहाँ अब इतने गोरे  बच्चे पैदा नहीं हो रहे हैं जिससे उनकी सभ्यता को बचाया जा सके .हमारा देश भी पहले ही इस विकृत अति नारीवाद की मार झेल रहा है .पुरुष को विवाह एक जेल बना दिया है जिसमें महिला उसे और उसके परिवार को डाल सकती है . हज़ारों माँ बाप झूठे दहेज़ के मामलों में व्यर्थ मैं जेलों मैं सड़ रहे हैं . एक और विकृत फैसले ने  माँ बाप की जीवन भर की कमाई से बनाये हुए घर को भी तलाकशुदा पत्नी की आंशिक सम्पत्ती बना दिया . कोई भी किसी दुसरे द्वारा अपने प्रयासों से अर्जित सम्पत्ती का मालिक कैसे बन सकता है और पत्नी इसका अपवाद नहीं हो सकती . पितृ ऋण को उतारने वाले श्रवण कुमार के इस देश में , बच्चों पर सब कुछ निछावर  कर देने वाले माँ बाप का तो बुढापे में बच्चों से सम्मान पूर्वक भरण पोषण पर कोई अधिकार ही नहीं रह गया .यह हिन्दू विवाह पद्धति नहीं थी . विकृत अति नारीवाद ने पति व बूढ़े माँ बाप का बुढापा बर्बाद कर दिया है . नारी भी बुढापे में अपने दुष्कर्मों का फल भोगेगी .

एक मूल प्रश्न है की प्रकृति में हर कोई जीव अपना पेट स्वयं भरता है . नारी को भी अपनी जीवन की व्यवस्था स्वयं करनी चाहिए . विवाह मैं हिन्दू धर्म मैं पति पत्नी के दायित्व बताये जाते हैं .न्यायालयों ने  पति के अधिकार तो समाप्त कर दिए  और पत्नी  को अत्यधिक सशक्त कर परिवार  का वास्तविक मुखिया बना दिया जो जन हित मैं नहीं है. पुरुष क्यों नारी का जीवन भर पोषण करे यदि उसे विवाह से कुछ नहीं मिल रहा . यदि वैवाहिक बलात्कार का क़ानून बन गया तो नौकरानी से CONTRACT क्यों  न कर ले और किराए की कोख से बच्चे पैदा कर ले जैसे करण जोहर या एलोन मसक  ने किये हैं . पारिवारिक व्यवस्था मैं दोनों को कुछ फायदा मिलता था .पति को घर बच्चों व् काम सुख और पत्नी को कुछ पारिवारिक जिम्मेवारी के बदले जीवन भर की संरक्षा व् परिवार मिलता है. काम की इच्छा तो पत्नी को भी होती है सिर्फ मात्रा मैं अंतर होता है . प्रकृति द्वारा  वंश   चलने के लिए दी गयी पुरुष की कामवासना को  को  पत्नी का हथियार बनाना गलत है .अब तो माँ बाप के लिए शादी के बाद बच्चों को घर मैं रखना पाप हो गया है . यदि वैवाहिक बलात्कार का क़ानून आ गया तो उसका दहेज़ कानूनों की तरह ही घोर दुरुपयोग होगा .पुरुष व् उसका परिवार जेल के डर से पत्नी का गुलाम बन जाएगा . न्यायालयों  द्वारा उत्पन्न की इस विकृति को सुधारने के बजाय कुछ पश्चिम से प्रभावित न्यायधीश अपनी व्यक्तिगत धरणाओं को समाज पर जन हित याचिकाओं के जरिये थोपते रहते  हैं .

यही हाल समलैंगिकता का है . आई पी सी में यह एक अपराध था जिसका कभी कभी पुलिस हिजड़ों पर दुरूपयोग करती थी . इसको पश्चिम स्वरुप में मान्यता देने का   सारे हिन्दू व् मुस्लिम समाज ने विरोध किया था . तब भी बाद में एक और कोर्ट ने इसे दंडनीय अपराध से निकाल दिया . अब न्यायलय फिर पीआईएल को ढाल बना कर इसको मान्यता देना चाह  रहा है .इस बार सरकार को एक सार्वजानिक समलैंगिक को सर्वोच्च न्यायालयके जज की नियुक्ति की सिफारिश कर संसद व् जनभावनाओं को दरकिनार किया जा रहा है . ढुलमुल भारत के विपरीत क़तर ने हाल ही FIFA के आयोजन में इसे कठोरता से प्रतिबंधित कर दिया था . भारतीय सरकार को भी ऐसी ही दृढ़ता दिखानी चाहिए . समलैंगिकता का प्रसार नहीं होना चाहिए जो इसको मान्यता देने से अवश्य होगा .

जनहित याचिका किसी एक व्यक्ति की राय होती है . इसका संविधान में कोई प्राविधान नहीं था . पिछले कुछ दशकों में न्यायालयों ने यह अधिकार खुद ले लिया है .न्यायाधीश सामाजिक परिवर्तन के अगुआ नहीं हो सकते .सामाजिक परिवर्तन का  दायित्व समाज सेवकों या दयानंद सरस्वती सरीखे समर्पित संतों का होता है . वह अपने जीवन भर के सतत प्रयासों व त्याग से  जन भावना बदलते हैं . पीआईएल तो सिर्फ उंगली काट कर शहीद बनने वालों की चाल है .किसी जज को अपनी व्यक्तिगत राय समाज पर थोपने का अधिकार नहीं दिया जा सकता. संसद देश की सामूहिक राय का एक मात्र प्रतीक है जैसे केरल में एक जज ने पुरुष का वैश्या  गमन को अपराध घोषित कर दिया जब की आईपीसी मैं न ही नारी न पुरुष के लिए यह अपराध था .बांग्लादेश जैसे इस्लामिक देश ने इसे पूर्णतः मान्य व अपराधमुक्त कर दिया है  . कानून बनाना संसद का काम है न की न्यायालय का . न्यायालय  का अधिकार सिर्फ कानून की व्याख्या का है . फिर भी जन हित याचिकाओं के माध्यम से वकीलों और जजों की सहायता से एक छोटा सा वर्ग बृहत्  समाज को बांध लेता है .

भारतीय पारिवारिक व्यवस्था को बचाना सरकार का दायित्व है . उसे समाज को इस विकृतियों से बचा कर अपने दायित्व का निर्वाह करना चाहिए .वैवाहिक बलात्कार को किसी रूप मैं भी नहीं मान्यता दी जा सकती न ही समलैंगिकता को सार्वजानिक मान्यता दी जा सकती है .

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