विकास और वोट का विरोधाभास : सुनक , अखिलेश , द्रमुक ,अयोध्या और लालू
( यह लेख सिर्फ एक व्यक्तिगत धारणा है )
भारत मैं आम चुनाव आये और चले गए . उसके बाद इंग्लैंड मैं भी आये और चले गए . पर अयोध्या की हार से सुन्न बीजेपी और अप्रत्याशित करारी हार से सुन्न ऋषि सुनक यही पूछ रहे हें कि जब मैंने इतना अच्छा आर्थिक विकास का काम किया तो जनता ने क्यों मुझे इतनी बुरी तरह नकार दिया ? यही प्रश्न जात पांत के फोर्मुले को छोड़ कर विकास के एजेंडे पर हारे, आदर्शवादी युवा ,अखिलेश ने किया था . उधर उत्तर प्रदेश के विपरीत , चेन्ई मैं चाहे जय ललिता आ जाएँ या करूणानिधि प्रदेश का न तो विकास रुकता न बेईमानी कम होती है .
इसी तरह ऋषि सुनक ने इंग्लैंड की डूबती अर्थ व्यवस्था को बखूबी थामा और बेहद दृढ़ता से मैं मंहगाई और विकास पर कण्ट्रोल कर लिया . पर जनता को उनके मंहगे जूते , लैपटॉप बैग दिखाए गए और वह मान गयी कि अमीर सुनक बेकार हें . उनकी चुनाव मैं इतनी बुरी तरह हार हुयी की वह सिर्फ माफी मांगते रह रहे हें .
दूसरी तरफ लालू यादव का प्रसिद्द वाक्य है कि ‘ वोट का विकास से क्या लेना देना ‘ और उन्होंने पंद्रह साल बिहार को पूरी तरह से जंगल राज मैं डुबो कर भी राज किया और आज भी उनका बेटा उनके फोर्मुले पर चल कर अगले चुनाव मैं जीतने का स्वपन देख रहा है . पर मोदी जी का ‘ सबका साथ सबका विकास’ का नारा बीजेपी का तारनहार बन गया था . अब जब मंहगाई , टैक्स और बेरोजगारी की मार सब पर पडी तो जनता जगी और ठगी महसूस कर रही है .
तो इस विरोधावास मैं अंततः सच्चाई क्या है.
अंततः जनता अपने दुःख कम और खुशी बढ़ाना चाहती है . पर ख़ुशी आशा से ज्यादा पाने से होती है . दुःख थोड़ा भी बढ़ जाए तो बहुत चुभता है. अधिकतर इसी सुख दुःख के बैलेंस पर ही वोट पड़ता है .
पर कई जगह जैसे बिहार मैं यह बहुत मुश्किल है . वहां जनता को पटवारी ,पुलिस और चोरों की मार से बचा कर अपना जीवन अपने अनुसार जीने दिया जाय तो जनता इसी मैं खुश हो जाती है . नितीश कुमार ने शिक्षा व न्यायिक व्यवस्था को पातळ से निकाल कर ठीक कर अपने को दस वर्ष सुशासन बाबु कहलवा लिया . अब जब रोज़ पुल गिरने लगे तो जनता जगी है .नए उद्योग तो बिहार मैं कोई भी नहीं लगवा सकता और जनता शांतिपूर्वक भोजन मिल जाने से ही सुखी हो जाती है. इससे ज्यादा न कोई दे सकता है न लोगों की कामना है.
इसके विपरीत अमीर इंग्लैंड की बेतहाशा मंहगाई ब्रेक्सित , कोविद और उक्रेन कि लड़ाई से उत्पन्न हुई . पर सुनक इतना कर भी जनता को यह नहीं समझा पाए की किसी नेता से भी इससे ज्यादा कर पाना संभव भी नहीं था .वह मनमोहन सिंह कि तरह अर्थ शास्त्री ही रहे लालू की तरह बिना कुछ किये अत्यधिक लोक प्रिय नेता बनने का मर्म नहीं सीख सके. यही समस्या आदर्शवादी युवा अखिलेश की रही. मोदी जी यह सब भली भांति सीख चुके थे पर अब जब मध्यम वर्ग के दुखों का बोझ बहुत ज्यादा बढ़ गया है तब उनकी नाव भी अब डावांडोल है. वाजपेयी जी की तरह वह भी धन्ना सेठों के झांसे मैं आ गए.
तो फिर क्या सार निकला ?
हो सके तो जनता के दुःख दूर करो , यदि खुशी बढ़ा सको जो मनमोहन सिंह जी ने किया था , तो और भी अच्छा है . यदि कुछ नहीं तो लालू जी की तरह अपने को उनका अपना और घोर शुभ चिन्तक सिद्ध कर दो और जनता यह मान ले कि बाकी तो विष कुम्भी हें .
यही चुनावी राजनीती कि ब्रह्मज्ञान है !