बीती विभावरी जाग री !
अम्बर पनघट में डुबो रही-
तारा-घट ऊषा नागरी ।
खग-कुल कुल-कुल-सा बोल रहा,
किसलय का अंचल डोल रहा,
लो यह लतिका भी भर लाई-
मधु मुकुल नवल रस गागरी ।
अधरों में राग अमंद पिए,
अलकों में मलयज बंद किए-
तू अब तक सोई है आली !
आँखों में भरे विहाग री ।