मनुष्यता : मैथिलि शरण गुप्त की कविता

Duality-of-Humanity-2

 

मनुष्यता                  

विचार लो कि मर्त्य हो न मृत्यु                   से डरो कभी,

मरो परन्तु यों मरो कि याद जो करे सभी।                  

हुई न यों सु-मृत्यु तो वृथा मरे,

वृथा जिए, मरा नहीं वहीं कि जो जिया Maithili_Sharan_Guptन आपके लिए।

यही पशु-प्रवृत्ति है कि आप आप                   ही चरे, वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।

उसी उदार की कथा सरस्वती बखानती, उसी उदार से धरा कृतार्थ भाव मानती।                   उसी उदार की सदा सजीव कीर्ति कूजती, तथा उसी उदार को समस्त सृष्टि पूजती।

अखंड आत्म भाव जो असीम विश्व                   में भरे,

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।

सहानुभूति चाहिए, महाविभूति है वही,

वशीकृता सदैव है बनी हुई स्वयं मही।   

विरुद्धवाद बुद्ध का दया-प्रवाह में बहा,

विनीत लोक वर्ग क्या न सामने झुका रहे?

अहा! वही उदार है परोपकार जो

करे, वहीं मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।

अनंत अंतरिक्ष में अनंत देव हैं खड़े,

समक्ष ही स्वबाहु जो बढ़ा रहे बड़े-बड़े।

परस्परावलम्ब से उठो तथा बढ़ो सभी,

अभी अमर्त्य-अंक में अपंक हो चढ़ो सभी।

रहो न यों कि एक से न काम और का सरे,

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।

“मनुष्य मात्र बन्धु है” यही बड़ा विवेक है,

पुराण पुरुष स्वयंभू पिता प्रसिद्ध एक है।

फलानुसार कर्म के अवश्य बाह्य भेद है,

परंतु अंतरैक्य में प्रमाणभूत वेद हैं।

अनर्थ है कि बंधु हो न बंधु की  व्यथा हरे,

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।

चलो अभीष्ट मार्ग में सहर्ष खेलते हुए,

विपत्ति विप्र जो पड़ें उन्हें ढकेलते हुए।

घटे न हेलमेल हाँ, बढ़े न भिन्नता कभी,

अतर्क एक पंथ के सतर्क पंथ हों सभी।

तभी समर्थ भाव है कि तारता हुआ तरे,

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।

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