यक्ष युधिष्ठिर संवाद

प्रथम कड़ीyaksha yudhishtir

यक्ष प्रश्न, वे प्रश्न हैं जो काल के किसी भी अंश में अप्रासंगिक नहीं हैं। वनवासी युधिष्ठिर द्वारा यक्ष के सारे प्रश्नों के दिए गए उत्तर भी कालजयी है। यक्ष प्रश्न का उल्लेख सदियों से किया जाता है। प्रामाणिक, गूढ़ और जटिल प्रश्न को यक्ष प्रश्न कहने की परंपरा-सी बन गई है; परन्तु मूल यक्ष प्रश्न क्या हैं, बहुत ही कम विद्वानों को विदित है। वेद व्यास द्वारा रचित मूल महाभारत से प्राप्त यक्ष के प्रश्नों और युधिष्ठिर द्वारा दिए गए उत्तर का हिन्दी अनुवाद प्रसंग के साथ स्वान्त सुखाय प्रस्तुत कर रहा हूं। प्रश्नोत्तर का क्रम जैसे-जैसे आगे बढ़ता है, नये-नये तथ्यों और रहस्यों का उद्घाटन होता जाता है।
अपने तेरह वर्षों के वनवास के अन्तिम चरण में द्वैतवन में निवास करने के समय एक दिन एक ऋषि के आरणीयुक्त मन्थनकाष्ठ को अपने सिंग में फंसाकर भाग रहे एक मृग को ढूंढ़ने के क्रम में पांचो पाण्डव निर्जन वन में दूर तक निकल गए। अत्यधिक श्रम से क्लान्त सभी भ्राता एक विशाल वट-वृक्ष के नीचे भूख और प्यास से पीड़ित हो बैठ गए। प्यास के मारे सबकी बुरी दशा थी। नकुल को जल लाने का कार्य सौंपा गया। कुछ ही दूरी पर उन्हें निर्मल जल का एक सरोवर मिला। प्यास से व्याकुल नकुल ने जैसे ही जल पीने का प्रयास किया, नेपथ्य से मेघ-गर्जना के समान एक ध्वनि सुनाई पड़ी –
‘तात नकुल! जल पीने का साहस न करो। इस सरोवर का स्वामी मैं हूं। मेरी अनुमति के बिना न कोई जल पी सकता है, और ना ही ले जा सकता है। तुम पहले मेरे प्रश्नों के उत्तर दो, पश्चात जल भी पीना और ले भी जाना।’
नकुल ने दिव्य वाणी की ओर ध्यान ही नहीं दिया। सम्मुख कोई दिखाई पड़ नहीं रहा था। निरापद समझ उन्होंने जल पी लिया। परन्तु जल पीते ही अचेत हो वे सरोवर के किनारे गिर पड़े। उनको ढूंढ़ने बारी-बारी से सहदेव, अर्जुन और भीम भी सरोवर के पास गए। सभी से अदृश्य यक्ष ने अपने प्रश्नों के उत्तर देने के बाद ही जल ग्रहण करने की सलाह दी; परन्तु अपनी शक्ति के गर्व में फूले सबने यक्ष प्रश्नों की अवहेलना की। परिणाम स्वरूप जल पीने के पश्चात सभी अचेत हो किनारे पर सो गए। सबसे अन्त में युधिष्ठिर अपने भ्राताओं को ढूंढते हुए सरोवर के पास पहुंचे। सुन्दर सरोवर के किनारे अपने मृतप्राय भ्राताओं को देख वे शोकसमुद्र में गोते लगाने लगे। तरह-तरह की दुश्चिन्ताएं मन में घर बनाने लगीं – कही दुर्योधन और शकुनि ने सरोवर को विषैला तो नहीं बना दिया? किसी राक्षस ने धोखे से इन महावीरों का वध तो नहीं कर दिया? न,न….ऐसा नहीं हो सकता है। इस पृथ्वी पर प्रत्यक्ष युद्ध में इन वीरों का सामना करने का साहस संभवतः किसी में नहीं है। फिर इनके मृत शरीरों पर किसी तरह के आयुधों के प्रहार के चिह्न भी नहीं हैं। विषयुक्त जल पीने से मृत शरीर का रंग भी बदल जाता है। परन्तु इनके शरीर में किसी तरह का विकार लक्षित नहीं हो रहा, मुखमण्डल भी खिला हुआ है………..। गहरी चिन्ता में डूबे युधिष्ठिर ने स्वयं जल के परीक्षण का निर्णय लिया। जैसे ही वे जल में उतरने के लिए तत्पर हुए, नेपथ्य से मेघ-गर्जना की भांति एक ध्वनि उनके कानों से भी टकराई –
‘हे तात! तुम्हारे भ्राताओं ने भी तुम्हारी तरह दुस्साहस कर जल पीने का प्रयास किया था। परिणाम तुम्हारे सामने है। यदि तुम भी मेरे प्रश्नों के उत्तर दिए बिना दुस्साहस करोगे, तो अपने भ्राताओं की तरह इन्हीं के साथ सदा के लिए सो जाओगे। मैं इस सरोवर का स्वामी हूं। इसके शीतल जल को पीने की कुछ शर्तें हैं। मेरे कुछ प्रश्न हैं। उनके सही उत्तर देनेवालों को ही इस सरोवर का जल पीने की अनुमति है। आजतक किसी ने मेरे प्रश्नों के उत्तर नहीं दिए; अतः इस दिव्य सरोवर के दिव्य जल का पान कोई नहीं कर सका है। तुम पहले मेरे प्रश्नों के उत्तर दो, पश्चात जल पीना भी, ले भी जाना।’
युधिष्ठिर ने सभी दिशाओं में दृष्टि दौड़ाई, पर कोई दिखाई नहीं पड़ा। उन्होंने विनम्र स्वर में स्वयं प्रश्न किया –
‘हे इस दिव्य सरोवर के स्वामी! मैं आपको देख नहीं पा रहा हूं। पृथ्वी के इन चार महावीरों को प्रत्यक्ष युद्ध में मृत्यु प्रदान करने में स्वयं इन्द्र भी सक्षम नहीं हैं। परन्तु आपने यह कार्य धोखे से ही सही, किया है। मैं आपके दर्शन करना चाहता हूं। आपके प्रश्नों को सुनने के पहले मैं अपने एक प्रश्न का उत्तर चाहता हूं। कृपया सम्मुख आ मुझे बताने का कष्ट करें कि आप कौन हैं – रुद्र, वसु, मरुत, इन्द्र, यमराज, राक्षस या यक्ष?’
युधिष्ठिर का प्रश्न सुन एक विशालकाय आकृति घने वृक्षों के मध्य प्रकट हुई। सम्मुख आ उसने परिचय दिया –
‘राजन! मैं यक्ष हूं, इस वनक्षेत्र और इस सरोवर का स्वामी। मैंने तुम्हारे भ्राताओं को बार-बार रोका था। परन्तु इन्होंने मेरे प्रश्नों का उत्तर दिए बिना ही जल ग्रहण करने का प्रयास किया। उनके इस अपराध के कारण ही मैंने स्वयं इनका वध किया है। तुम भी बिना मेरे प्रश्नों का उत्तर दिए ऐसा प्रयास करोगे, तो इनकी ही गति को प्राप्त होगे।’
युधिष्ठिर ने स्थिरचित्त हो उत्तर दिया –
‘मैं आपके अधिकार की वस्तु बिना आपकी अनुमति के स्पर्श भी नहीं करूंगा। आप प्रश्न पूछिए, मैं अपनी बुद्धि और अपने ज्ञान के अनुसार सही उत्तर देने का हर संभव प्रयास करूंगा।’
यक्ष-प्रश्न (१) – ‘सूर्य कौन उदित करता है? उसके चारों ओर कौन चलते हैं? उसे कौन अस्त करता है? और वह किसमें प्रतिष्ठित है?’
युधिष्ठिर – ‘ब्रह्म सूर्य को उदित करता है, देवता उसके चारों ओर चलते हैं। धर्म उसे अस्त करता है और वह सत्य में प्रतिष्ठित है।’
यक्ष-प्रश्न (२) – ‘मनुष्य श्रोत्रिय किससे होता है? महत पद को किसके द्वारा प्राप्त करता है? किसके द्वारा वह द्वितीयवान होता है? और किससे बुद्धिमान होता है?
युधिष्ठिर – ‘श्रुति के द्वारा मनुष्य श्रोत्रिय होता है। तप से महत्पद प्राप्त करता है। धृति से द्वितीयवान (ब्रह्मरूप) होता है और वृद्ध पुरुषों की सेवा से बुद्धिमान होता है।
यक्ष (३) – ‘ब्राह्मणों में देवत्व क्या है? उनमें सत्पुरुषों-सा धर्म क्या है? मनुष्यता क्या है? और असत्पुरुषों-सा आचरण क्या है?’
युधिष्ठिर -‘वेदों का स्वाध्याय ही ब्राह्मणों में देवत्व है। तप सत्पुरुषों-सा धर्म है। मरना मानुषी भाव है और निन्दा करना असत्पुरुषों-सा आचरण है।’
यक्ष (४) – क्षत्रियों में देवत्व क्या है? उनमें सत्पुरुषों-सा धर्म क्या है? उनके लिए मनुष्यता क्या है? उनमें असत्पुरुषों-सा आचरण क्या है?’
युधिष्ठिर – ‘बाणविद्या क्षत्रियों का देवत्व है। यज्ञ उनका सत्पुरुषों सा धर्म है। भय मानवी भाव है। दीनों की रक्षा न करना असत्पुरुषों-सा आचरण है।’
यक्ष (५) – ‘कौन एक वस्तु यज्ञीय साम है? कौन एक यज्ञीय यजुः है। कौन एक वस्तु यज्ञ का वरण करती है? और किस एक का यज्ञ अतिक्रमण नहीं करता?’
युधिष्ठिर -‘प्राण ही यज्ञीय साम है। मन ही यज्ञीय यजुः है। एकमात्र ऋक ही यज्ञ का वरण करती है और एकमात्र ऋक का ही यज्ञ अतिक्रमण नहीं करता।’
आज सिर्फ ५ प्रश्न और उनके उत्तर। शेष अगली कड़ी में।

 

 

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