It is a strange coincidence that our Dashvtaar also coincide with evolution of life on earth . The first one ie ‘ Matsya’ MEANING FISH which possibly coincide with ‘ Pralay ‘ story . The second one is ‘ Kurma ‘ meaning turtle is next in evolution chain and is ambhibian . The next in order are ‘ Varah ‘. Narsimh , vamaan , Parushraam
are all following the evolutionary path . But it is a pur a speculation .
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http://www.dharmsansar.com/2010/08/blog-post.html
दशावतार
- मत्स्य अवतार: मत्स्य (मछ्ली) के अवतार में भगवान विष्णु ने एक ऋषि को सब प्रकार के जीव-जन्तु एकत्रित करने के लिये कहा और पृथ्वी जब जल में डूब रही थी, तब मत्स्य अवतार में भगवान ने उस ऋषि की नांव की रक्षा की थी। इसके पश्चात ब्रह्मा ने पुनः जीवन का निर्माण किया। एक दूसरी मन्यता के अनुसार एक राक्षस ने जब वेदों को चुरा कर सागर में छुपा दिया, तब भगवान विष्णु ने मत्स्य रूप धारण करके वेदों को प्राप्त किया और उन्हें पुनः स्थापित किया।
- कूर्म अवतार: कूर्म के अवतार में भगवान विष्णु ने क्षीरसागर के समुन्द्रमंथन के समय मंदर पर्वत को अपने कवच पर संभाला था। जब समुद्र मंथन शुरू हुआ तो मंदार पर्वत समुद्र में डूबने लगा. उसे सँभालने के लिए भगवान विष्णु ने कच्छप अवतार लिया और मंदार की नीव बने. इस प्रकार भगवान विष्णु, मंदर पर्वत और वासुकि नामक सर्प की सहायता से देवों एंव असुरों ने समुद्र मंथन करके चौदह रत्नोंकी प्राप्ती की। (इस समय भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप भी धारण किया था।)
- वराहावतार: वराह के अवतार में भगवान विष्णु ने महासागर में जाकर भूमि देवी कि रक्षा की थी, जो महासागर की तह में पँहुच गयीं थीं। एक मान्यता के अनुसार इस रूप में भगवान ने हिरन्याक्ष नाम के राक्षस का वध भी किया था। दिति के गर्भ से दो पुत्र उत्पन्न हुये जिनका नाम प्रजापति कश्यप ने हिरण्यकश्यपु और हिरण्याक्ष रखा। इन दोनों यमल के उत्पन्न होने के समय तीनों लोकों में अनेक प्रकार के भयंकर उत्पात होने लगे। स्वर्ग पृथ्वी, आकाश सभी काँपने लगे और भयंकर आँधियाँ चलने लगीं। सूर्य और चन्द्र पर केतु और राहु बार बार बैठने लगे। उल्कापात होने लगे। बिजलियाँ गिरने लगीं। नदियों तथा जलशयों के जल सूख गये। गायों के स्तनों से रक्त बहने लगा। उल्लू, सियार आदि रोने लगे। दोनों दैत्य जन्मते ही आकाश तक बढ़ गये। उनका शरीर फौलाद के समान पर्वताकार हो गया। वे स्वर्ण के कवच, कुण्डल, कर्द्धनी, बाजूबन्द आदि पहने हुये थे। हिरण्यकश्यपु ने तप करके ब्रह्मा जी को प्रसन्न कर लिया। ब्रह्मा जी से उसने वरदान ले लिया कि उसकी मृत्यु न दिन में हो न रात में, न घर के भीतर हो न बाहर। इस तरह से अभय हो कर और तीनों लोकों पर विजय प्राप्त कर के वह एक छत्र राज्य करने लगा। उसका छोटा भाई हिरण्याक्ष उसकी आज्ञा का पलन करते हुये शत्रुओं का नाश करने लगा। एक दिन घूमते घूमते वह वरुण की पुरी में जा पहुँचा। पाताल लोक में पहुँच कर हिरण्याक्ष ने वरुण देव से युद्ध की याचना करते हुये कहा, “हे वरुण देव! आपने जगत के सम्पूर्ण दैत्यों तथा दानवों पर विजय प्राप्त किया है। मैं आपसे युद्ध की भिक्षा माँगता हूँ। आप मुझसे युद्ध करके अपने युद्ध कौशल का प्रमाण दें। उस दैत्य की बात सुन कर वरुण देव को वरुण देव को क्रोध तो बहुत आया पर समय को देखते हुये उन्होंने हँसते हुये कहा, “अरे भाई! अब लड़ने का चाव नहीं रहा है, और तुम जैसे बलशाली वीर से लड़ने के योग्य अब हम रह भी नहीं गये हैं। तुम को तो यज्ञपुरुष नारायण के पास जाना चाहिये। वे ही तुमसे लड़ने योग्य हैं। वरुण देव की बात सुनकर उस दैत्य ने देवर्षि नारद के पास जाकर नारायण का पता पूछ।। देवर्षि नारद ने उसे बताया कि नारायण इस समय वाराह का रूप धारण कर पृथ्वी को रसातल से निकालने के लिये गये हैं। इस पर हिरण्याक्ष रसातल में पहुँच गया। वहाँ उसने भगवान वाराह को अपने दाढ़ पर रख कर पृथ्वी को लाते हुये देखा। उस महाबली दैत्य ने वाराह भगवान से कहा, “अरे जंगली पशु! तू जल में कहाँ से आ गया है? मूर्ख पशु! तू इस पृथ्वी को कहाँ लिये जा रहा है? इसे तो ब्रह्मा जी ने हमें दे दिया है। रे अधम! तू मेरे रहते इस पृथ्वी को रसातल से नहीं ले जा सकता। तू दैत्य और दानवों का शत्रु है इसलिये आज मैं तेरा वध कर डालूँगा।” हिरण्याक्ष के इन वचनों को सुन कर वाराह भगवान को बहुर क्रोध आया किन्तु पृथ्वी को वहाँ छोड़ कर युद्ध करना उन्होंने उचित नहीं समझा और उनके कटु वचनों को सहन करते हुये वे गजराज के समान शीघ्र ही जल के बाहर आ गये। उनका पीछा करते हुये हिरण्याक्ष भी बाहर आया और कहने लगा, “रे कायर! तुझे भागने में लज्जा नहीं आती? आकर मुझसे युद्ध कर।” पृथ्वी को जल पर उचित स्थान पर रखकर और अपना उचित आधार प्रदान कर भगवान वाराह दैत्य की ओर मुड़े और कहा, “अरे ग्राम सिंह (कुत्ते)! हम तो जंगली पशु हैं और तुम जैसे ग्राम सिंहों को ही ढूँढते रहते हैं। अब तेरी मृत्यु सिर पर नाच रही है।” उनके इन व्यंग वचनों को सुन कर हिरण्याक्ष उन पर झपट पड़ा। भगवान वाराह और हिरण्याक्ष मे मध्य भयंकर युद्ध हुआ और अन्त में हिरण्याक्ष का भगवान वाराह के हाथों वध हो गया।
- नरसिंहावतार: नरसिंह रूप में भगवान विष्णु ने अपने भक्त प्रहलाद की रक्षा की थी और प्रहलाद के पिता हिरण्यकश्यप का वध किया था। इस अवतार से भगवान के निर्गुण होने की विद्या प्राप्त होती है। हिरण्यकश्यपु ने अजर अमर होने के लिये एक बार घोर तप किया। उसके तप से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने उससे वर माँगने के लिये कहा। हिरण्यकश्यपु बोला, “हे प्रभु! आप मुझे यह वर दीजिये कि आपके द्वारा उत्पन्न किये किसी प्राणी से अर्थात् मनुष्य, पशु, पक्षी, देवता, दैत्य, नाग, किन्नर आदि से मेरी मृत्यु न हो सके। न मैं घर के भीतर मर सकूँ न बाहर। न मैं दिन में मर सकूँ न रात्रि में। न पृथ्वी में मर सकूँ न आकाश में” ब्रह्मा जी तथास्तु कह कर अपने लोक को चले गये। “वर प्राप्त करने के पश्चात् हिरण्यकश्यपु ने अपने भाई हिरण्याक्ष की मृत्यु का बदला लेने का विचार किया और तीनों लोकों में देवता, असुर, नाग, गन्धर्व, मनुष्य, यक्ष, राक्षस आदि सभी को जीत लिया। वह इन्द्र को हराकर स्वर्ग में वास करने लगा। अमरावती का एकछत्र सम्राट होकर स्वतन्त्रतापूर्वक विहार करने लगा। देवता उसके चरणों की वन्दना करते थे। मतवाली मदिरा में वह मस्त रहता था। हिरण्यकश्यपु के चार पुत्र थे। उनमें प्रह्लाद सब से छोटे थे। प्रह्लाद ने बचपन में ही भगवद्भक्ति में अनुराग लगा लिया था। भगवान विष्णु के चरणों में उनका अटूट प्रेम था। किन्तु विष्णु से बैर रखने के कारण हिरण्यकश्यपु अपने पुत्र को अपराधी मान कर दण्ड देने पर उतारू हो गया। उसने दैत्यों को बुला कर कहा कि तुम लोग इसे शीघ्र मार डालो। यह विष्णु की पूजा करता है। यह कृतघ्न मेरी आज्ञाओं का पालन नहीं करता है। रोग को उत्पन्न होते ही यदि नष्ट नहीं किया जाता है तो वह बढ़ कर घातक हो जाता है। शरीर के किसी अंग में यदि खराबी आ जाये तो उसे अवश्य काट कर फेंक देना चाहिये। यह पुत्र रूप में मेरा शत्रु है। अपने राजा की आज्ञा सुन कर दैत्यहण त्रिशूल ले ले कर प्रह्लाद पर टूट पड़े। किन्तु प्रह्लाद का चित्त तो मन, वाणी और कर्म से सर्व शक्तिमान परमब्रह्म में लीन था। इसलिये उन दैत्यों के सभी प्रहार व्यर्थ रहे। यह देख कर हिरण्यकश्यपु को अति चिन्ता हुई। उसने प्रह्लाद को मारने के लिये मतवाले हाथियों के नीचे कुचलवाया। विषधर सर्पों से डसवाया। पर्वत से नीचे गिरवाया। विष दिया गया। बर्फ में दाबा गया। दहकती अग्नि में जलाया गया। किन्तु भगवत परायण भक्त प्रह्लाद का बाल भी बाँका नहीं हुआ। प्रह्लाद अभय होकर असुर बालकों को भगवान विष्णु की भक्ति का उपदेश देने लगा। उसके इस कृत्य से हिरण्यकश्यपु अत्यन्त क्रोधित बोला, “रे नीच! तू स्वयं तो बिगड़ता ही जा रहा है और हमारे कुल के सभी बालकों को भी बिगाड़ना चाहता है। रे मूर्ख! तू किस के बल भरोसे पर निडरता पूर्वक मेरी आज्ञा का उल्लंघन करता है।” प्रह्लाद बोले, “हे पिताजी! मैं सर्व शक्तिमान परमात्मा के बल पर ही भरोसा करता हूँ। वे सर्वज्ञ हैं। वे सर्वत्र हैं। आपको भी अपने आसुरी भाव को छोड़कर उन्हीं परमात्मा के शरण में जाना चाहिये।” हिरण्यकश्यपु ने प्रह्लाद के ऐसे वचन सुनकर कहा, “रे नीच! अब तेरे सिर पर काल खेल रहा है। तेरा वह जगदीश्वर यदि सर्वत्र है तो इस खम्भे में क्यों दिखाई नहीं देता? इतना कहकर उसने बड़े जोर से खम्भे पर घूँसा मारा। उसी क्षण खम्भे में से एक बड़ा भयंकर नाद हुआ। मानों ब्रह्रमाण्ड ही फट गय हो। उस खम्भे को फाड़ कर एक विचित्र रूपधारी भगवान प्रकट हो गये। वह स्वरूप न तो पूरा मनुष्य का था और न पूर्ण सिंह का था ब्रह्मा के वचन को सत्य करने के लिये भगवान ने नृसिंह अवतार लिया था। नृसिंह भगवान हिरण्यकश्पु को पकड़ कर द्वार पर ले गये और उसे अपनी जाँघों पर रख कर कहा, “रे असुर! देख न मैं मनुष्य हूँ न पशु हूँ। न तू घर के बाहर है, न भीतर है। न तू पृथ्वी पर है न आकाश में। सूर्यास्त हो चुका है किन्तु रात्रि का पदार्पण नहीं हुआ है, अतः न रात है न दिन है।” इतना कहकर भगवाने नृसिंह ने अपने नखों से हिरण्यकश्यपु के शरीर को फाड़ कर उसका वध कर दिया।
- वामन् अवतार: इसमें विष्णु जी वामन् (बौने) के रूप में प्रकट हुए। भक्त प्रह्लाद के पोते असुरराज बलि से देवताओ की रक्षा के लिए उन्होंने वमन अवतार लिया. भगवान विष्णु ने दानवीर बलि से दान में तीन पग भूमि मांगी. बलि के हा कहने पर उन्होंने एक पग से धरती तथा दुसरे पग से आकाश को नाप लिया. जब तीसरा पग रखने के लिए कोई जगह नहीं बची तो बलि ने अपना मस्तक प्रस्तुत किया जिसपर भगवान वामन ने अपना तीसरा पग रखा.
- परशुराम अवतार: भृगुश्रेष्ठ महर्षि जमदग्नि द्वारा संपन्न पुत्रेष्टि-यज्ञ से प्रसन्न देवराज इंद्र के वरदान स्वरूप पत्नी रेणुका के गर्भ से वैशाख शुक्ल तृतीया को विश्ववंद्य महाबाहु परशुरामजी का जन्म हुआ। वे भगवान विष्णु के आवेशावतार थे। पितामह भृगु द्वारा संपन्न नामकरण-संस्कार के अनन्तर राम, किंतु जमदग्निका पुत्र होने के कारण जामदग्न्य और शिवजी द्वारा प्रदत्त परशु धारण किए रहने के कारण परशुराम कहलाए। आरंभिक शिक्षा महर्षि विश्वामित्र एवं ऋचीकके आश्रम में प्राप्त होने के साथ ही महर्षि ऋचीक से सारंग नामक दिव्य वैष्णव धनुष और ब्रह्मर्षि कश्यपजीसे विधिवत अविनाशी वैष्णव-मंत्र प्राप्त हुआ। तदनंतर कैलाश गिरिश्रृंगस्थित भगवान शंकर के आश्रम में विद्या प्राप्त कर विशिष्ट दिव्यास्त्र विद्युदभि नामक परशु प्राप्त किया। शिवजी से उन्हें श्रीकृष्ण का त्रैलोक्यविजय कवच, स्तवराज स्तोत्र एवं मंत्र कल्पतरूभी प्राप्त हुए। चक्रतीर्थ में किए कठिन तप से प्रसन्न हो भगवान विष्णु ने उन्हें त्रेता में रामावतार होने पर तेजोहरण के उपरांत कल्पान्त पर्यंत तपस्यारत भूलोक पर रहने का वर दिया।वे शस्त्रविद्या के महान गुरु थे। उन्होंने भीष्म, द्रोण व कर्ण को शस्त्रविद्या प्रदान की थी। उन्होंने एकादश छन्दयुक्त शिव पंचत्वारिंशनाम स्तोत्रम्भी लिखा। इच्छित फल-प्रदाता परशुराम गायत्री है-ॐ जामदग्न्याय्विद्महेमहावीराय्धीमहि,तन्नोपरशुराम: प्रचोदयात। वे पुरुषों के लिए आजीवन एक पत्नी-व्रत के पक्षधर थे। उन्होंने अत्रि-पत्नी अनसूया,अगस्त्य-पत्नी लोपामुद्राव प्रिय शिष्य अकृतवण के सहयोग से नारी-जागृति-अभियान का विराट संचालन भी किया।
- राम अवतार: रामचन्द्र प्राचीन भारत में जन्मे, एक महापुरुष थे। हिन्दू धर्म में, राम, विष्णु के १० अवतारों में से एक हैं। राम, अयोध्या के राजा दशरथ और रानी कौशल्या के सबसे बडे पुत्र थे। राम की पत्नी का नाम सीता था (जो लक्ष्मी का अवतार मानी जाती है) और इनके तीन भाई थे, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न। हनुमान, भगवान राम के, सबसे बडे भक्त माने जाते है। राम ने राक्षस जाति के राजा रावण का वध किया| माना जाता है कि राम का जन्म प्राचीन भारत में हुआ था। उनके जन्म के समय का अनुमान सही से नही लगाया जा सका है , परन्तु विशेषज्ञों का मानना है कि राम का जन्म तकरीबन आज से ९,००० वर्ष (७३२३ ईसा पूर्व) हुआ था। धर्म के मार्ग पर चलने वाले राम ने अपने तीनो भाइयों के साथ गुरू वशिष्ठ से शिक्षा प्राप्त की । किशोरवय में विश्वामित्र उन्हे वन में राक्षसों व्दारा मचाए जा रहे उत्पात को समाप्त करने के लिए गये। राम के साथ उनके छोटे भाई लक्ष्मण भी इस कार्य में उनके साथ हो गए। राम ने उस समय ताड़का नामक राक्षसी को मारा तथा मारिच को पलायन के लिए मजबूर किया। इस दौरान ही विश्वमित्र उन्हे मिथिला लेकर गये। वहॉं के विदेह राजा जनक ने अपनी पुत्री के विवाह के लिए एक समारोह आयोजित किया था। भगवान शिव का एक धनुष था जिसपर प्रत्यंचा चढ़ा देने वाले शूर से सीता का विवाह किया जाना था। बहुत सारे राजा महाराजा उस समारोह में पधारे थे । बहुत से राजाओं के प्रयत्न के बाद भी जब धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाना तो दूर धनुष उठा तक नहीं तब विश्वामित्र की आज्ञा पाकर राम ने धनुष उठा कर प्रत्यंचा चढ़ाने की कोशिश की। उनकी प्रत्यंचा चढाने की कोशिश में वह महान धुनुष ही घोर ध्वनि करते हुए टूट गया। महर्षि परशुराम ने जब वह घोर ध्वनि सुनि तो वहॉं आये और अपने गुरू (शिव) का धनुष टूटनें पर रोष व्यक्त करने लगे तब राम ने बीच-बचाव किया। इस प्रकार सीता का विवाह राम से हुआ और परशुराम सहित समस्त लोगो ने आर्शीवाद दिया। राजा दशरथ वानप्रस्थ की ओर अग्रसर हो रहे थे अत: उन्होने राज्यभार राम को सौंपनें का सोचा। उस समय राम के अन्य दो भाई भरत और शत्रुघ्न अपने ननिहाल कैकेय गए हुए थे। मंथरा, जो रानी कैकेयी की दासी थी, ने कैकेयी को भरमाया कि राजा तुम्हारे साथ गलत कर रहें है। तुम राजा की प्रिय रानी हो तो तुम्हारी संतान को राजा बनना चाहिए पर राजा दशरथ राम को राजा बनाना चाहते हैं। कैकेयी चाहती थी उनके पु्त्र भरत राजा बनें, इसलिए उन्होने राम को, दशरथ द्वरा, १४ वर्ष का वनवास दिलाया। राम ने अपने पिता की आज्ञा का पालन किया। राम की पत्नी सीता, और उनके भाई लक्ष्मण भी वनवास गये थे। वनवास के समय रावण ने सीता का हरण किया था। राम, अपने भाई लक्ष्मण के साथ, सीता की खोज मे दर-दर भटक रहे थे, तब वह हनुमान और सुग्रीव नामक दो वानरों से मिले। हनुमान, राम के सबसे बडे भक्त बने। सीता को बचाने के लिये राम ने, हनुमान और वानर सेना की मदद से,रावण से युद्ध किया और उसे परास्त किया था। भगवान राम ने जब रावण को युद्ध में परास्त कर दिया तब उसके छोटे भाई विभीषण को लंका का राजा बना दिया. राम , सीता , लक्षमन और कुछ वानर जन पुष्पक विमान से अयोध्या को प्रस्थान कर गए. वहा सबसे मिलने के बाद राम और सीता अयोध्या के राजा और रानी का पद स्वीकार किया.
- कृष्णावतार: भगवान विष्णु ने श्रीकृष्ण के रूप मे देवकी और वसुदेव के घर मे जन्म लिया था। उनका लालन पालन यशोदा और नंद ने किया था। इस अवतार का विस्तृत वर्णन श्रीमद्भागवत पुराण मे मिलता है। कृष्ण हिन्दू धर्म में विष्णु के अवतार हैं। हिन्दू श्रीकृष्ण को ईश्वर मानते हैं, और उन पर अपार श्रद्धा रखते हैं। सनातन धर्म के अनुसार भगवान विष्णु सर्वपापहारी पवित्र और समस्त मनुष्यों को भोग तथा मोक्ष प्रदान करने वाले प्रमुख देवता हैं। जब-जब इस पृथ्वी पर असुर एवं राक्षसों के पापों का आतंक व्याप्त होता है तब-तब भगवान विष्णु किसी न किसी रूप में अवतरित होकर पृथ्वी के भार को कम करते हैं। वैसे तो भगवान विष्णु ने अभी तक तेईस अवतारों को धारण किया। इन अवतारों में उनका सबसे महत्वपूर्ण अवतार श्रीकृष्ण का ही था। यह अवतार उन्होंने वैवस्वत मन्वन्तर के अट्ठाईसवें द्वापर में श्रीकृष्ण के रूप में देवकी के गर्भ से मथुरा के कारागर में लिया था। वास्तविकता तो यह थी इस समय चारों ओर पापकृत्य हो रहे थे। धर्म नाम की कोई भी चीज नहीं रह गई थी। अतः धर्म को स्थापित करने के लिए श्रीकृष्ण अवतरित हुए थे। श्रीकृष्ण में इतने अमित गुण थे कि वे स्वयं उसे नहीं जानते थे, फिर अन्य की तो बात ही क्या है? समस्त देवताओं में श्रीकृष्ण ही ऐसे थे जो इस पृथ्वी पर सोलह कलाओं से पूर्ण होकर अवतरित हुए थे। उन्होंने जो भी कार्य किया उसे अपना महत्वपूर्ण कर्म समझा, अपने कार्य की सिद्धि के लिए उन्होंने साम-दाम-दंड-भेद सभी का उपयोग किया, क्योंकि उनके अवतीर्ण होने का मात्र एक उद्देश्य था कि इस पृथ्वी को पापियों से मुक्त किया जाए। अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने जो भी उचित समझा वही किया। उन्होंने कर्मव्यवस्था को सर्वोपरि माना, कुरुक्षेत्र की रणभूमि में अर्जुन को कर्मज्ञान देते हुए उन्होंने गीता की रचना की जो कलिकाल में धर्म में सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ माना जाता है।
- बुद्ध अवतार: इसमें विष्णु जी बुद्ध के रूप में असुरों को वेद की शिक्षा के लिये तैयार करने के लिये प्रकट हुए। गौतम बुद्ध बौद्ध धर्म के प्रवर्तक थे। राजकुमार सिद्धार्थ के रूप में उनका जन्म 563 ईस्वी पूर्व तथा मृत्यु 483 ईस्वी पूर्व मे हुई थी। उनको इस विश्व के सबसे महान व्यक्तियों में से एक माना जाता है। हिन्दू धर्म ने बाद में बुद्ध को विष्णु का एक अवतार माना है। लेकिन इसे इस तरीके से पेश किया गया है जिसे ज़्यादातर बौद्ध अस्वीकार्य और बेहद अप्रिय मानते हैं। कुछ पुराणों में ऐसा कहा गया है कि भगवान विष्णु ने बुद्ध अवतार इसलिये लिया था जिससे कि वो “झूठे उपदेश” फैलाकर “असुरों” को सच्चे वैदिक धर्म से दूर कर सकें, जिससे देवता उनपर जीत हासिल कर सकें। इसका मतलब है कि बुद्ध तो “देवता” हैं, लेकिन उनके उपदेश झूठे और ढोंग हैं। ये बौद्धों के विश्वास से एकदम उल्टा है: बौद्ध लोग गौतम बुद्ध को कोई अवतार या देवता नहीं मानते, लेकिन उनके उपदेशों को सत्य मानते हैं। कुछ हिन्दू लेखकों (जैसे जयदेव) ने बाद में यह भी कहा है कि बुद्ध विष्णु के अवतार तो हैं, लेकिन विष्णु ने ये अवतार झूठ का प्रचार करने के लिये नहीं बल्कि अन्धाधुन्ध कर्मकाण्ड और वैदिक पशुबलि रोकने के लिये किया था।
- कल्कि अवतार: इसमें विष्णु जी भविष्य में कलियुग के अन्त में आयेंगे। कल्कि विष्णु का भविष्य में आने वाला अवतार माना जाता है। पुराणकथाओं के अनुसार कलियुग में पाप की सीमा पार होने पर विश्व में दुष्टों के संहार के लिये कल्कि अवतार प्रकट होगा। कल्कि अवतार कलियुग के अन्त के लिये होगा। ये विष्णु जी के आवतारो मै से एक है। जब कलियुग मै लोग धर्म का अनुसरण करना बन्द कर देगे तब ये आवतार होगा। कल्कि की कथा कल्कि पुराण में आती है। इस पुराण में प्रथम मार्कण्डेय जी और शुक्रदेव जी के संवाद का वर्णन है। कलयुग का प्रारम्भ हो चुका है जिसके कारण पृथ्वी देवताओं के साथ, विष्णु के सम्मुख जाकर उनसे अवतार की बात कहती है। भगवान् विष्णु के अंश रूप में ही सम्भल गांव में कल्कि भगवान का जन्म होता है। उसके आगे कल्कि भगवान् की दैवीय गतिविधियों का सुन्दर वर्णन मन को बहुत सुन्दर अनुभव कराता है। भगवान् कल्कि विवाह के उद्देश्य से सिंहल द्वीप जाते हैं। वहां जलक्रीड़ा के दौरान राजकुमारी पद्यावती से परिचय होता है। देवी पद्यिनी का विवाह कल्कि भगवान के साथ ही होगा। अन्य कोई भी उसका पात्र नहीं होगा। प्रयास करने पर वह स्त्री रूप में परिणत हो जाएगा। अंत में कल्कि व पद्यिनी का विवाह सम्पन्न हुआ और विवाह के पश्चात् स्त्रीत्व को प्राप्त हुए राजगण पुन: पूर्व रूप में लौट आए। कल्कि भगवान् पद्यिनी को साथ लेकर सम्भल गांव में लौट आए। विश्वकर्मा के द्वारा उसका अलौकिक तथा दिव्य नगरी के रूप में निर्माण हुआ। हरिद्वार में कल्कि जी ने मुनियों से मिलकर सूर्यवंश का और भगवान् राम का चरित्र वर्णन किया। बाद में शशिध्वज का कल्कि से युद्ध और उन्हें अपने घर ले जाने का वर्णन है, जहां वह अपनी प्राणप्रिय पुत्री रमा का विवाह कल्कि भगवान् से करते हैं। उसके बाद इसमें नारद जी, आगमन् विष्णुयश का नारद जी से मोक्ष विषयक प्रश्न, रुक्मिणी व्रत का प्रसंग और अंत में लोक में सतयुग की स्थापना के प्रसंग को वर्णित किया गया है। वह शुकदेव जी की कथा का गान करते हैं। अंत में दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी और शर्मिष्ठा की कथा है। इस पुराण में मुनियों द्वारा कथित श्री भगवती गंगा स्तव का वर्णन भी किया गया है। पांच लक्षणों से युक्त यह पुराण संसार को आनन्द प्रदान करने वाला है। इसमें साक्षात् विष्णु स्वरूप भगवान् कल्कि के अत्यन्त अद्भुत क्रियाकलापों का सुन्दर व प्रभावपूर्ण चित्रण है।
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