5:32 pm - Thursday November 25, 3373

चीन के मनोवैज्ञानिक युद्ध और चर्च के मतान्तरण आन्दोलन के बीच फँसा अरुणाचल प्रदेश

 

 

 

 

चीन के मनोवैज्ञानिक युद्ध और चर्च के मतान्तरण आन्दोलन के बीच फँसा अरुणाचल प्रदेश

In many ways north east is a much more serious problem than even Kashmir. Missionaries have made it a culturally different from India . Chinese are having eye on the entire region .I t is a sad commentary that corruption in CWG games makes country so weak that even Nawaz Sharief  talks of World War on Kashmir . It is important that we evaluate the serious threat of Balkanisation that the country is facing . Missionary activities are as much part of the process .

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arunachal-डा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री
                                   भारत के पूर्वोत्तर छोर पर स्थित , 83743 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल और 1382611 की जनसंख्या वाले अरुणाचल प्रदेश ( इसका पहला नाम नेफा था) की सर्वाधिक लम्बी सीमा तिब्बत से लगती है । लेकिन तिब्बत पर १९५० 

से चीन ने क़ब्ज़ा कर रखा है , इसलिये कुछ लोग इसे भारत-चीन सीमा भी कहते हैं । प्रदेश में लग भग २८ जनजातियाँ हैं , जिनके उपविभाजन उन्हें १३० तक पहुँचा देते हैं । सभी कबीलों की भाषा अलग अलग है , इसलिये हिन्दी उनके आपसी सम्पर्क की भाषा बन गई है । आपस में जय हिन्द कह कर अभिवादन करने वाले अरुणाचली  मोटे तौर पर प्रकृति के साथ एकाकार हैं । प्रदेश की जनजातियों को सामाजिक सांस्कृतिक नज़दीक़ी के हिसाब से एलविन वेरियर ने 
तीन समूहों में बाँटा है । पश्चिमी कामेंग और तवांग जिला में रहने बाले मोन्पा और शेरदुकपेन महायानी बौद्ध हैं । पश्चिमी सियांग ज़िले के खाम्बा और मेम्बा भी महायानी बौद्ध हैं ।राज्य के पूर्वी भाग में रहने वाले खाम्पती और सिंगफो हीनयानी बौद्ध हैं । आदी , अका ,अपातानी ,मीरी, मिशमी , निजी , निशी ,और तांगिन जनजातियाँ तानी समूह की मानी जाती है और ये सभी सूर्य चन्द्र की पूजा करते हैं , जिन्हें डोनी पोलो कहा जाता है । नागालैंड के साथ लगते दो जिलों तिराप और चांगलांग में नोक्टे, टाँग और वांचू रहते हैं , जिनमें कुछ पर वैष्णव मत का प्रभाव है । 
                                      चीन अरुणाचल प्रदेश को अपने आधिकारिक प्रकाशनों में चीन का हिस्सा दिखाता है और उसे दक्षिणी तिब्बत कहता है । वह इस प्रदेश पर अपना दावा भी जताता है । इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये उसने १९६२ से ही इस प्रदेश में मनोवैज्ञानिक युद्ध छेड़ रखा है । उधर ईसाई मिशनरियों की रणनीति में भी यह प्रदेश पूर्वोत्तर भारत में उनकी रणनीति का शेष बचा हुआ भाग है , जिसे जल्दी से जल्दी पूरा करना है । नागालैंड, मिज़ोरम और मेघालय में लगभग सभी जनजातियों को ईसाई सम्प्रदाय में मतान्तरित कर चर्च इस रणनीति को काफ़ी सीमा तक सफल बना चुका है । अब केवल अरुणाचल प्रदेश बचा है , इसलिये इस प्रदेश में मतान्तरण अभियान को जल्दी से जल्दी पूरा करने के लिये विदेशी या विदेशी धन से संचालित मिशनरियां अपने सारे साधन यहीं झोंक रहीं हैं । अरुणाचल प्रदेश के लोग अपने अस्तित्व और संस्कृति को बचाने के लिये , इन दोनों मोर्चों पर अकेले लड रहे हैं । दुर्भाग्य से भारत सरकार इन दोनों मुहाजों पर अरुणाचलियों के साथ खड़ी दिखाई नहीं देती । लेकिन सबसे पहले चीन के मनोवैज्ञानिक युद्ध की बात । 
                          अरुणाचल प्रदेश पर चीन ने पिछले कुछ समय से अपने दावे को बार बार ही नहीं बल्कि जोर से दोहराना शुरु किया है । भारत सरकार भी उतनी ही बार उसका खंडन कर देती है । इस खंडन के बाद दिल्ली अपनी पीठ थपथपाना शुरु कर देती है कि उसने चीन के दावे का माक़ूल जवाब दे दिया है । शायद उसकी दृष्टि में राष्ट्रीय हितों के लिये बनाई गई उसकी रणनीति की यह पराकाष्ठा है । इसके बाद भारत सरकार सेना को चीन की सेना के साथ साँझे युद्धाभ्यास के काम में लगा देती है और प्रधानमंत्री चीन की मैत्री यात्रा पर निकल जाते हैं । हिन्दी चीनी भाई भाई का वातावरण फिर से निर्मित किया जा रहा है । अपने विदेश मंत्री रहे नटवर सिंह पंचशील संधि के लाभ बताने के लिये सैमीनारों के आयोजन में जुट जाते हैं । लेकिन उधर चीन एक लम्बी रणनीति के तहत अरुणाचल में एक मनोवैज्ञानिक लड़ाई शुरु कर रहा है । उसकी कोशिश है कि अरुणाचल के लोगों में यह भाव गहराई से पैठ जाये कि यह प्रदेश कि उनकी राष्ट्रीयता को लेकर भारत और चीन में विवाद है । इस विवाद के चलते अभी तक यह निर्णय होना बाकी है कि अरुणाचली चीनी हैं या भारतीय ? चीन का सारा जोर इसी विवाद को बढाने में लगा है और अब भारत सरकार ने भी कहना शुरु कर दिया है कियह सीमा विवादास्पद है । प्रश्न अरुणाचल प्रदेश में चीन के केवल भौगोलिक दावे का नहीं है , असली प्रश्न इस मनोवैज्ञानिक लडाई का है । भारत सरकार की दृष्टि में यह लड़ाई महत्वहीन है , जबकि देर सवेर यही लड़ाई फैसलाकुन होने वाली है । चीन ने इस लड़ाई को लड़ने के फ़िलहाल चार महत्वपूर्ण फ़्रंट तय किये लगते हैं । बार बार अरुणाचल पर दावा जताने के साथ साथ केन्द्र सरकार के किसी मंत्री द्वारा अरुणाचल में जाने का विरोध करना, वहाँ के लोगों को भारतीय पासपोर्ट पर वीज़ा देने के स्थान पर अतिरिक्त काग़ज़ पर वीज़ा देना , दलाई लामा की अरुणाचल यात्रा का ज़ोरदार विरोध करना और अरुणाचल प्रदेश में बार बार चीनी सेना का प्रवेश करवाना ।  भारत सरकार इन चारों मोर्चों पर अनिश्चय, भ्रम और ऊहापोह की स्थिति में दिखाई देती है । लगता है उसके पास चीन की इस नीति की कोई धारदार काट नहीं है या फिर वह जानबूझकर कर इससे बचना चाहती है । वह केवल अपनी प्रतिक्रिया देकर कर्तव्य की इतिश्री मान लेती है, लेकिन इससे अरुणाचल में कोहरा  घना होता जाता है । पिछले सात साल से अरुणाचल में रह कर वहां के सामाजिक सांस्कृतिक परिदृश्य का अध्ययन कर रहे नरेन्द्र कुमार सिंह मानते हैं कि इससे अरुणाचलियों के मन में भ्रम पैदा होता है । 
                           कुछ दिन पहले भारत के तीरंदाज़ों  का एक दल चीन के वूजी नामक स्थान में १३ से २० अक्तूबर तक होने वाली विश्व तीरंदाजी प्रतियोगिता में भाग लेने जा रहा था ।  इस भारतीय दल में अरुणाचल प्रदेश की सोलह साल की दो लड़कियाँ सोरांग यूमी और मसेलो मीहू भी शामिल थीं । चीनी दूतावास ने बाक़ी सभी खिलाड़ियों को तो चीन जाने का वीज़ा दे दिया , लेकिन अरुणाचल प्रदेश की इन दोनों लड़कियों को वीज़ा देने से इन्कार कर दिया । चीन का तर्क सीधा सपाट था । अरुणाचल प्रदेश उनकी दृष्टि में चीन का हिस्सा है । इसलिये दोनों लड़कियाँ चीन की नागरिक ही हुईं । अब चीन के नागरिकों को भला चीन जाने के लिये वीज़ा की क्या ज़रुरत है ? इसलिये चीनी दूतावास ने कहा कि आप जब चाहें चीन जा सकती हैं । लेकिन जब इन लड़कियों को भी वीज़ा देने के लिये बहुत ज़िद की गई , तो बच्चों को बहलाने की शैली में , दूतावास ने पास पड़े एक सफ़ेद काग़ज़ को उठा कर उस पर ठप्पा लगा दिया । यह लो आपका वीज़ा भी हो गया । चीन के इस व्यवहार से पूरा देश सकते में था । अरुणाचल प्रदेश में तो बहुत ज़्यादा जन आक्रोश था । यह अरुणाचल का ही नहीं बल्कि सारे देश का अपमान था । अरुणाचल के लोगों को लगता था कि चीन द्वारा अरुणाचल प्रदेश के इस अपमान पर पूरा देश उनके साथ खड़ा होगा । चीन की इस हरकत का जबाब देने के लिये भारत सरकार सारे दल का ही चीन प्रवास कैंसिल कर देगी । लेकिन हुआ इस के उलट । भारत सरकार ने इन दो अरुणाचली लड़कियों को छोड़ कर बाक़ी सारे खिलाड़ी दल को चीन भेज दिया । चीन सरकार अरुणाचल प्रदेश के लोगों को संदेश देना चाहता था कि भारत उनकी कोई चिन्ता नहीं करता और उसने अरुणाचल में यह संदेश भारत सरकार के व्यवहार की सहायता से सफलता पूर्वक दे दिया है । ऐसा नहीं कि अरुणाचल प्रदेश के लोगों को वीज़ा देने के मामले में चीन ने ऐसा व्यवहार पहली बार किया हो । वह पिछले कई साल से ऐसा ही कर रहा है । कुछ वर्ष पूर्व 2007 में उसने अरुणाचल के एक आई ए एस अधिकारी गणेश कोऊ को इसी आधार पर वीज़ा देने से इंकार कर दिया था । जनवरी २०११ में चीन के फुजियान प्रान्त में हो रही भारोत्तोलन प्रतियोगिता में भाग लेने के लिये अरुणाचल प्रदेश के भी दो खिलाड़ी जाने वाले थे । दिल्ली स्थित चीनी दूतावास ने इन दोनों को भी अलग से एक काग़ज़ पर ही वीज़ा दिया । ज़ाहिर है ये खिलाड़ी प्रतियोगिता में जा नहीं पाये । दुर्भाग्य से इन पूरे मामलों में भारत सरकार का रवैया और भी आपत्ति जनक होता है । यदि इन मामलों में पूरे दल के चीन प्रवास को ही रद्द कर दिया जाये तब अरुणाचल निवासियों को एक प्रकार का सुकून मिलता और वे समझते की उनके इस अपमान में पूरा देश उनके साथ है । लेकिन सरकार ने दल के बाक़ी सदस्यों को चीन रवाना कर देती है और चीन के इस व्यवहार की काट भी नहीं निकालती । 
                                    लेकिन इस ताजी घटना के तुरन्त बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह  चीन जा रहे थे , इसलिये अरुणाचल प्रदेश के लोगों को विश्वास था कि यक़ीनन वे अरुणाचल प्रदेश के इस अपमान का मसला चीन सरकार के साथ उठायेंगे । लेकिन दुर्भाग्य से प्रधानमंत्री ने इस मसले को भारत चीन की दोस्ती के सम्बंधों में आड़े नहीं आने दिया । वे बीजिंग में चीन से दोस्ती बढ़ाने के पुराने नेहरुवादी सूत्र ही रटते रहे । इन्हीं सूत्रों ने १९६२ में अरुणाचल प्रदेश की छाती पर अनेकों घाव किये थे । अब सोनिया कांग्रेस की सरकार अरुणाचलवासियों को उसी प्रकार के घाव अपने तरीक़े से दे रही है । मनमोहन सिंह ने यह मुद्दा उठाने की बजाय २३ अक्तूबर को चीन के साथ सीमा सुरक्षा सहयोग समझौता सम्पन्न किया । मोटे तौर पर इस समझौते में भारत सरकार ने स्वयं स्वीकार कर लिया है कि अरुणाचल और तिब्बत की सीमा फ़िलहाल विवादास्पद ही नहीं अस्पष्ट भी है । इस अस्पष्टता के कारण यदि दोनों देशों की सेनाओं में से किसी की भी सेना तथाकथित विवादास्पद इलाक़े में चली जाती है तो दूसरे देश की सेना उसे उस क्षेत्र से निकालने के लिये न तो उसका पीछा करेगी और न ही बल प्रयोग करेगी बल्कि चीन के साथ बातचीत करेगी । ऊपर से देखने पर लगता है कि यह समझौता दोनों देशों पर एक समान रुप से लागू होता है इसलिये निर्दोष समझौता है । लेकिन दिल्ली ने यह बताने का कष्ट नहीं किया कि सीमा का उल्लँघन कर घुसपैठ चीन की ओर से ही होती है , भारत की ओर से नहीं । बातचीत के बहाने चीन अरुणाचल में अपनी सेना की घुसपैठ को लम्बे समय तक जारी रख सकेगा । अरुणाचल के पूर्व मुख्यमंत्री दोर्जी खांडू ने तो सार्वजनिक तौर पर कहा था कि प्रदेश में चीनी सेना वर्ष में सैकडों बार सीमा का उल्लंघन करती है । इस समझौते का अर्थ हुआ कि अब भारत सरकार चीनी घुसपैठ को बाहर निकालने में भी समर्थ नहीं हो पायेगी और इसका अरुणाचल प्रदेश में बहुत ग़लत संदेश जायेगा । 
                              चीन पिछले कुछ सालों से अरुणाचल प्रदेश पर अपने दावे को लेकर मुखर हो गया है । दावा वह इस क्षेत्र पर पहले भी जताता रहा है, लेकिन पहले वह केवल प्रतीकात्मक ही होता था । पिछले कुछ सालों से वह मुखर ही नहीं हुआ बल्कि इस दावे को पुख्ता सिद्ध करने के लिए उसने व्यवहारिक कदम उठाने शुरु कर दिये हैं । अरुणाचल प्रदेश में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तक के जाने पर उसने आपत्ति उठायी । नवम्बर २००९ में दलाई लामा तवांग गये थे , तो चीन ने बाकयदा अपना विरोध ही दर्ज नहीं करवाया , बल्कि लगभग धमकी देने तक उतर आया । य़ह ठीक है कि भारत सरकार ने दलाई लामा को तवांग जाने की अनुमति दे दी ( शायद यदि न देती तो अरुणाचल प्रदेश के लोग भी विरोधस्वरुप सडकों पर आ जाते) लेकिन सरकार ने उनकी तवांग की प्रेस कांफ्रैस पर पाबंदी लगा दी । यदि दलाई लामा दिल्ली या धर्मशाला में प्रेस वार्ता कर सकते हैं तो तवांग में क्यों नहीं ? जाहिर है सरकार स्वयं ही तवांग को दिल्ली से अलग मानने की बात स्वीकार करने लगी है । चीन का भी यही कहना है कि तवांग भारत के अन्य नगरों के जैसा नहीं है बल्कि वह भारत और चीन के बीच विवादास्पद है । अतः वहां कोई ऐसा काम नहीं किया जाना चाहिए जिससे दोनों देशों के बीच तनाव बढे । दिल्ली ने भी तवांग को शायद ऐसे ही दृष्टिकोण से देखा होगा , इसलिये वहाँ दलाई लामा को प्रेस वार्ता की अनुमति नहीं दी ।  चीन सरकार ने भारत पर अनेक तरह से दबाव डाला कि दलाई लामा के इस प्रवास को हर हालत में रोका जाना चाहिए। परन्तु उस समय तक वह यात्रा इतनी चर्चित हो चुकी थी कि भारत सरकार यदि इस यात्रा पर प्रतिबन्ध लगाती तो पूरे देश में इसकी तीव्र प्रतिक्रिया हो सकती थी। अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री तो इस यात्रा के लिए कई महीनों से तैयारियां कर रहे थे। दुनिया के अनेक देशों की भी इस यात्रा पर आंखें लगी हुई थीं। इसलिए भारत सरकार के लिए दलाई लामा की अरुणाचल यात्रा को रोकना शायद संभव नहीं रहा। लेकिन साउथ ब्लाक में जो दबाव समूह चीन के तुष्टीकरण को ही भारतीय हितों की रक्षा मानता है उसने चीन को प्रसन्न करने के लिए इसका रास्ता भी खोज निकाला। भारत सरकार ने अप्रत्यक्ष रूप से मानो चीन को सफाई देते हुए ही यह कहना शुरू कर दिया कि दलाई लामा एक सम्प्रदाय के धर्म गुरू हैं, उसके प्रचार-प्रसार के लिए उन्हें कहीं भी जाने का अधिकार है। लेकिन चीन शायद इतने पर ही संतुष्ट नहीं था तो एक कदम और आगे बढ़ते हुए भारत सरकार ने दलाई लामा द्वारा तवांग में पत्रकारों से बातचीत को भी प्रतिबन्धित कर दिया।

मुख्य प्रश्न यह है कि यदि दलाई लामा दिल्ली या धर्मशाला में पत्रकारों से बातचीत कर सकते हैं और भारत सरकार को उस पर कोई एतराज नहीं है तो तवांग में पत्रकारों से बातचीत पर आपत्ति का क्या अर्थ है ? यह संकेत स्पष्ट करता है कि भारत सरकार दिल्ली और तवांग को एक समान नहीं मानती। तवांग को लेकर चीन सरकार का जो मत है, भारत सरकार के इस कदम से क्या कहीं अप्रत्यक्ष रूप से उसकी पुष्टि तो नहीं होती? साउथ ब्लाक की चीन समर्थित लाबी इस निहितार्थ को अच्छी तरह समझती है। भारत सरकार का कहना है कि "यह सब कुछ चीन के साथ मधुर सम्बन्ध बनाने में सहायक होगा।"

परन्तु चीन दलाई लामा की तवांग यात्रा से शायद इतना "आहत" था कि यात्रा के अन्तिम दिन तक भारत सरकार क्षमा याचना की मुद्रा में ही आ गई । दलाई लामा का तवांग में सार्वजनिक कार्यक्रम था, जिसको लेकर अरुणाचल प्रदेश के लोगों में बहुत उत्साह था। दुनिया भर की आंखें भी दलाई लामा के इसी भाषण पर लगी हुई थीं। भारत के हर हिस्से में इस भाषण की उत्सुकता से प्रतीक्षा की जा रही थी। लेकिन चीन शायद इस भाषण को सुनना नहीं चाहता था। उसकी इस "इच्छा" का ध्यान रखते हुए भारत सरकार ने व्यावहारिक रूप से इस सार्वजनिक कार्यक्रम को प्रतिबन्धित ही कर दिया। लेकिन सरकार यह भी जानती थी कि यदि उसने प्रत्यक्ष रूप से ऐसा किया तो अरुणाचल प्रदेश में उसकी तीखी प्रतिक्रिया होगी। जो अरुणाचल प्रदेश इतने दिनों से जयहिन्द के घोष से गूंज रहा है उसकी प्रतिक्रिया के दूरगामी परिणामों को भारत सरकार भी सूंघ ही सकती थी। इसलिए साउथ ब्लाक ने उसका भी रास्ता निकाला । दलाई लामा का सार्वजनिक कार्यक्रम तो हुआ, लेकिन उसमें दलाई लामा केवल धर्म के गूढ़ रहस्यों का विवेचन करते रहे । लोगों को यह समझते देर नहीं लगी कि दलाई लामा के शब्दों पर यह तालाबंदी किसने की है। लगता है एजेंडा चीन सरकार तय करती है और उसे लागू करने का काम भारत सरकार करती है। दलाई लामा की इस अरुणाचल प्रदेश यात्रा से भारत सरकार की ओर से चीन को जो सख्त संदेश जाना चाहिए था, साउथ ब्लाक की इस भितरघात से वह नष्ट ही नहीं हुआ बल्कि चीन के मुकाबले भारत की एक कमजोर छवि ही उभरी।

दिल्ली के इसी रबैये से चीन की हिम्मत बढी । पहले वह अरुणाचल के सरकारी अधिकारियों को ही भारतीय पासपोर्ट पर वीजा देने को लेकर नये नये प्रयोग करता था , लेकिन अब उसने अरुणाचल प्रदेश के आम लोगों को भी भारतीय पासपोर्ट पर वीजा देना बंद कर दिया और कागज पर वीजा देने की प्रक्रिया शुरु कर दी । भारत सरकार ने विरोध किया तो इस बार चीन की भाषा बदली हुई थी । उसने स्पष्ट कहा कि अरुणाचल प्रदेश के बारे में वह अपनी नीति नहीं बदलेगा । वह अरुणाचल प्रदेश के सरकारी अधिकारियों को तो किसी भी हालत में वीजा नहीं देगा बाकी लोगों को साधारण कागज पर ही बीजा मिलेगा । लगता है अरुणाचल प्रदेश को लेकर एजेंडा चीन तय करता है , भारत सरकार केवल प्रतिक्रिया करती है । जबकि चाहिये तो यह था कि भारतीय दूतावास भी तिब्बत , मंचूरिया और सिक्यांग के नागरिकों को चीनी पासपोर्ट की बजाय  अलग काग़ज़ पर वीज़ा देना शुरु कर देती । चीन अरुणाचल प्रदेश को विवादास्पद मान कर केन्द्रीय सरकार के किसी भी मंत्री के वहाँ जाने पर आपत्ति दर्ज करवाता है । उसने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के अरुणाचल जाने पर नाराजगी जाहिर की । 19 फरवरी २०१२ को इटानगर में आयोजित अरुणाचल प्रदेश के गठन की रजत जयंती समारोह में रक्षा मंत्री ए.के. एंटनी जा रहे थे । चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता हांग लेई ने भारत से ऐसी कोई भी कार्रवाई करने से बचने को कहा जो मुद्दे को जटिल बना दे। हांग लेई ने यह टिप्पणी तब की जब उनसे उस रिपोर्ट पर टिप्पणी करने को कहा गया जिसमें कहा गया था कि भारतीय अधिकारी कथित अरुणाचल प्रदेश क्षेत्र में आयोजित गतिविधियों में हिस्सा ले रहे हैं। भारत सरकार को भी चाहिए कि वह आपत्ति दर्ज करवाये कि जब तक तिब्बत विवाद सुलझ नहीं जाता तब तक चीन का कोई भी प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति या कोई अन्य मंत्री तिब्बत में न आये । चीन से उत्पन्न सीमांत खतरे को लेकर भारत सरकार की इस चुप्पी के अनेक कारणों में से एक कारण यह भी है कि विदेश मंत्रालय में अभी भी पणिक्कर की शिष्य़ मंडली प्रभावी भूमिका में बैठी है । उनकी दृष्टि में चीन अरुणाचल प्रदेश में जिन क्षेत्रों की मांग कर रहा है उन्हें दे लेकर उसके साथ समझौता कर लेना चाहिए । लेकिन संभावित जन आक्रोश के खतरे को भांप कर वह ऐसा कहने का साहस तो नहीं जुटा पाते । अलबत्ता चीनी आक्रामक कृत्यों पर परदा डालने का काम अवश्य करते रहते हैं । वैसे दिल्ली में ऐसे अनेक तथाकथित विदेशनीति विशेषज्ञ आसानी से मिल जायेंगे जिन की दृष्टि में चीन से कुछ ले देकर सीमा समझौता कर लेना चाहिये । चीन नीति को लेकर पंडित नेहरु का नाम लेकर रोने से ही कर्तव्य की इतिश्री नहीं हो जाती । यदि चीन अरुणाचल प्रदेश पर अपना दावा बंद नहीं करता तो भारत सरकार तिब्बत को विवादास्पद मसला क्यों नहीं मान सकती । तिब्बत में तिब्बती लोग स्वतंत्रता हेतु संघर्ष कर रहे हैं । भारत सरकार उन्हें कूटनीतिक समर्थन तो दे ही सकती है । जब चीन के प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति दिल्ली आते हैं, तो उनसे आग्रह कर सकती है कि तिब्बत समस्या सुलझाने के लिए दलाई लामा से बातचीत करे ।
चीन के मामले में भारत को केवल प्रतिक्रिया और औपचारिक विरोध दर्ज तक सीमित न रह कर स्वतंत्र नीति का अनुसरण करना होगा ।  भारत सरकार चीन के इस मनोविज्ञान को समझ कर भी अनजान बनने का पाखंड कर रही है और उधर अरुणाचल प्रदेश के लोग चीनी अतिक्रमण को लकेर दिल्ली से गुहार लगा रहे हैं । दिल्ली में कोई सुनने वाला है । 
                                 भारत सरकार तो हस्बे मामूल इन सभी घटनाओं पर चुप्पी धारण कर लेती है । लेकिन अरुणाचल प्रदेश का युवा चुप नहीं बैठ सकता । भारत सरकार की चीन के आगे इसी घुटना टेक नीति के विरोध में २०११ में अरुणाचल छात्र संघ ने 26 जनवरी के सरकारी कार्यक्रमों का बहिष्कार करने का निर्णय ले लिया था ।। कारण ? भारत सरकार अरुणाचल को लेकर चीन के आगे घुटने क्यों टेक रही है । जो लडाई दिल्ली को लडनी चाहिए वह हिमालय की उपत्य़काओं में अरुणाचल प्रदेश के युवक लड रहे हैं । अपनी अपनी प्राथमिकताएं हैं । कभी नेहरु ने चीन की इसी आक्रमणाकारी नीति के बारे में वहां घास का तिनका तक नहीं उगता , कह कर बचाव किया था । आज भारत सरकार लगभग उसी तर्ज पर अरुणाचल को बचाने से ज्यादा चीन से ब्यापार बढाने में उत्साह दिखा रही है । अभी तक चीन अरुणाचल के साथ लगती तिब्बत की सीमा को विवादास्पद ही बता रहा था, जिसे चीनी प्रधानमंत्री इतिहास की बिरासत बताते थे, लेकिन पिछले दिनों चीन सरकार ने आधिकारिक तौर पर गुगल अर्थ के मुकाबले जो विश्व मानचित्र जारी किया है उसमें अरुणाचल प्रदेश को चीन का हिस्सा ही दिखाया गया है । भारत सरकार का विरोध सब मामलों में आपत्ति दर्ज करवाने तक सीमित हो कर रह जाता है । ताजुब तो इस बात का है कि अरुणाचल, लदाख इत्यादि जिन क्षेत्रों पर चीन अपना दावा पेश करता है उन क्षेत्र में रहने वाले लोग चीन के दावे का ज्यादा सख्त तरीकों से विरोध करते हैं । राज्य सरकारें , जिनकी सीमा तिब्बत (चीन) से लगती है, वे केन्द्र सरकार से बार बार आग्रह कर रही हैं कि सीमाओं पर आधारभूत संरचनाओं को चुस्त दुरुस्त किया जाए,. क्योंकि सीमा विवादों को ज्यादा नुकसना सीमांत क्षेत्रों को ही उठाना पडता है ।

                                       किसी भी प्रदेश के लोगों को आपस में और देश के शेष हिस्सों से जोड़ने के लिये संचार व्यवस्था महत्वपूर्ण भाग अदा करती है ।  संचार व्यवस्था जितनी दुरुस्त और प्रभावी होगी , उतना ही लोगों का मानसिक अलगाव कम होगा । लेकिन यदि संचार व्यवस्था आधी अधूरी होगी तो लोगों में मानसिक अलगाव बढ़ेगा । अरुणाचल प्रदेश में संचार की व्यवस्था कैसी है , इसका उदाहरण दिया जा सकता है । तेज़पुर से प्रवेश कर भालुकपोंग अरुणाचल का प्रवेश द्वार है । यह पश्चिमी कामेंग ज़िला है । से ला में तवांग ज़िला शुरु हो जाता है । भालुकपोंग से तवांग की सड़क राष्ट्रीय राजमार्ग १३ कहलाती है । इस पर चलने की कल्पना से रूह काँप जाती है । यह सड़क सेना की दृष्टि से तो महत्वपूर्ण है ही , लेकिन साथ ही यहाँ के लोगों की जीवन रेखा भी है । लेकिन यह जीवन रेखा पिछले दस साल से अवरूद्ध है । मोन्पा जनजाति के इस पूरे क्षेत्र में टैलीफोन में करंट आ जाये वह उत्सव का ही दिन बन जाता है । सर्वर डाउन रहना , यहाँ सामान्य बात है , कभी ठीक हो जाये तो उसे अपवाद मानना चाहिये । तवांग ज़िला मुख्यालय है लेकिन वहाँ कालिज कोई नहीं है । बिजली और मोमबत्ती के प्रकाश में अन्तर करना मुश्किल हो जाता है , लेकिन मोमबत्ती नुमा बिजली के प्रकाश के लिये भी घंटों प्रतीक्षा करनी पड़ती है । पूरा इलाक़ा एक टापू बन गया है । इस टापू में अलगाव के बीज बोने में चीन मनोवैज्ञानिक युद्ध में संलग्न है , लेकिन भारत सरकार आँखें मूँद कर बैठी है । सरकार यह बहाना नहीं ले सकती है कि इस क्षेत्र में जनसंख्या कम है , इसलिये यहाँ ज़्यादा बजट ख़र्च नहीं किया जा सकता । हमें यह ध्यान रखना चाहिये कि तवांग पूर्वोत्तर भारत का दर्रा खैबर बना हुआ है । मध्य एशिया से पश्चिमोत्तर भारत पर हमले दर्रा खैबर के रास्ते से ही हुये । चीन के हमलों के लिये वही स्थिति तवांग की बनी हुई है । इसलिये भारत सरकार इस इलाक़े में संचार व्यवस्था के लिये जनसंख्या को आधार नहीं बना सकती । सुरक्षा की दृष्टि से यहाँ विकास को प्राथमिकता देनी होगी । लेकिन यह केवल सेना के बल पर नहीं हो सकता । उसके लिये अरुणाचल निवासियों को इस हेतु तैयार करना होगा । उनकी संवेदनाओं एवं भावनाओं का सम्मान करना होगा । पूर्वोत्तर में  अरुणाचल को भारत की खड्ग भुजा बनाना होगा । भारत सरकार अरुणाचल को देश का पिछवाड़ा मान कर नहीं चल सकती । लेकिन बदक़िस्मती से दिल्ली में बैठी नौकरशाही अरुणाचलवासियों के मनोविज्ञान को समझने में दिलचस्पी नहीं रखती है । यहाँ तक राजनैतिक दलों का प्रश्न है , उनके लिये अरुणाचल का अर्थ लोकसभा की महज़ दो सीटें हैं । 

                                यह ठीक है कि चीन निकट भविष्य में अरुणाचल प्रदेश पर कब्जा करने के लिए आक्रमण नहीं करेगा। हो सकता है अभी उसकी व्यापक रणनीति में ऐसा करना शामिल न हो। लेकिन उसने अरुणाचल प्रदेश में भारत से जो मनोवैज्ञानिक युद्ध छेड़ रखा है , उसका भी प्रदेश में व़्ापक प्रभाव पड रहा है । भारत सरकार के अरुणाचल प्रदेश में किये जा रहे व्यवहार से कोहरा ज्यादा बनता है, धूप कम निकलती है। ऐसी स्थिति में यदि अमरीका के राष्ट्रपति चीन को दक्षिण एशिया की ठेकेदारी देने का दंभ पालना शुरू कर दें तो आश्चर्य कैसा? जरूरी है कि उन लोगों की शिनाख्त की जाये जो चीन की विदेश नीति को भारतीय हितों की पोषक मान कर दोगली चालें चल रहे हैं ।कार्यकाल में मज़हब स्वतंत्रता अधिनियम पारित किया था । लेकिन राज्यपाल ने इस पर हस्ताक्षर करने की बजाय इसे राष्ट्रपति के पास भेज दिया । नागालैंड की विधानसभा ने तो बाकायदा एक प्रस्ताव पारित कर राष्ट्रपति से अनुरोध किया कि बिल को मंजूरी न दी जाये । भारत सरकार ने बिल बापिस राज्य सरकार के पास भेज दिया । लेकिन अरुणाचल प्रदेश विधान सभा ने फिर उसे कुछ संशोधनों के साथ पारित कर दिया । प्रदेश की चर्च समर्थित पीपुलज पार्टी ने इस बिल को निरस्त करने के लिये बाकायदा अभियान चलाया । तब मदर टेरेसा के नाम से विख्यात मकदूनिया की  Agnes Gonxha Bojaxhiu ने कोलकाता की सड़कों पर इस अधिनियम के खिलाफ स्वयं प्रदर्शन किया था ।    लेकिन अन्तत: २५ अक्तूबर १९७८ को इस बिल को स्वीकृति मिल ही गई । यह ठीक है कि उस समय अपनी पूजा पद्धति छोड़ कर ईसाई मज़हब अपनाने वाले लोगों की संख्या नगण्य थी । लेकिन यह प्रदेश वेटिकन की हिट लिस्ट में आ चुका था और इस को मतान्तरित करने के लिये करोड़ों रुपये की धनराशि प्रदेश में विविध मिशनरियों को माध्यम से झोंकी जा रही थी । प्रदेश सरकार ने अरुणाचल पर हो रहे इस विदेशी सांस्कृतिक आक्रमण को रोकने के लिये उस समय यह अधिनियम पारित किया था ।  ज़ाहिर है चर्च अपनी पूरी ताक़त इस अधिनियम के प्रभाव को किसी भी तरह रोकने में लगाता । और उसने वह लगाया भी । अगले ही साल मुख्यमंत्री को अपनी कुर्सी छोड़नी पड़ी और उनके स्थान पर चर्च समर्थक पीपुलज पार्टी के टोमा रीबा मुख्यमंत्री बने । कहा जाता है कि थुंगन को हटाने के लिये चर्च ने अकूत धनराशि का प्रयोग किया । चर्च ने अपने प्रयासों , साजिश और पैसे से इतना तो सुनिश्चित कर ही लिया की प्रदेश में व्यावहारिक रुप से इस क़ानून को क्रियान्वित न किया जाये । यही कारण है कि इस के पारित होने के बाद प्रदेश में ईसाईकरण की गति अत्यन्त तेज हुई है । पिछले दिनों पूर्वोत्तर के प्रसिद्ध अख़बार मोयरंग एक्सप्रेस में कोरनियस लानाह ने लिखा कि अब यह अधिनियम मृतक के समान है । १९५१ की जनगणना में प्रदेश में एक भी व्यक्ति ने अपने आप को ईसाइ दर्ज नहीं करवाया था लेकिन १९८१ की जनगणना में प्रदेश की कुल आबादी में से १८.७० प्रतिशत मतान्तरित होकर ईसाइ बन चुकी थी । जनजाति समाज में से तो २९.१२ प्रतिशत लोग चर्च की गिरफ़्त में आ चुके थे । नागालैंड के साथ लगते तिराप जिला में तो पचास प्रतिशत मतान्तरण का काम चर्च ने २००१ तक निपटा लिया था । १९७८ के अधिनियम के अनुसार जब भी कोई व्यक्ति ईसाइ बनता है तो पादरी को इसकी सूचना सम्बधित ज़िलाधीश को देनी होती है । लेकिन प्रदेश के सोलह जिलों में से किसी एक के पास भी ऐसी एक भी सूचना नहीं है , जबकि लाखों की संख्या में लोगों को ईसाइ बनाया जा चुका है । प्रदेश में ईसाईकरण की प्रक्रिया १९६१ के बाद बहुत तेज हुई जब गृहमंत्रालय नीलम तारक के पास आ गया । अब तो प्रदेश में सभी चर्चों ने मिल कर अरुणाचल ईसाई फ़ोरम का गठन कर लिया है , जो सरकार पर निरन्तर दबाव डालता रहता है कि प्रदेश में मतान्तरण के अभियान में कोई बाधा न पहुँचाई जाये । २००७ में दोर्जी खांडू के मुख्यमंत्री बनने से ऐसी आशा जगी थी कि प्रदेश में चर्च की राष्ट्र विरोधी गतिविधियों पर लगाम लगाई जायेगी , लेकिन २०११ में एक हेलीकाप्टर दुर्घटना में उनकी रहस्यमय मौत ने उस आशा को भी धूमिल कर दिया । शायद इसके बाद सोनिया कांग्रेस ने पूरी तरह से प्रदेश को चर्च के हवाले करने का ही निर्णय कर लिया और उसके लिये बहुत ही सावधानी से योजना तैयार की । खांडू की रहस्यमय मौत के बाद जारों गामलिन मुख्यमंत्री बने । लेकिन उनके खिलाफ सोनिया कांग्रेस की पार्टी के अन्दर ही विद्रोह भड़काया गया और सड़कों पर प्रदर्शन किये गये । इन प्रदर्शनों का बहाना बना कर छह महीने बाद ही प्रदेश की सोनिया कांग्रेस विधायक दल पार्टी ने राज्य के लिये मुख्यमंत्री मनोनीत करने का अधिकार सोनिया गान्धी को ही दे दिया और मैडम ने चर्च की इच्छा को पूरी करते हुये ईसाई सम्प्रदाय में मतान्तरित हो चुके नबम टुकी को राज्य के मुख्यमंत्री की बागडोर सौंप दी । वैसे तो टुकी को सोनिया कांग्रेस की राज्य इकाई का अध्यक्ष बना कर वे प्रदेश के लिये अपनी भावी रणनीति का संकेत पहले ही दे चुकीं थीं । ईसाइ देश , अरुणाचल को मतान्तरित करने को कितनी गम्भीरता से ले रहे हैं इसका अन्दाज़ा  इसी से लगाया जा सकता है वेटिकन देश के राष्ट्रपति ने सात दिसम्बर २००५ को इटानगर में डायकोजी स्थापित करने की घोषणा की और १२ मार्च २००६ वहाँ ज़ोहन थामस की नियुक्ति भी कर दी । इस संस्था को प्रदेश में मतान्तरण की गतिविधियों को गति प्रदान करने के साथ उनमें समन्वय भी स्थापित करना है । चर्च जानता है कि मतान्तरण से राष्ट्रान्तरण होता है । इसलिये वह पूरी शिद्दत से अरुणाचल के मतान्तरण में जुटा हुआ है । लेकिन भारत सरकार इस मुद्दे पर बात करने को भी कुफ़्र मानती है क्योंकि उससे उसकी पंथ निरपेक्षता ख़तरे में पड़ जाती है । अरुणाचल क्षेत्र का ज़िक्र पुराणों में आता है । वहाँ परशुराम ने तपस्या की थी , इसका ज़िक्र मिलता है । मालिनीथान में कृष्ण से सम्बधित प्रसंग बिखरे पड़े हैं । गाँव गाँव में डांगरिया बाबा के नाम से भगवान शिव की पूजा होती है । विश्वकर्मा की पूजा का यहाँ व्यापक प्रचलन है । अपनी तीसरी यात्रा में गुरु नानक देव जी ने तवांग से आगे एक गुफा में तपस्या की थी , इसके प्रमाण मिलते हैं । सरकार की नज़र में शायद यह प्रदेश की साम्प्रदायिक विरासत है , जिस पर पर्दा डाल कर यह स्थापित करना है कि प्रदेश के लोगों को सभ्यता के दर्शन मिशनरियों ने ही करवाये । प्रदेश की जनजातियाँ मिशनरियों के आक्रमणों का विरोध कर रहीं हैं , लेकिन दुर्भाग्य से सरकार उनके साथ खड़ी दिखाई नहीं देती । क्या देश सुन रहा है ?
  
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  • लेखक परिचय

    डॉ. कुलदीप चन्‍द अग्निहोत्री डॉ. कुलदीप चन्‍द अग्निहोत्री

    यायावर प्रकृति के डॉ. अग्निहोत्री अनेक देशों की यात्रा कर चुके हैं। उनकी लगभग 15 पुस्‍तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। पेशे से शिक्षक, कर्म से समाजसेवी और उपक्रम से पत्रकार अग्निहोत्रीजी हिमाचल प्रदेश विश्‍वविद्यालय में निदेशक भी रहे। आपातकाल में जेल में रहे। भारत-तिब्‍बत सहयोग मंच के राष्‍ट्रीय संयोजक के नाते तिब्‍बत समस्‍या का गंभीर अध्‍ययन। कुछ समय तक हिंदी दैनिक जनसत्‍ता से भी जुडे रहे। संप्रति देश की प्रसिद्ध संवाद समिति हिंदुस्‍थान समाचार से जुड़े हुए हैं
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  और अब अरुणाचल प्रदेश में चर्च की गतिविधियों से होने वाले परिणामों पर एक चर्चा । प्रदेश में मिशनरियों के इरादों को भाँपते कर ,अरुणाचल प्रदेश विधानसभा ने १९७८ में मुख्यमंत्री प्रेम खांडू थुंगन के कार्यकाल
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