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डूबती कुटुंब प्रथा : क्या, हमारा नामोऽनिशां मिट जाएगा – डा मधुसुदन : प्रवक्ता से साभार

क्या, हमारा नामोऽनिशां मिट जाएगा – डा मधुसुदन : प्रवक्ता से  साभार

 डॉ. मधुसूदन

 


-डॉ. मधुसूदन –   history

कुटुम्ब संस्था की समाप्ति ही, यूनान और रोम की संस्कृतियां मिटाने का एक मूल (?) कारण माना जाता है। यदि हम भी उसी मार्ग पर चलेतो फिर हमारा नामो-निशां भी अवश्य मिट जाएगा। आज-कल भारत में, बलात्कार के समाचार कुछ अधिक पढ़ रहा हूं, इसलिए, विचारकों और हितैषियों के समक्ष अमेरिका के इतिहास की निम्न वास्तविकताएं लाना अत्योचित समझता हूं।

(एक) विचार के लिए सामग्री।

(१) अमरिका में संयुक्त कुटुंब होता ही नहीं है। शायद पहले भी कभी नहीं था। इसलिए कोई कोई अमरिकन, यदि भारतीय संयुक्त कुटुंब, देखता है, तो उसे कुटुंब के सदस्यों के आपसी संबंधों पर अनैतिकता का, सन्देह होने लगता है। क्योंकि वे उनकी अपनी जानकारी और मानसिकता को हम पर भी आरोपित करते हैं। और सभी अमरिकनों को हमारी संस्कृति के विषय में जानकारी भी नहीं होती। वैसे, वैयक्तिक अनुभव के आधार पर ही प्रत्येक व्यक्ति की समझदारी भी हुआ करती है।

(२) हमें टिकाया है, हमारी परम्पराओं ने, पर आज हम अपनी ही परम्पराओं से मुंह मोड़ रहे हैं। इसका दूरगामी विषैला परिणाम भारत-हितैषियों के सामने रखना चाहता हूं। इस उद्देश्य से यह आलेख। परम्परा टिकाने से हम टिक जाते हैं। ’धर्मोऽ रक्षति रक्षितः का ऐसा भी अर्थ किया जा सकता है। और परम्परा तोड़कर हम नहीं रह पाएंगे।

(दो) परम्परा एक प्रबल प्रवाह

परम्परा एक प्रबल प्रवाह या आंधी की भांति ही होती है। भाग्य है हमारा कि हमारी विशुद्ध परम्पराओं ने हमारी आज तक रक्षा ही की है। पर आज जिस परम्परा के विषय में मैं लिखना चाहता हूं, वह हमारी परम्परा नहीं है। पर भारत भी धीरे-धीरे उसी मार्ग को अपना रहा है। इस मार्ग में फिसलन है, फिसला तो जा सकता है, फिर वापस उठा नहीं जा सकता। इस सिंह की गुफा में सारे पदचिह्न अंदर जाते ही दिख रहें हैं। मैं डेटिंग परम्परा की बात कर रहा हूं। जब आप डेटिंग की परम्परा ही बना देते हैं, जैसी अमरिका में बनी हुयी है; तो सारा समाज उसी प्रकार व्यवहार करता है। आप कुछ ही व्यक्तियों को समझाकर सारे समाज की दिशा मोड़ नहीं सकते।जैसे, जहां सभी गाड़ियां दाहिनी ओर, चली हो, वहां आपकी गाड़ी बायीं ओर कब तक चलेगी? चलेगी तो टकरा जायेगी। परम्परा ऐसी ही प्रबल होती है।

(तीन) अमरिका का ऐतिहासिक अवलोकन

70 के दशक के पहले से ही, यहां डेटिंग प्रणाली प्रारंभ हो चुकी थी। उस समय कुछ 70फीसदी लोग विवाहित हुआ करते थे। यहां शुक्रवार की रात्रि डेटींग की रात्रि मानी जाती है। यहां का मोटेल व्यवसाय इसी कारण पनप रहा (है) था। जिस में शुक्रवार की रात्रि एक कमरा किराए पर लिया जाता है। और लड़का लड़की अपनी संभोग वासना के वशीभूत आचरण करते हैं। यह है आधुनिक डेटिंग प्रणाली। अमरिका देश कैसे इस अवस्था तक पहुंचा ? प्रारंभ कुछ स्वतंत्रता के मनमोहक और उत्तेजक विचारों से ही हुआ होगा। यहां पर संयम की बात तो प्रायः है ही नहीं।

(चार)- संयम, व्यक्ति का स्वयं का स्वयं पर नियंत्रण लाता है।

हमारा “परस्त्री मातृसमान” का आदर्श हर कोई शायद मानता नहीं है, फिर भी यही आदर्श संयम को परिपुष्ट करता है। और समाज को एक नैतिकता का आदर्श भी अवश्य देता है। जानता हूं कि हर कोई इस आदर्श को शायद मानता भी नहीं है, पर फिर भी संदर्भ में होने के कारण निकष तो माना ही जाता है। और ऐसा आदर्श दुराचार की संभावना में भी कमी अवश्य लाता है। कुछ दुराचार जो हो रहा है, वह हमारे सांस्कृतिक मूल्यों को त्यजने की आधुनिक प्रगतिवादी सोच का परिणाम है।

(पांच) संयम और विधि- नियम (कानून)

संयम नीतिमत्ता से संचालित होता है और विधि नियम (कानून) दण्ड के डर से इसलिए, दोनों की, सफलता में गुणवत्ता का, और मात्रा का भी बहुत बड़ा अंतर होता है, संयम नियम की अपेक्षा अधिक सफल होता है। और हमारी संस्कृति संयम पर भार देती है। नियम भी होते हैं, उनके लिए जो संयम से संस्कारित नहीं ह। कुछ प्रतिशत तो ऐसे होते ही है। जहां नियम बाह्य (बाहर से) अंकुश लाता है; आंतरिक अंकुश नहीं ला सकता। जब तक विधि नियम (कानून) तोडे नहीं जाते, तब तक सभी स्वीकार्य होता है। इस कारण विधि-नियमों के अनुसार जीने वाले, जो भी किया जा सकता है, उसकी मर्यादा खोजते है और व्यवहार में, उस मर्यादा तक पहुंच जाते हैं। उसी मर्यादा का पालन करने पर अपने आपको नीतिमान भी मान लेते हैं। पकड़े गये तो दोषी, नहीं तो नीतिमान। अपने मन से ही स्वयं-स्वीकृत नीति नहीं होती। पश्चिम में, अधिकतर लोग विधि-नियमों (दण्ड) का नियंत्रण मान कर चलते है, इसलिए पश्चिम का समाज नियमों से चलता अवश्य है। पर उसको नियंत्रण में रखने के लिए दण्ड शक्ति की आवश्यकता होती है।

(छह) दुर्भाग्य है, कि हमारे भारत में ऐसी सड़न प्रारंभ हो चुकी है।

आजकल समाचारों में जो प्रतिबिम्बित हो रहा है, उससे लगता है कि हम इसी मार्ग पर अग्रसर होते जा रहे हैं; उसी का प्रारंभ कर चुके हैं। यह प्रक्रिया वर्धमान हुआ करती है; घटती नहीं, जैसे कैंसर। देश के कर्णधार यदि इस पर ध्यान नहीं देंगे, तो यह नयी भोग परम्परा धीरे-धीरे वृद्धि करती ही चलेगी और देश को पूरा निगलने की शक्ति रखती है।

(सात) जैसा अमरिका में हो चुका है।

लड़की डेटिंग में अपने शील की बलि देती है, विशेषतः इसी आशा से कि उसके कारण उसका विवाह होने में सहायता होगी। प्रारंभ में ऐसा ही होता भी था। पर धीरे-धीरे लड़के (लड़कियां नहीं) इस प्रथा का लाभ लेकर, वासना की पूर्ति करने लगे। बढ़ते लेखक (अमरिकन) ने, छात्रों के परामर्शक होने के कारण जाना कि कॉलेज के छात्र डेटिंग से विविधता का आनंद लेना तो चाहते हैं, पर विवाह से बचना भी चाहते हैं। यहां की बहुत लड़कियां भी यह जानती तो हैं; पर कोई उपाय नहीं है। जो भी अधूरी ही परम्परा थी, खो दी गयी है। और आज बहुसंख्यक लड़के इसी का लाभ उठाकर भोग-विलास तो चाहते हैं, पर कुटुम्ब के पालन पोषण का उत्तरदायित्व नहीं लेना चाहते, तो विवाह बिल्कुल नहीं चाहते। जो विवाह होते हैं, उनका प्रमाण दिनों-दिन घट रहा है। बहुत सारे विवाह-विच्छेद भी होते हैं। भोग केंद्रित जीवन में, अमरिकन अपने संतानों की देखभाल कम करते हैं। और इसलिए, विच्छेदित परिवारों के बच्चे अनेक मानसिक समस्याओं से ग्रस्त होते हैं।इसका लाभ पहली पीढ़ी के, भारतीय बच्चों को होता अवश्य है। प्रतिस्पर्धी छात्रों की अपेक्षा हमारे बच्चे पढ़ाई में अच्छा प्रदर्शन करते हैं।

(आठ)- विवाह में, आध्यात्मिक प्रेरणा नहीं?

पश्चिम ने, विवाह को “धार्मिक संस्कार” तो पहले भी माना नहीं था। और आज भी उसे वैसा कोई मानता नहीं। एक संविदा (कॉन्ट्रैक्ट) ही माना जाता है। जब कुएं में ही नहीं, तो गागर में कहां से आएगा? इसलिए विवाह के पीछे आध्यात्मिक प्रेरणा भी नहीं है। गुजरात में मेरी जानकारी होने से कहता हूं कि विवाह को प्रभुता (आध्यात्म) में आगे बढ़ने की सीढ़ी समझा जाता है। प्रेम शारीरिक से प्रारंभ अवश्य होता है, पर फिर मानसिक, बौद्धिक, आध्यात्मिक ऐसे सीढी दर सीढ़ी चढ़ते जाने का आदर्श समझा जाता है। प्रेम का ऊर्ध्वगमन होना चाहिए।

(नौ) असंभव

महिलाओं ने यहां पर अपना शील खोकर जिस प्रकार नीलामी में अपने को उतारा है, उसे सुधारना असंभव है। प्राणी ही केवल आहार निद्रा भय और मैथुन की पूर्ति में सारा जीवन बिता देता हैं। बालक मिठाई खाने ही ललचाता है। परसंज्ञानी होने पर उसका विवेक जाग्रत होता है और उसकी सोच भी बदल जाती है। पर इस समझ के लिए बालक को कुछ अनुभव लेकर सयाना होना पड़ता है, विवेक जगाना पड़ता है। कुछ रोग कैंसर जैसे होते हैं। कहते हैं कि किसी व्यक्ति के सोते-सोते उसका प्राण-वायु धीमे-धीमे घटाया जाए, तो वह नींद में ही प्राण त्याग जाता है। उसको जगाए बिना ही, बहुत शांति से उसकी मृत्यु आप करवा सकते हैं।

(दस)- अमरिका में क्या हुआ?

कुछ वृतांत को पढ़ने से, 70-80 के दशक से स्पष्ट दिख रहा है कि विवाहितों की संख्या सतत घट रही है। व्यक्ति स्वातंत्र्य के लुभावने नाम तले, स्वच्छंदता और स्वैराचार की बढ़त ही हो रही है। इसी के साथ संभोग की सहज उपलब्धि और शुक्रवार रात्रि की परम्परित डेटिंग (हिंदी में अनुवाद, नहीं करूंगा।) ऐसे अनेक कारण हैं इसके। शराब भी इसी में अपना योग देती है। ऐसी सामाजिक समस्याओं के, यहां के बुद्धिमान शोधकर्ता भी हर प्रकार के अन्य कारण गिनाते हैं, पर सीधा-सीधा स्पष्ट कारण उन्हें सचमुच दिखाई नहीं देता। शायद उन्हें उनकी वैचारिक चौखट के बाहर होकर देखने की आदत नहीं है। उन्होंने पतंजलि को भी आत्मसात जब किया नहीं है तो अपनी समस्त पहचान से ऊपर उठकर सोचने की क्षमता उनमें कुछ ही लोगों में देखता हूं।

(ग्यारह) ऐसा सस्ता संभोग कैसे हुआ?

पहले ऐसा नहीं था। पर युवा और युवतियों का मिलन पहले स्वीकार हुआ। युवतियां कठोरता से अपने शील-चारित्र्य को सुरक्षित रखते हुए, मित्रता ही बढ़ाती थीं; ऐसा अनुमान करने के आंकड़े भी है। कल्चर यहां का, वैसे परम्परा में, गहरे उतरा हुआ तो पहले भी था नहीं, उथला कल्चर (संस्कृति नहीं ) ही था। निम्नतम कल्चर केवल दैहिक आधारशिला पर टिकता है। उससे ऊंचा भौतिकता पर। उससे कुछ ऊंचा मानसिकता और बौद्धिकता पर। और सबसे ऊंचा आध्यात्मिकता पर ही टिक सकता है, तब उसे संस्कृति कहा जा सकता है। संस्कार के साथ संस्कृति जुड़ी हुयी है और विकार के साथ विकृति। विकृति को संस्कृति नहीं कहा जा सकता, तो यह विकृति ही मानी जाएगी। इसीलिए भारत उसकी संस्कृति जो आध्यात्मिक है, उसी से ही टिकेगा, जिएगा और चमकेगा। यही हमारे अस्तित्व का पवित्र ईश्वरी उद्देश्य है।

(बारह)- हफ़्फ़ींग्टन पोस्ट

हफ़्फ़ींग्टन पोस्ट का समाचार है। “अमरिका में, विवाह का प्रमाण लगातार घट रहा है। 18 से अधिक आयु के आधे अमरिकन ही विवाहित हैं। ये आंकड़े हैं, “प्यु रिसर्च इन्स्टिट्यूट” के एक नवीन वृत्तान्त के अनुसार।

वर्ष (२००९) की अपेक्षा (२०१०) में विवाहित युगलों की संख्या में ५ प्रतिशत घटना ,चौंकानेवाला है। उद्धरण –>

We looked at how many adults are currently married — among people over 18, how many of them have a spouse — and we found that barely half of all adults now are married. That’s declined quite a bit from the past. In 2010, again it was barely half — 51 percent — in 1960, it was 72 percent. The number of couples married in 2010 dropped a startling 5 percent from the previous year, and the overall number of married couples has declined by more than 20 percentage points since 1960.

(तेरह)- बिना उत्तरदायित्व संभोग

युवाओं को बिना उत्तरदायित्व संभोग उपलब्ध हो तो कौन मूर्ख विवाह करेगा ? युवतियां विवाह की आकांक्षा से ही डेटिंग में समर्पण करती है और युवा उसी का लाभ उठाकर वासना पूर्ति कर लेता है। महिलाओं के सामने बोलते हुए, जब मैंने कहा कि आप अपने शील की बलि ना चढ़ाएं, तो महिला का प्रति प्रश्न था कि तो और महिलाएं ऐसा कर के, स्पर्धा में सफल हो जाती है। तो क्या करें? आप उपाय बताएं। क्या उपाय बताऊं? मैं भी हतप्रभ ही हूं।

(चौदह)- इसलिए भारत जागे – ”परम्परा बचाना सरल है, टूटने के पश्चात पुनर्स्थापन करना असंभव (पढ़ा आपने) है।

परम्परा अविकृत रखें, अक्षुण्ण रखें। देश के कर्णधार परम्परा को बचाए रखें यही उपाय है। जब महिलाएं शील-समर्पण नहीं करेगी और विवाह के पश्चात ही संभोग स्वीकार करेंगी। तो विवाह एक प्रेरणादायक रूप में परम्परा में स्थिर बना रहेगा, जो शतियों से रहा है। भारत की संस्कृति अजेय है। यह एक कारण भी है।कुटुम्ब संस्था की समाप्ति ही, यूनान और रोम की संस्कृतियां मिटाने का एक मूल (?) कारण माना जाता है।

यदि हम भी उसी मार्ग पर चले तो फिर हमारा नामोऽनिशां भी अवश्य मिट जाएगा।

जय भारत

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