आर्थिक विकास को प्रभावित करते नजीओ

        

-प्रमोद भार्गव- ngo

संदर्भः- गुप्तचर ब्यूरो की जांच में एनजीओ की करतूत-

देश के स्वयंसेवी संगठन एक बार फिर कठघरे में हैं। मध्य प्रदेश के सिंगरौली में कोयला खनन के खिलाफ आंदोलन जारी है। गुप्तचर ब्यूरो (आईबी) की जांच से खुलासा हुआ है कि यह विरोध विदेशी आर्थिक मदद प्राप्त एक गैर सरकारी संगठन कर रहा है। आईबी का यह भी दाबा है कि विदेशी धन सक्रिय कई एनजीओ भारत के आर्थिक विकास में बाधा बने हुए हैं, ये जनता की चिंता से जुड़े मुद्दों को हवा देकर ऐसा माहौल रचते हैं कि निर्माणाधीन परियोजनाओं का विकास कार्य ठप्प हो जाता है। इससे सालाना सकल घरेलू उत्पाद दर पर दो से तीन फीसदी तक नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। आईबी की यह रिपोर्ट प्रधानमंत्री कार्यालय भेजी गई है। अंदाजा है, सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी रिपोर्ट की सिफारिशों पर अमल करेंगे। सर्वोच्च न्यायालय भी एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए सरकारी धन लेने वाले सभी गैर सरकारी संगठनों की आमदनी और खर्च की जांच के लिए सीबीआई की तैनाती पहले ही कर चुकी है।

आईबी ने इस बार जो रिपोर्ट दी है उसका फलक व्यापक है। इस तरह की रिपोर्ट इसके पहले कभी गुप्तचर संसथाओं ने देश विरोधी संगठनों के विरुद्ध कभी नहीं दी। आईबी द्वारा ऐसे सात आर्थिक विकास से जुड़े क्षेत्र चिन्हित किए हैं, जिन पर एनजीओ निशाना साधते रहे हैं। इन क्षेत्रों में परमाणु उर्जा संयंत्र, यूरेनियम खनन, ताप विद्युत संयंत्र, कृषि जैव तकनीक, बड़ी औद्योगिक परियोजनाएं, पन-बिजली परियोजनाएं और खनिज उत्खनन परियोजनाएं शामिल हैं। रिपोर्ट के मुताबिक एनजीओ खिलाफत की षुरुआत विस्थापन जातीय भेदभाव और मानवाधिकार हनन के मुद्दे उठाकर करते हैं, यहां तक की इन मुद्दों को अंतरराष्ट्रीय मंचों से भी तूल दी जाती है, जिससे भारत बदनाम हो और राष्ट्र संघ भी हस्तक्षेप करने को विवश हो जाएं। इस खुफिया रिपोर्ट में आग्रह किया है कि इस साल एनजीओ इलेक्टॉनिक कचरे को मुद्दा बनाकर भारत कि सूचना तकनीक से जुड़ी कंपनियों पर हल्ला बोलने वाले हैं। इस रिपोर्ट के परिप्रेक्ष्य में यह बात तो सही है कि कुछ एनजीओ विदेशी धन के बूते विकास में रोड़ा बन रहे हैं। लेकिन कुछ एनजीओ ऐसे भी हैं जो परमाणु विकिरण को लेकर मानव स्वास्थ्य से जुड़ी जो आशंकाएं जता रहे हैं, वे वास्तविकता के करीब हैं, लिहाजा ऐसे एनजीओ का गला दोषियों के साथ न घोंट दिया जाए इसकी चिंता भी लाजमी है। जिससे प्रतिरोध की आवाज को भी समर्थन मिलता रहे।

आधुनिक अथवा नवीन स्वयंसेवी संगठनों को सरकार की जटिल शासन प्रणाली के ठोस विकल्प के रूप में देखा गया था। उनसे उम्मीद थी कि वे एक उदार और सरल कार्यप्रणाली के रूप में सामने आएंगे। चूंकि सरकार के पास ऐसी कोई जादू की छड़ी नहीं होती कि वह हर छोटी-बड़ी समस्या का समाधान कर सके। इस परिप्रेक्ष्य में विकास संबंधी कार्यक्रमों में आम लोगों की सहभागिता की अपेक्षा की जाने लगी और उनके स्थानीयता से जुड़े महत्व व ज्ञान परंपरा को भी स्वीकारा जाने लगा। वैसे भी सरकार और संगठन दोनों के लक्ष्य मानव के सामुदायिक सरोकारों से जुड़े हैं। समावेशी विकास की अवधारणा भी खासतौर से स्वैच्छिक संगठनों के मूल में अतर्निहित है। बावजूद प्रशासनिक तंत्र की भूमिका कायदे-कानूनों की संहिताओं से बंधी है। लिहाजा उनके लिए मर्यादा का उल्लंघन आसान नहीं होता ? जबकि स्वैच्छिक संगठन किसी आचार संहिता के पालन की बाध्यता से स्वतंत्र हैं। इसलिए वे धर्म और सामाजिक कार्याें के अलावा समाज के भीतर मथ रहे उन ज्वलंत मुद्दों को भी हवा देने लग जाते हैं, जो उज्ज्वल भविष्य की संभावनाओं और तथाकथित परियोजनाओं के संभावित खतरों से जुड़े होते हैं। कुडनकुलम परियोजना के विरोध में लगे जिन विदेशी सहायता प्राप्त संगठनों पर सवाल खड़े किये गये थे, वे इस परियोजना के परमाणु विकिरण संबंधी खतरों की नब्ज को सहलाकर ही अमेरिकी हित साधने में लगे थे। जिससे रूस के रिएक्टरों की बजाय अमेरिकी रिएक्टरों की खरीद भारत में हो। ऐसे छद्म संगठनों की पूरी एक श्रृंखला है, जिन्हें समर्थक संस्थाओं के रूप में देशी-विदेशी औद्योगिक घरानों ने पाला-पोषा है। चूंकि इन संगठनों की स्थापना के पीछे एक सुनियोजित प्रचछन्न मंशा थी, इसलिए इन्होंने कार्पाेरेट एजेंट की भूमिका निर्वहन में कोई संकोच नहीं किया, बल्कि अलिखित अनुबंध को मैदान में क्रियान्वित किया।

गैर सरकारी संगठनों का जो मौजूदा स्वरूप है, वह देशी अथवा विदेशी सहायता नियमन अधिनियम के चलते राजनीति से जुड़े दल विदेशी आर्थिक मदद नहीं ले सकते, लेकिन स्वैच्छिक संगठनों पर यह प्रतिबंध लागू नहीं है। इसलिए खासतौर से पश्चिमी देश अपने प्रच्छन्न मंसूबे साधने के लिए उदारता से भारतीय एनजीओ को अनुदान देने में लगे हैं। आठवें दशक में इन संगठनों को समर्थ व आर्थिक रूप से संपन्न बनाने का काम काउंसिल फॉर एडवांसमेंट ऑफ पीपुल्स एक्शन (कपार्ट) ने भी किया। कपार्ट ने ग्रामीण विकास, ग्रामीण रोजगार, महिला कल्याण, गरीबी उन्मूलन, शिक्षा साक्षरता, स्वास्थ्य, जनसंख्या नियंत्रण, एड्स और कन्या भ्रूण हत्या के प्रति जागरूकता पैदा करने के लिए संगठनों को दान में धन देने के द्वार खोल दिए। पर्यावरण संरक्षण एवं वन विकास के क्षेत्रों में भी इन संगठनों की भूमिका रेखांकित हुई।

भूमण्डलीय परिप्रेक्ष्य में नव उदारवादी नीतियां लागू होने के बाद और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के भारत में आगमन का सिलसिला परवान चढ़ने के बाद तो जैसे एनजीओ के दोनों हाथों में लड्डू आ गए। खास तौर से दवा कंपनियों ने इन्हें काल्पनिक महामारियों को हवा देने का जरिया बनाया। एड्स, एंथ्रेक्स और वर्ल्ड फ्लू की भयावहता का वातावरण रचकर एनजीओ ने ही अरबों-खरबों की दवाएं और इनसे बचाव के नजरिए से ‘निरोध’ (कण्डोम) जैसे उपायों के लिए बाजार और उपभोक्ता तैयार करने में उल्लेखनीय किंतु छद्म भूमिका का निर्वहन किया। चूंकि ये संगठन विदेशी कंपनियों के लिए बाजार तैयार कर रहे थे, इसलिए इनके महत्व को सामाजिक ‘गरिमा’ प्रदान करने की चालाक प्रवृत्ति के चलते संगठनों के मुखियाओं को न केवल विदेश यात्राओं के अवसर देने का सिलसिला शुरू हुआ, बल्कि अंतरराष्ट्रीय