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संयुक्त राष्ट्र मैं भारतीय प्रधान मंत्री व् ईरान के राष्ट्रपति का भाषण – कुछ शिक्षा लेने का अवसर

Iran president in unoसंयुक्त राष्ट्र मैं भारतीय प्रधान मंत्री व् ईरान के राष्ट्रपति का भाषण – कुछ शिक्षा लेने का अवसर 

                                                                                                                                                                                                                Rajiv Upadhyay RKU

 

यदि कोई मुझसे पूछे की भारत को आज किसकी जरूरत है , एक स्वपन दृष्टा की या एक लौह पुरुष व् कर्मठ नेता की तो मैं बिना झिझक कहूँगा की लौह पुरुष की .

 

यह ऋषि मुनियों का देश हजारों वर्षों से आत्मा परमात्मा के भेद के विचारकों व् स्वपन दृष्टाओं का रहा है . इस की आखिरी श्रृखला पंडित नेहरु व् अटल बिहारी वाजपेयी थे . देश मैं कुछ कर दिखानेवाले विश्वकर्माओं की कमी सदा से रही है. इस लिए यदि आज देश मोदी को समर्थन दे रहा है इस का कारण देश बड़बोलों की नहीं बल्कि कुछ कर दिखने वालों की कामना कर रहा है . प्रधान मंत्री मोदी चाहे जो कुछ नहीं हों पर एक सक्षम विश्वकर्मा अवश्य हैं जो पहले दिन बैंकों की डेढ़  करोड़ शाखाओं खोल कर उन्होंने अपनी भिन्न  कार्य शैली को दिखा दिया है .

 

परन्तु विश्व मैं यह युग नए विचारकों का है . इन्टरनेट , ट्विटर , फेसबुक इत्यादि ने विचारकों को बहुत बड़ा मंच दे दिया है . भारत की तरह आज विश्वकर्माओं का युग विदेशों मैं नहीं है. वैश्विक युद्ध विचारों के धरातल पर  लडे जा रहे हैं . कुछ जगह ऐसी भी होती हैं जहाँ स्वपन दृष्टाओं की आवश्यकता होती है . अंतर्राष्ट्रीय मंच जैसे संयुक्त राष्ट्र एक ऐसा स्थान है. नीचे ईरान के राष्ट्रपति का संयुक्त राष्ट्र का भाषण दिया जा रहा है . पाठकों ने मोदीजी का भाषण भी पढ़ा होगा . इसमें संदेह नहीं की ईरान के राष्ट्रपति का भाषण भारत के प्रधान मंत्री के भाषण से अपने देश की समस्यायों से विश्व को अवगत करने मैं कहीं अधिक प्रभावशाली है. उन्होंने पश्चिम को जो चांटा मारा है वह बहुत आवश्यक था . उनके भावों मैं बहुत गलतियाँ है पर वह चतुराई से छुपा दी गयी हैं . उनका विस्तार हम बाद मैं करेंगे .

 

पर भारत को अन्तराष्ट्रीय मंच पर अगुआ बनाने के लिए प्रधान मंत्री के भाषण लिखने वालों को अधिक सशक्त विचार उनके भाषणों मैं देने होंगे . जैसे भारत के डब्लू टीओ के कृषि सम्बन्धी विचारों को इस मंच पर बताना चाहिए था . गरीब देशों के स्वस्थ व् भूख को पश्चिम की दवाओं की कंपनियों का दास नहीं बनाया जा सकता .न ही उनकी गेहूं व्  खाद्यान का निर्यात किसी देश की स्वाबलंबन की इच्छा के विपरीत नहीं किया जा सकता . इसी तरह के कई अन्य विषय है जिसमें भारतीय प्रधान मंत्री विश्व के स्वपन ददृष्टा नेताओं मैं अपना स्थान बना सकते हैं . ऐसे ही लालकिले का भाषण अपनी नवीनता के लिए तो अच्छा था , सफाई जैसी प्रमुख बात को सही स्थान देने के लिए उपयुक्त था पर उसमें भी उस अंश की कमी थी जो जनता को अति उत्साहित कर सकता .

 

मोदीजी जिन बाबुओं पर पूर्ण रूप से आश्रित हैं वह बाबु जन्मजात यथास्थिति का उपासक होता है . उससे क्रांति की उम्मीद करना ही गलत है .

 

इस मंच से हम एक बार फिर प्रधान मंत्री से अनुरोध करेंगे की वह बाबुओं के चुन्गुल से निकल कुछ महान  विचारकों को भी अपनी टीम मैं जगह दें . अरस्तु व् सिकंदर की कहानी की तरह कोई महान  विचारक सरकार या राजा पिछलग्गू नहीं हो सकता , कवि भूषण की व् औरंगजेब की तरह साफ़ खरी बात कहेंगे , चापलूस नहीं होंगे .पर यदि उनकी खरी शैली सुन लि गयी तो देश को दशकों बाद जो यही नया मौका मिला है उसका सदुपयोग करने मैं पूर्ण रूप से सक्षम होंगे जो यथा स्थिति का उपासक सरकारी बाबु कभी नहीं हो सकता .

 

पाठक ईरान के राष्ट्रपति के निम्न लिखित भाषण को पढ़ खुद यह फैसला करें

 

 

 

The Iranian President before the 69th Session of the UN General Assembly (Sept 25, 2014)- Worth reading by open-minded people.

 

 

 

 

 

Extremism is not a regional issue that just the nations of our region would have to grapple

 

with; extremism is a global issue. Certain states have helped creating it and are now failing to

 

withstand it. Currently our peoples are paying the price. Today’s anti-Westernism is the

 

offspring of yesterday’s colonialism. Today’s anti-Westemism is a reaction to yesterday’s

 

racism. Certain intelligence agencies have put blades in the hand of madmen, who now spare no

 

one. All those who have played a role in founding and supporting these terror groups must

 

acknowledge their errors that have led to extremism. They need to apologize not only to the past

 

but also to the next generation.

 

 

 

To fight the underlying causes of terrorism, one must know its roots and dry its source

 

fountains. Terrorism germinates in poverty, unemployment, discrimination, humiliation and

 

injustice. And it grows in the culture of violence. To uproot extremism, we must spread justice

 

and development and disallow the distortion of divine teachings to justify brutality and cruelty.

 

The pain is made greater when these terrorists spill blood in the name of religion and behead in

 

the name of Islam. They seek to keep hidden this incontrovertible truth of history that on the

 

basis of the teachings of all divine prophets, from Abraham and Moses and Jesus to Mohammed,

 

taking the life of a single innocent life is akin to killing the whole humanity. I am astonished that

 

these murderous groups call themselves Islamic. What is more astonishing is that the Western

 

media, in line with them, repeats this false claim, which provokes the hatred of all Muslims.

 

Muslim people who everyday recall their God as merciful and compassionate and have learned

 

lessons of kindness and empathy from their Prophet, see this defamation as part of a

 

Islamophobic project.

 

 

 

The strategic blunders of the West in the Middle-East, Central Asia, and the Caucuses

 

have turned these parts of the world into a haven for terrorists and extremists. Military

 

aggression against Afghanistan and Iraq and improper interference in the developments in Syria

 

are clear examples of this erroneous strategic approach in the Middle East. As non-peaceful

 

approach, aggression, and occupation target the lives and livelihoods of ordinary people, they

 

result in different adverse psychological and behavioral consequences that are today manifested

 

in the form of violence and murder in the Middle East and North Africa, even attracting some

 

citizens from other parts of the world. Violence is currently being spread to other parts of the

 

world like a contagious disease. We have always believed that democracy cannot be transplanted

 

from abroad; democracy is the product of growth and development; not war and aggression.

 

Democracy is not an export product that can be commercially imported from the West to the

 

East. In an underdeveloped society, imported democracy leads only to a weak and vulnerable

 

government.

 

 

 

http://www.un.org/en/ga/69/meetings/gadebate/pdf/IR_en.pdf

 

 

 

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